ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 16/ मन्त्र 6
वृषा॑ ते॒ वज्र॑ उ॒त ते॒ वृषा॒ रथो॒ वृष॑णा॒ हरी॑ वृष॒भाण्यायु॑धा। वृष्णो॒ मद॑स्य वृषभ॒ त्वमी॑शिष॒ इन्द्र॒ सोम॑स्य वृष॒भस्य॑ तृप्णुहि॥
स्वर सहित पद पाठवृषा॑ । ते॒ । वज्रः॑ । उ॒त । ते॒ । वृषा॑ । रथः॑ । वृष॑णा । हरी॒ इति॑ । वृ॒ष॒भाणि॑ । आयु॑धा । वृष्णः॑ । मद॑स्य । वृ॒ष॒भ॒ । त्वम् । ई॒शि॒षे॒ । इन्द्र॑ । सोम॑स्य । वृ॒ष॒भस्य॑ । तृ॒प्णु॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषा ते वज्र उत ते वृषा रथो वृषणा हरी वृषभाण्यायुधा। वृष्णो मदस्य वृषभ त्वमीशिष इन्द्र सोमस्य वृषभस्य तृप्णुहि॥
स्वर रहित पद पाठवृषा। ते। वज्रः। उत। ते। वृषा। रथः। वृषणा। हरी इति। वृषभाणि। आयुधा। वृष्णः। मदस्य। वृषभ। त्वम्। ईशिषे। इन्द्र। सोमस्य। वृषभस्य। तृप्णुहि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 16; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्विषयमाह।
अन्वयः
हे वृषभेन्द्र यस्य ते वृषा वज्र उत ते वृषा रथो वृषणा हरी वृषभाण्यायुधानि सन्ति स यस्य वृष्णो मदस्य वृषभस्य सोमस्य त्वमीशिषे तेन तृप्णुहि ॥६॥
पदार्थः
(वृषा) परशक्तिप्रतिबन्धकः (ते) तव (वज्रः) वेगः (उत्) अपि (ते) तव (वृषा) वेगवान् (रथः) यानम् (वृषणा) बलिष्ठौ (हरी) हरणशीलावश्वौ (वृषभाणि) शत्रुबलनिवारकाणि (आयुधा) शस्त्राऽस्त्राणि (वृष्णः) बलकरस्य (मदस्य) हर्षस्य (वृषभ) अत्युत्तम (त्वम्) (ईशिषे) (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (सोमस्य) रसस्य (वृषभस्य) पुष्टिकरस्य (तृप्णुहि) तृप्तो भव ॥६॥
भावार्थः
येषां सर्वकर्मसिद्धिकराणि साधनोपसाधनानि दृढानि प्रशंसितानि कर्माणि वा सन्ति ते कार्यं साधितुं न व्यथन्ते ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वान् के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (वृषभ) अत्युत्तम (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त विद्वान् जिन (ते) आपका (वृषा) दूसरे की शक्ति का प्रतिबन्धन करनेवाला (वज्रः) वेग (उत) और (ते) आपका (वृषा) वेगवान् (रथः) रथ (वृषणा) बलिष्ठ (हरी) हरणशील घोड़े (वृषभाणि) और शत्रुओं के बल को रोकनेवाले (आयुधा) शस्त्र-अस्त्र हैं सो जिस (वृष्णः) बल करनेवाले (मदस्य) हर्ष का और (वृषभस्य) पुष्टि करनेवाले (सोमस्य) ओषध्यादि रस के आप (ईशिषे) स्वामी होते हैं उससे (तृप्णुहि) तृप्त होओ ॥६॥
भावार्थ
जिनके सब कामों की सिद्धि करानेवाले साधनोपसाधन दृढ़ वा प्रशंसित काम हैं, वे कामों के साधन कराने को पीड़ित नहीं होते ॥६॥
विषय
'वृषभ' सोम
पदार्थ
१. हे (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (ते वज्र) = तेरी क्रियाशीलता ही तेरा वज्र बनती है [वज् गतौ] । यह वृषा तुझे शक्तिशाली बनाती है और तेरे पर सुखों का वर्षण करती है। (उत) = और (ते) = तेरा (रथः) = यह शरीररूप रथ भी (वृषा) = शक्तिशाली होता है और तेरे पर सुखों का वर्षण करता है। (हरी) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप (अश्व) = भी वृषणा शक्तिशाली होते हैं। (आयुधा) = तेरे प्राण, मन व बुद्धिरूप सभी जीवनसंग्राम में विजयप्राप्ति के लिए दिये गये आयुध (वृषभाणि) = शक्तिशाली होते हैं । २. यह सब कुछ होता तभी है जबकि (वृषभ) = ऐश्वर्यशाली जीव ! (त्वम्) = तू (मदस्य) = हर्ष के जनक (वृष्णः) = सुखवर्षक सोम का ईशिषे ईश बनता है। इसलिए हे इन्द्र! तू इस (वृषभस्य) = तुझे शक्तिशाली बनानेवाले (सोमस्य) = सोम का (तृप्णुहि) = पान करते हुए तृप्ति का अनुभव कर इस सोमरक्षण के अभाव में निर्बलता व निरुत्साह का ही तुझे अन्ततः अनुभव होगा।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से हम क्रियाशील बनते हैं। इससे शरीर, इन्द्रियाँ व मन आदि सब स्वस्थ अनुभव होता है । बनते हैं। जीवन में शक्ति व तृप्ति का
विषय
परमेश्वर का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! ( ते वज्रः ) वज्र, बलवीर्य ( वृषा ) सुखों का वर्षक और शत्रुओं की शक्ति का प्रतिबन्धक हो । ( ते रथः ) तेरा रथ, या रथों का बल ( वृषा ) दृढ़, वेगवान् शत्रुओं पर शस्त्रास्त्रवर्षी हो । ( ते हरी ) तेरे दोनों अश्व ( वृषणा ) बलवान् हों । ( ते आयुधा ) तेरे शस्त्रास्त्र ( वृषभा ) दृढ़ हों । हे ( वृषभ ) सर्वोत्तम ! ( वृष्णः ) बलशाली ( मदस्य ) हर्ष और दमन का और ( वृषभस्य सोमस्य ) सुखों के वर्षक ऐश्वर्य का ( त्वम् ) तू ही ( ईशिषे ) स्वामी हो सकता है। उससे तू ( तृष्णुहि ) सदातृप्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ७ जगती । विराड् जगती ४, ५, ६, ८ निचृज्जगती च । २ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्यांची सर्व कामे सिद्ध करविणारी साधने व उपसाधने दृढ आहेत किंवा कर्म प्रशंसित आहेत, ते कार्य सिद्ध करताना त्रस्त होत नाहीत. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, generous and potent lord of life and joy, mighty is your thunderbolt, tempestuous your chariot, fast as winds are your horses, and blazing are your arms and weapons of justice, reward and punishment. Generous and mighty lord, you create and govern the infinite treasures of life, vigour and joy. O lord of power and energy, drink of this invigorating soma of joy and give us too the drink of it to the depth of surfeit and heights of sobriety.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of scholar is dealt herewith.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O scholar ! you are excellent and possess prosperity. You might check the power of wickeds and you are master of fast chariots, being driven away by fast moving horses. You are also master of potential weapons, which are capable to check the onslaught of your foes. It provides you strength, happiness and nourishing juices of the SOMA and other medicinal plants. Take it profusely to you heart's content.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who plan their resources competently, they never face any setback in their schemes.
Foot Notes
(वृषा) परशक्तिप्रतिबन्धकः। = Which is capable to check the strength of the enemies. (हरी ) हरणशीलावत्वौ |= Two horses which carry well the transport. ( तृप्णुहि ) तृप्तो भव । = Take it profusely to your hearts content.
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