ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 20/ मन्त्र 5
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
सो अङ्गि॑रसामु॒चथा॑ जुजु॒ष्वान्ब्रह्मा॑ तूतो॒दिन्द्रो॑ गा॒तुमि॒ष्णन्। मु॒ष्णन्नु॒षसः॒ सूर्ये॑ण स्त॒वानश्न॑स्य चिच्छिश्नथत्पू॒र्व्याणि॑॥
स्वर सहित पद पाठसः । अङ्गि॑रसाम् । उ॒चथा॑ । जु॒जु॒ष्वान् । ब्रह्मा॑ । तू॒तो॒त् । इन्द्रः॑ । गा॒तुम् । इ॒ष्णन् । मु॒ष्णन् । उ॒षसः॑ । सूर्ये॑ण । स्त॒वान् । अश्न॑स्य । चि॒त् । शि॒श्न॒थ॒त् । पू॒र्व्याणि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सो अङ्गिरसामुचथा जुजुष्वान्ब्रह्मा तूतोदिन्द्रो गातुमिष्णन्। मुष्णन्नुषसः सूर्येण स्तवानश्नस्य चिच्छिश्नथत्पूर्व्याणि॥
स्वर रहित पद पाठसः। अङ्गिरसाम्। उचथा। जुजुष्वान्। ब्रह्मा। तूतोत्। इन्द्रः। गातुम्। इष्णन्। मुष्णन्। उषसः। सूर्येण। स्तवान्। अश्नस्य। चित्। शिश्नथत्। पूर्व्याणि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 20; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सभेशगुणानाह।
अन्वयः
योऽङ्गिरसामुचथा ब्रह्म जुजुष्वान् गातुमिष्णन् सूर्य्येणोषसोऽश्नस्य स्तवान् शिश्नथच्चिदिव पूर्व्याणि तूतोत्स इन्द्रोऽस्माकमविता भवतु ॥५॥
पदार्थः
(सः) (अङ्गिरसाम्) प्राणिनाम् (उचथा) वक्तुमर्हाणि (जुजुष्वान्) सेवितवान् (ब्रह्मा) धनानि। अत्राकारादेशः (तूतोत्) वर्द्धयेत् (इन्द्रः) पुरुषार्थी (गातुम्) पृथिवीम् (इष्णन्) अभीक्षणमिच्छन् (मुष्णन्) चोरयन् (उषसः) प्रभातान् (सूर्येण) सह (स्तवान्) स्तुतीः (अश्नस्य) मेघस्य। अश्न इति मेघना० निघं० १। १० (चित्) इव (शिश्नथत्) हिंसति। श्नथतीति हिंसाकर्मा० निघं० २। १९ (पूर्व्याणि) पूर्वैः कृतानि ॥५॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये सूर्य्यवद्वर्द्धकाश्छेदकाश्च भूत्वा राज्यं वर्द्धयेयुस्त उचितां पूर्वैस्सेवितां श्रियं प्राप्नुवन्ति ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सभेश के गुणों को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जो (अङ्गिरसाम्) प्राणियों के (उचथा) कहने योग्य (ब्रह्मा) धनों को (जुजुष्वान्) सेवन किये हुए (गातुम्) पृथिवी को (इष्णन्) सब ओर से देखता हुआ (सूर्य्येण) सूर्य्य के साथ (उषसः) प्रभात समयों को (अश्नस्य) मेघ की (स्तवान्) स्तुतियों को (शिश्नथत्) नष्ट करता है (चित्) उसके समान (पूर्व्याणि) पूर्व्याचार्य्यों ने की हुई (तूतोत्) स्तुतियों को बढ़ावे (सः) वह (इन्द्रः) पुरुषार्थी जन हमारा रक्षक हो ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो सूर्य के समान बढ़ाने और छिन्न-भिन्न करनेवाले होकर राज्य को बढाते हैं, वे उचित और अगले सज्जनों की सेवन की हुई लक्ष्मी को प्राप्त होते हैं ॥५॥
विषय
अश्न का शिथिलीकरण
पदार्थ
१. (सः) = वे प्रभु (अङ्गिरसाम्) = अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसवाले उपासकों कें— स्वस्थ, सबल व सुन्दर शरीरवाले उपासकों के (उचथा) = स्तोत्रों को (जुजुष्वान्) = प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाला होता है। शरीर को जीर्ण कर लेनेवाला क्या प्रभु का उपासक है ? यह अङ्गिरसों के स्तोत्रों से प्रीणित हुआ हुआ (इन्द्रः) = प्रभु (गातुम् इष्णन्) = मार्ग की प्रेरणा देता हुआ ब्रह्म उनके ज्ञान को (तूतोत्) = बढ़ाता है। वस्तुतः ज्ञानवर्धन के द्वारा ही प्रभु उन्हें मार्गप्रदर्शन करते हैं । २. स्तवान् स्तुति किये जाते हुए वे प्रभु जैसे (सूर्येण) = सूर्य के प्रकाश द्वारा (उषसः मुष्णन्) = उषाओं का अपहरण करते हैं, इसी प्रकार (अश्नस्य) = इस कभी न तृप्त होनेवाले, बड़े खानेवाले महाशन काम की (पूर्व्याणि चित्) = अत्यन्त प्रबल शक्तियों को भी (शिश्नथत्) = शिथिल कर देते हैं। 'पूर्व्याणि'= पूर्व स्थान में होनेवाली - अत्यन्त प्रबल काम की शक्तियों को प्रभु ढीला कर देते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का उपासन काम के प्रबल आक्रमणों को भी ढीला कर देता है।
विषय
सूर्यवत् नायक और परमेश्वर का वर्णन ।
भावार्थ
( सः ) वह ( इन्द्रः ) परमेश्वर ( अङ्गिरसाम् ) विद्वान् ज्ञानवान् पुरुषों को और तेजस्वी अग्नि, सूर्य आदि दिव्य पदार्थों और लोकों को ( गातुम् ) उनके उत्तम मार्ग की ( इष्णन् ) प्रेरणा करता या देता हुआ उनके ( उचथा ) कथन करने योग्य ( ब्रह्मा ) बड़े २ ऐश्वर्यो और बलों को भी ( जुजुष्वान् ) स्वयं धारण करके और वही परमेश्वर ( सूर्येण ) सूर्य के समान ( उषसः ) प्रभात वेलाओं को और (स्तवान्) स्तुतियों को ( इष्णन् ) करता हुआ, ( अश्नस्य ) सब को खाजाने या अपने पेट में घर लेने वाले अन्धकार के समान लोभ, मोह या अज्ञान सम्बन्धी ( पूर्व्याणि ) पूर्व जन्म के बन्धनों को भी ( शिश्नथत् ) शिथिल कर देता है ( अर्थात् ) सूर्य जिस प्रकार उदय होकर प्रभात वेलाओं को हर लेता है उसी प्रकार प्रभु भी उदय होकर स्तुतियों को प्राप्त करता और सच्ची स्तुतियां हृदय से निकलने पर हृदय में से लोभ और अज्ञान की पूर्व वासनाऐं भी शिथिल होजाती हैं । (२) ऐश्वर्यवान् राजा (अंगिरसा उचथा जुजुष्वान्) विद्वानों के वचनों का प्रेम से सेवन करता हुआ, ( गातुम् इष्णन् ) सन्मार्ग और उत्तम भूमि राज्य को चाहता हुआ ( ब्रह्मा तूतोत् ) अपने धनों और बल वीर्यों को बढ़ावे । वह ( सूर्येण समं उषसः इव स्तवान् मुष्णान् ) सूर्य के समान प्रभातों के सदृश उज्वल स्तुतियों को प्राप्त करता हुआ (अश्नस्य चित्) लोभ और लोभी शत्रु ( पूर्व्याणि ) पूर्व के किये दुष्ट कर्मों को, दुष्ट नियम विधानों को (शिश्नयत्) शिथिल करदे । इति पञ्चविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ६,८ विराट त्रिष्टुप् । ६ त्रिष्टुप् । २ बृहती । ३ पङ्क्तिः । ४, ५, ७ भुरिक् पङ्क्तिः॥ नवर्चं सूक्तम॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे सूर्याप्रमाणे वर्धक व छेदक असतात ते राज्याची वाढ करतात. त्यांना उचित व पूर्वीच्या लोकांनी प्राप्त केलेली संपत्ती मिळते. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That same Indra, lord of light and power, delighting in the admirable wealth and knowledge of the people, watching and loving the wide earth, taking over the beauty of the dawn with the splendour of the sun, and silencing the roar of clouds, augments and advances the songs of the celebrants since eternity and releases them from their bonds.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The qualities of the President of the Assembly are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
On this earth, those who earn wealth, are praised everywhere ; and the ones who dispel ignorance as the un dispels the clouds at the dawn-such mighty persons should bring glory to the praises offered by our ancient scholars. Such a person would be our protector.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Like the sun who annihilates the enemies and expands the kingdom and at the same time honors well the pious and noble persons, he acquires great wealth.
Foot Notes
(अंगिरसाम्) प्राणिनाम् = Of the creatures or beings. (उचथा) वक्तु मर्हाणि। = Praiseworthy. (ब्रह्मा ) धनानि | = Wealths. (तृतोत्) वर्द्धयेत् ।=Increases. ( गातुम् ) पृथिवीम्। = To the earth. (इष्णन्) अभीक्षणमिच्छन् । = Looking all sides. (अश्नस्य) मेघस्य | प्रश्न इति मेघनाम (N.G. 1-10)= Of the clouds. ( शिश्नथत ) हिंसति । श्नयतीति हिंसा कर्मा । (N.G. 2-19) = Kills. (पूर्व्याणि) पूर्वैः कृतानि । = Actions performed by the ancient persons.
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