ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 20/ मन्त्र 8
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तस्मै॑ तव॒स्य१॒॑मनु॑ दायि स॒त्रेन्द्रा॑य दे॒वेभि॒रर्ण॑सातौ। प्रति॒ यद॑स्य॒ वज्रं॑ बा॒ह्वोर्धुर्ह॒त्वी दस्यू॒न्पुर॒ आय॑सी॒र्नि ता॑रीत्॥
स्वर सहित पद पाठतस्मै॑ । त॒व॒स्य॑म् । अनु॑ । दा॒यि॒ । स॒त्रा । इन्द्रा॑य । दे॒वेभिः॑ । अर्ण॑ऽसातौ । प्रति॑ । यत् । अ॒स्य॒ । वज्र॑म् । बा॒ह्वोः । धुः । ह॒त्वी । दस्यू॑न् । पुरः॑ । आय॑सीः । नि । ता॒री॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्मै तवस्य१मनु दायि सत्रेन्द्राय देवेभिरर्णसातौ। प्रति यदस्य वज्रं बाह्वोर्धुर्हत्वी दस्यून्पुर आयसीर्नि तारीत्॥
स्वर रहित पद पाठतस्मै। तवस्यम्। अनु। दायि। सत्रा। इन्द्राय। देवेभिः। अर्णऽसातौ। प्रति। यत्। अस्य। वज्रम्। बाह्वोः। धुः। हत्वी। दस्यून्। पुरः। आयसीः। नि। तारीत्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 20; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
यद्यो बाह्वोर्वज्रं धृत्वा दस्यून् हत्वी आयसीः पुरो नि तारीत् स येनाऽस्यार्णसातौ तवस्यमनुदायि तस्मा इन्द्राय ये सत्रा धुस्ते च देवेभिस्सह सुखं प्राप्नुवन्ति ॥८॥
पदार्थः
(तस्मै) स्तावकाय (तवस्यम्) तवसि बले भवम् (अनु) (दायि) दीयेत (सत्रा) सत्येन (इन्द्राय) बह्वैश्वर्यप्रदाय (देवेभिः) (अर्णसातौ) उदकस्य प्राप्तौ (प्रति) (यत्) यः (अस्य) (वज्रम्) शस्त्राऽस्त्रम् (बाह्वोः) (धुः) धरेयुः। अत्राडभावः (हत्वी) हत्वा। अत्र स्नात्व्यादय इतीदं सिध्यति (दस्यून्) भयंकरान् चोरान् (पुरः) नगरीः (आयसीः) सुवर्णलोहनिर्मिताः (नि) (तारीत्) उल्लङ्घयेत् ॥८॥
भावार्थः
ये सवलयानि नगराणि निर्माय दस्य्वादीन्निराकृत्य विद्वद्भिः सह राज्यं पालयन्ति ते सत्यं सुखमश्नुवते ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
(यत्) जो (बाह्वोः) भुजाओं के (वज्रम्) शस्त्र और अस्त्र को धारण (दस्यून्) और भयंकर चोरों को (हत्वी) हननकर (आयसीः) सुवर्ण और लोह के काम की (पुरः) नगरियों को (नि,तारीत्) उल्लङ्घता रहे वह और जिससे (अस्य) इस मेघ के (अर्णसातौ) जल की प्राप्ति के निमित्त (तवस्यम्) जल में उत्पन्न हुआ पदार्थ (अनुदायि) दिया जाए (तस्मै) उस प्रस्तुति प्रशंसा करने और (इन्द्राय) बहुत ऐश्वर्य के देनेवाले के लिये जो (सत्रा) सत्यता से प्रति (धुः) प्रतीति से धारण करें वे सब (देवेभिः) विद्वानों के साथ सुख पाते हैं ॥८॥
भावार्थ
जो परिधियों के सहित नगरियों को बनाये और भयंकर चोर आदि को निवारण कर विद्वानों के साथ राज्य की पालना करते हैं, वे सत्य सुख को प्राप्त होते हैं ॥८॥
विषय
असुरों की लौहपुरियों का विध्वंस
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार जिसका जीवन अधिकाधिक यज्ञमय होता जाता है (तस्मै) = उस इन्द्राय जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (अर्णसातौ) = ज्ञानजल की प्राप्ति के निमित्त (देवेभिः) = सब देवों=से (सत्रा) = सदा (तवस्यम्) = वृद्धि का कारणभूत बल (अनुदायि) = क्रमशः दिया जाता है। सूर्य, चन्द्र व जलवायु आदि सब देव इसके अनुकूल होते हैं - इन देवों की अनुकूलता से इसके बल की वृद्धि होती है। बल की वृद्धि के साथ यह ज्ञानजल को प्राप्त करनेवाला होता है। सूर्यादि देव इसे बल देते हैं और ज्ञानी- विद्वान् पुरुष इसके ज्ञान का वर्धन करनेवाले होते हैं । २. ये देव (अस्य बाह्वो:) = इसकी बाहुओं में (यद्) = जब (वज्रम्) = क्रियाशीलतारूप वज्र को प्रति (धुः) = धारण करते हैं, अर्थात् इसे स्वस्थ व ज्ञानी बनाकर क्रियाशील बनाते हैं तो यह (दस्यून् हत्वी) = दस्युओं को मारकर, अर्थात् दास्यववृत्तियों को विनष्ट करके (आयसीः पुरः) = लोहे के बने हुए, अर्थात् बड़े दृढ़ दस्युओं के पुरों को (नितारीत्) = विनष्ट करता है। ये 'आयसी: पुरः' दस्युओं के तीन पुर ही हैं। काम का इन्द्रियों में, क्रोध का मन में तथा लोभ का बुद्धि में जो किला बन जाता है उन अति दृढ़ तीनों किलों को विदीर्ण करके यह 'त्रिपुरारि' बन जाता है। यही प्रभु जैसा बनना है।
भावार्थ
भावार्थ - सूर्य, चन्द्र व जलवायु आदि देवों से हमें स्वास्थ्य व शक्ति प्राप्त हो, ज्ञानियों से ज्ञान प्राप्त हो । अब क्रियाशील बनकर हम असुरों की पुरियों का विदारण करनेवाले बनें ।
विषय
सूर्यवत् नायक और परमेश्वर का वर्णन ।
भावार्थ
( अर्णसातौ ) जल प्राप्त करने के लिये जिस प्रकार (सत्रा) उस सत्र अर्थात् यज्ञ में (इन्द्राय) जलप्रद मेघ की वृद्धि के लिये (तवस्यम्) उस वृष्टिकारक बल का बढ़ाने वाला चरु ही ( अनुदायि) निरन्तर दिया जाता है उसी प्रकार ( अर्णसातौ ) अभीष्ट अर्थात् पाने योग्य फल प्राप्त करने के लिये ही ( सत्रा ) सत्याचरण और मिथ्याचार से रहित सत्य उपासना द्वारा ( तस्मै इन्द्राय ) उस परमेश्वर्यवान् प्रभु के निमित्त ( देवेभिः ) विद्वान् पुरुषों द्वारा ( तवस्यं ) आत्मा की शक्ति को बढ़ाने वाला दान, वचन स्तवन आदि कर्म फल ( अनुदायि ) निरन्तर देते या त्यागते रहना चाहिये । ( यत् ) जब ( अस्य ) इस जीव के (बाहोः) अज्ञान को बांधने वाले ज्ञान और कर्म रूप दोनों बाहुओं से (वज्रं धुः) अज्ञान नाशक बल को धारण कर लेते हैं तब वह ( दस्यून हत्वी ) आत्मा के नाशकारी अन्तः शत्रुओं को नाश करके (आयसीः) आवगमन सम्बन्धी ( पुरः ) देहबन्धनों को ( नितारीत् ) पार कर जाता है । जैसा उपनिषत् ऐतरये में लिखा है—तदुक्तमृषिणा। गर्भेनु सन्वेषामवेदमहं देवानां जनिमानि विश्वा । शतं मा पुर आयसीररक्षन्नध श्येनो जवसा निरदीयम् ॥ स एवं विद्वानस्मात् शरीरभेदादूर्ध्वमुतक्रम्यामुष्मिन् स्वर्गे लोके सर्वान् कामानात्वाऽमृतः समभवत् समभवत् । एत० उप० २ ॥ ४ ॥ ( २ ) धनैश्वर्य की प्राप्ति के लिये ( देवेभिः ) विजयेच्छुक सैनिक और दानशील धनाढ्यजन भी ( सत्रा ) एक साथ ही ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता राजा ‘इन्द्र’ को अपना ( तवस्य ) बल वर्धक वीर्य, धन, शस्त्रास्त्रादि सब निरन्तर दें । जब उसके बाहुओं में या बाजुओं पर, अगल बगल शत्रुवारक शस्त्रास्त्र और सैन्यबल प्रदान करते हैं तो वह दुष्ट शत्रुओं को नाश करके उनके ( आयसीः पुरः ) फौलादी, दृढ़ या शस्त्रास्त्र सैन्य से पूर्ण नगरियों को भी मात कर देता है। असुरों की तीव्र प्रकार की पुरी या किलें हैं एक सोने की, दूसरी चांदी की, तीसरी लोहे की अर्थात् ज्ञान और नीति कुशलता या उत्तम व्यवस्था यह सुवर्ण का गढ़ है, धन वैभव समृद्धि अर्थात् आर्थिक दृढ़ता चांदी का गढ़ है । और शस्त्रास्त्र सैन्य बल फौलादी गढ़ है । अध्यात्म में आवागमन का बन्धन आत्मा के लिये आयसी पुर या फौलादी गढ़ है। वही यह भौतिक देह है । प्राणमय, विज्ञानमय मनोमय, कोश तीनों ‘राजसी पुर’ हैं, और आनन्दमय हिरण्ययीपुर या हिरण्ययकोश है। सभी प्राणों पर आश्रित होने से आसुर कहाती हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ६,८ विराट त्रिष्टुप् । ६ त्रिष्टुप् । २ बृहती । ३ पङ्क्तिः । ४, ५, ७ भुरिक् पङ्क्तिः॥ नवर्चं सूक्तम॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे कोट उभे करून नगर वसवितात व भयंकर चोर इत्यादींचे निवारण करतात, तसेच विद्वानांसह राज्याचे पालन करतात ते खरे सुख प्राप्त करतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
To that omnipotent Indra, in the battles of creation for the waters of life and generation of the wealth of existence, mighty offerings are made into the fire of yajna in truth and sequence by the divine powers of nature and the noblest of humanity who hold on to their part in obedience and response to this wielder of the thunderbolt in arms who destroys the evil and the negatives to overcome the cities of gold and steel in existence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of learned person is dealt herewith.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A learned person always has strong arms and powerful weapons and battle wares for killing the wickeds and robbers when they overtake the towns of steel and gold. In order to acquire water resources, the clouds should be well harnessed, which are givers of strength, We all should be grateful to those who make truthful praise and impart vast riches and prosperity through truthful means. Those who are in the company of such learned persons, they are always happy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who build towns with boundaries and keep a vigilance on rabid criminals, they carry on the admiration of their State very well, and the people achieve happiness.
Foot Notes
(तवस्यम् ) तवसि बले भवम् । = Born of strength. (अनुदायि) दीयते । = Is given. ( सत्ना ) सत्येन। = With truth. (अर्णसातौ) उदकस्य प्राप्तौ। =In order to acquire water resources. (बाहवोः) भुजयोः । = Of the two arms. (वज्रम्) शस्त्रम्। = Weapons and battle wares. (हत्वी) हत्वा | = After killing. (आयसी:) सुवर्णलोह निर्मिता:। = Made of steel and gold (Here steel is the symbol of firmness and gold of the prosperity-- Ed.). (तारीत्) उल्लङ्ङ्घयेत्। = Process.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal