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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 37/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - द्रविणोदाः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    मेद्य॑न्तु ते॒ वह्न॑यो॒ येभि॒रीय॒सेऽरि॑षण्यन्वीळयस्वा वनस्पते। आ॒यूया॑ धृष्णो अभि॒गूर्या॒ त्वं ने॒ष्ट्रात्सोमं॑ द्रविणोदः॒ पिब॑ ऋ॒तुभिः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मेद्य॑न्तु । ते॒ । वह्न॑यः । येभिः॑ । ईय॑से । अरि॑षण्यन् । वी॒ळ॒य॒स्व॒ । व॒न॒स्प॒ते॒ । आ॒ऽयूय॑ । धृ॒ष्णो॒ इति॑ । अ॒भि॒ऽगूर्य॑ । त्वम् । ने॒ष्ट्रात् । सोम॑म् । द्र॒वि॒णः॒ऽदः॒ । पिब॑ । ऋ॒तुऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मेद्यन्तु ते वह्नयो येभिरीयसेऽरिषण्यन्वीळयस्वा वनस्पते। आयूया धृष्णो अभिगूर्या त्वं नेष्ट्रात्सोमं द्रविणोदः पिब ऋतुभिः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मेद्यन्तु। ते। वह्नयः। येभिः। ईयसे। अरिषण्यन्। वीळयस्व। वनस्पते। आऽयूय। धृष्णो इति। अभिऽगूर्य। त्वम्। नेष्ट्रात्। सोमम्। द्रविणःऽदः। पिब। ऋतुऽभिः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 37; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे द्रविणोदो वनस्पते धृष्णो त्वं यथा वह्नयस्ते सोमं मेद्यन्तु येभिः सहेयसे तथा तैः सहाऽरिषण्यन् वीळयस्व, अभिगूर्यायूय नेष्ट्रात्त्वमृतुभिः सह सोमं पिब ॥३॥

    पदार्थः

    (मेद्यन्तु) आत्मनो मेदं स्नेहमिच्छन्तु (ते) तव (वह्नयः) वोढारः। वह्नयो वोढार इति यास्कः। निरु० ८। ३। (येभिः) यैः (ईयसे) प्राप्नोषि (अरिषण्यन्) द्रविणमनिच्छुः (वीळयस्व) स्तुहि। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः (वनस्पते) वनस्य किरणसमूहस्य पालक (आयूय) संमेल्य। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः (धृष्णो) प्रगल्भ (अभिगूर्य) अभित उद्यमं कृत्वा, अत्रापि पूर्ववद्दीर्घः (त्वम्) (नेष्ट्रात्) प्रापणात् (सोमम्) रसम् (द्रविणोदः) धनस्य दातः (पिब) (तुभिः) वसन्तादिभिः सह ॥३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि केनचिदनुद्यमिना स्थातव्यमृतून् प्रत्यनुकूलं व्यवहारं कृत्वा सुखं वर्द्धनीयम् ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (द्रविणोदः) धन के देने और (वनस्पते) किरणसमूह की रक्षा करनेवाले (धृष्णो) प्रगल्भ आप जैसे (वह्नयः) पदार्थ पहुँचानेवाले (ते) आपके (सोमम्) ओषध्यादि रस को (मेद्यन्तु) सचिक्कन अपने को चाहें वा (येभिः) जिनके साथ आप (ईयसे) प्राप्त होते हो वैसे उनके साथ (अरिषण्यन्) धन की न काङ्क्षा करते हुए (वीळयस्व) स्तुति कीजिये (अभिगूर्य) और सब ओर से उद्यम कर (आयूय) और मेलकर (नेष्ट्रात्) प्राप्ति से (त्वम्) आप (तुभिः) वसन्तादि तुओं के साथ (सोमम्) ओषध्यादि के रस को (पिब) पिओ ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। किसी को बिना उद्यम के न रहना चाहिये और तुओं के प्रति अनुकूल व्यवहार करके सुख बढ़ाना चाहिये ॥३॥

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    विषय

    सोमरक्षण से सर्वांगसुदृढ़ता

    पदार्थ

    १. हे (द्रविणोदः) = धनों का दान करनेवाले, न कि भोग-विलास में व्यय करनेवाले! (त्वं) = तू (नेष्ट्रात्) = जीवन के उत्तम प्रणयन के दृष्टिकोण से (ऋतुभिः सोमं पिब) = समय रहते सोम का पान करनेवाला बन । किशोरावस्था में ही शरीर में सोम को सुरक्षित कर। ताकि (ते वह्नयः) = तेरे कार्यवाहक इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि (मेद्यन्तु) = हृष्ट-पुष्ट हों। सोम की शक्ति से ही तो ये सब शक्तिसम्पन्न बनते हैं। वे (वह्नि येभिः) = जिनसे (ईयसे) = तू जीवनयात्रा में गतिवाला होता है, वे सब इस सोम द्वारा ही पुष्ट होते हैं । हे (वनस्पते) = ज्ञानरश्मियों के रक्षक पुरुष ! तू (अरिषण्यन्) = सोमरक्षण द्वारा अहिंसित होता हुआ (आ वीडयस्व) = दृढ़ अङ्गोंवाला बन । २. हे (धृष्णो) = वासनाओं का धर्षण करनेवाले पुरुष ! आयूय सोम को अपने साथ मिश्रित करके (अभिगूर्य) = सोम का शरीर में उद्यमन = (ऊर्ध्वगति) करके तू इस सोम को शरीर में ही व्याप्त करनेवाला बन ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से सब इन्द्रियाँ सशक्त होंगी और सब अङ्ग दृढ़ बनेंगे ।

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    विषय

    विद्वान् द्रविणोदस् वनस्पति नाम से राजा प्रजाओं के कर्त्तव्य । (

    भावार्थ

    हे ( वनस्पते ) वनों, सैन्य गणों को, किरणों को सूर्य के समान और जलों को समुद्र के समान और पथिकों को मार्गस्थ आश्रम वृक्ष के समान पालन करने हारे वनस्पते ! सर्वाधार ! विद्वन् ! स्वामिन् ! ( ते ) तेरे ( वह्नयः ) शकट में लगे बैलों के समान, राज्य के कार्य भार के उठाने वाले, अग्नियों के समान वे तेजस्वी कार्यकर्त्ता लोग हृदय में राजा और प्रजा दोनों के प्रति (मेद्यन्तु) स्नेह को धारण करें । ( येभिः ) जिन से तू ( अरिषण्यन् ) प्रजाओं का नाश न करता हुआ ( ईयसे ) सर्वत्र व्याप्त शासन युक्त हो सके । तू इसी प्रकार से ( वीळयस्व ) बराबर दृढ़ हो । हे ( घृष्णो ) शत्रुओं के धर्षक, उनको पराजित करने में समर्थ ( त्वं ) तू (आयूय) सबसे मेल करके ( अभिगूर्य ) सब प्रकार से उद्यम करके राज्य कार्यभार को अपने ऊपर उठाकर ( नेष्ट्रात् ) नेता या नायक के कार्य से ( ऋतुभिः ) ज्ञानवान् राजसभा के सदस्यों सहित ( सोमं पिब ) ऐश्वर्य का उपभोग और पालन कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ १-४ द्रविणोदाः ५ अश्विनौ । ६ अग्निश्च देवता ॥ छन्दः—१, ५ निचृज्जगती । २ जगती । ३ विराड् जगती ४, ६ भुरिक त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. कुणीही उद्योगाशिवाय न राहता ऋतूनुसार व्यवहार करून सुख वाढविले पाहिजे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May they be happy and may they prosper with whom you go, whom you support, who bear your burdens and carry forward your programmes for you. O lord controller of light and growth, wanting nothing for yourself and hurting none, be strong and firm, make your devotees strong and firm. Joining all, acting all round, lustrous, intrepidable and inviolable, please to accept the soma yajna of all seasons from the hand of the yajakas, drink and rejoice with love and for beneficence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Dravinouda (donor or giver of wealth) is praised.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O giver of the wealth of all kinds ! O protector of the bunch of rays (of knowledge) ! O dexterous learned person! may the bearers of good virtues with whom you come or desire, take Soma (the essence of various nourishing herbs) and our devotion. Glorify God, do not be greedy and do no harm to. Being industrious and mixing various substances according to different seasons, drink Soma offered by a person who leads you to happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    No one should ever be lazy. Every one should increase happiness by acting in accordance with the need of time.

    Foot Notes

    (मेद्यन्तु) आत्मनो मेदं स्नेहमिच्छन्तु। = Desire or love. (वन्हयः ) बोढारः। वन्हयो इति यास्काचार्य: ( N.R.T. 8.3) (अरिषण्यन्) द्रविणमनिच्छुः । = Not greedy, not running after money. (वीलषयस्व) स्तुहि ! अत्रान्येषामपीति दीर्घः। = Glorify. (वनस्पते ) वनस्य किरणसमूहस्य पालकः। = Protector of the bunch of rays. (घृष्णो) प्रगल्भ। = Dexterous, clever. (अभिगूर्य ) अभितः उद्यमं कृत्वा। = Having exerted himself from all sides.

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