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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 37/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    जोष्य॑ग्ने स॒मिधं॒ जोष्याहु॑तिं॒ जोषि॒ ब्रह्म॒ जन्यं॒ जोषि॑ सुष्टु॒तिम्। विश्वे॑भि॒र्विश्वाँ॑ ऋ॒तुना॑ वसो म॒ह उ॒शन्दे॒वाँ उ॑श॒तः पा॑यया ह॒विः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जोषि॑ । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽइध॑म् । जोषि॑ । आऽहु॑तिम् । जोषि॑ । ब्रह्म॑ । जन्य॑म् । जोषि॑ । सु॒ऽस्तु॒तिम् । विश्वे॑भिः । विश्वा॑न् । ऋ॒तुना॑ । व॒सो॒ इति॑ । म॒हः । उ॒शन् । दे॒वान् । उ॒श॒तः । पा॒य॒य॒ । ह॒विः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जोष्यग्ने समिधं जोष्याहुतिं जोषि ब्रह्म जन्यं जोषि सुष्टुतिम्। विश्वेभिर्विश्वाँ ऋतुना वसो मह उशन्देवाँ उशतः पायया हविः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जोषि। अग्ने। सम्ऽइधम्। जोषि। आऽहुतिम्। जोषि। ब्रह्म। जन्यम्। जोषि। सुऽस्तुतिम्। विश्वेभिः। विश्वान्। ऋतुना। वसो इति। महः। उशन्। देवान्। उशतः। पायय। हविः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 37; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अग्ने वसोऽग्निरिव त्वं यतो समिधं जोष्याहुतिं जोषि ब्रह्म विश्वान् जोषि जन्यं सुष्टुतिं च जोषि तस्माद्विश्वेभिरृतुना च सह उशतो देवानुशंस्त्वमेतान् हविः पायय ॥६॥

    पदार्थः

    (जोषि) जुषसे सेवसे। अत्र बहुलं छन्दसीति शविकरणस्य लुक् व्यत्ययेन परस्मैपदं च (अग्ने) विद्वन् (समिधम्) प्रदीपिकाम् (जोषि) (आहुतिम्) वेद्यां प्रक्षिप्ताम् (जोषि) (ब्रह्म) अन्नम् (जन्यम्) जनितुं योग्यम् (जोषि) (सुष्टुतिम्) शोभनां प्रशंसाम् (विश्वेभिः) सर्वैः (विश्वान्) सर्वान् (तुना) वसन्ताद्येन (वसो) वासयितः (महः) महतः (उशन्) कामयमानः (देवान्) विदुषः (उशतः) कामयमानान् (पायय) अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः (हविः) दातव्यं वस्तु ॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्युदग्निः काष्ठादीन् पदार्थान् सेवित्वाऽपि न दहति तथैव सर्वैः सह वसित्वैतेषां नाशो न कर्त्तव्य एवं सति कामसिद्धिर्जायत इति ॥६॥ अत्र विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्बोध्या ॥ इति सप्तत्रिंशत्तमं सूक्तमेको वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वान् (वसो) निवास करानेवाले अग्नि के समान आप जिस कारण (समिधम्) प्रदीप्त करनेवाली क्रिया को (जोषि) सेवते (आहुतिम्) वेदी में डाली हुई वस्तु (जोषि) सेवते (ब्रह्म) अन्न और (विश्वान्) सब पदार्थों का (जोषि) सेवन करते (जन्यम्) उत्पन्न करने योग्य पदार्थ वा (सुष्टुतिम्) सुन्दर प्रशंसा को (जोषि) सेवते इस कारण (विश्वेभिः) सब (तुना) वसन्त आदि तुसमूह के साथ (महः) बड़े-बड़े (उशतः) कामना करनेवाले (देवान्) विद्वानों की (उशन्) कामना करते हुए आप उनको (हविः) देने योग्य वस्तु (पायय) पियाओ ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे बिजली रूप अग्नि काष्ठ आदि पदार्थों का सेवन करके भी नहीं जलाता, वैसे ही सबके साथ बसकर उनका नाश न करना चाहिये, ऐसे होने पर काम सिद्धि होती है ॥६॥ इस सूक्त में विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सैंतीसवाँ सूक्त और प्रथम वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    क्या चाहिए ?

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव (समिधं जोषि) = तू 'पृथिवी, द्युलोक व अन्तरिक्ष' के पदार्थों के ज्ञान रूप तीन समिधाओं का सेवन करनेवाला होता है, अर्थात् तू सब पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करता है । (आहुतिं जोषि) = तू देवयज्ञ में दी जानेवाली आहुतियों को प्रीतिपूर्वक सेवन करता है-देवयज्ञ को करनेवाला बनता है। (ब्रह्म जोषि) = परमात्मा का उपासन करता है-ध्यान में प्रभु का स्मरण करता है। और (जन्यम्) = लोकहित के कर्मों का सेवन करता है। लोकसेवा को ही तू ब्रह्म का आराधन जानता है। (सुष्टुतिम् जोषि) = उत्तम स्तुति का सेवन करता है- सदा प्रभु के गुणों का कीर्तन करता है। २. हे (वसो) = उत्तम निवास वाले (महः उशन्) = तेजस्विता की कामना करता हुआ तू (विश्वान्) = सब (उशतः) = प्रभुप्राप्ति की कामना करते हुए (देवान्) = इन इन्द्रियगणों को (ऋतुना) = समय बीतने से पूर्व ही (विश्वेभिः) [विश् to enter] = सोम के शरीर में प्रवेशन के द्वारा (हविः) = [घृतमाज्यं हविः सर्पिः] घृत का (पायय) = पान करा ('घृतं पीत्वा मधु चारु गव्यम्' घृतमायुः) । घृत आदि सात्त्विक पदार्थों के सेवन से उत्पन्न सोम को शरीर में सुरक्षित करने पर ज्ञानदीप्ति बढ़ेगी, लोकहित के कर्मों की वृत्ति बढ़ेगी और अन्ततः हम प्रभु को प्राप्त होंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ज्ञान को दीप्त करने की रुचिवाले हों- यज्ञशील बनें - ब्रह्म की उपासना करते हुए लोकहित के कर्म करें। सदा स्तुति करते हुए, घृतादि पदार्थों का सेवन करते हुए, उत्पन्न सोमरक्षण से इन्द्रियों की शक्ति को न्यून न होने दें। सम्पूर्ण सूक्त का सार यही है कि सोमरक्षण से हमारा जीवन 'होतृत्व' वाला होगा - पवित्र होगा- हम आगे बढ़ेंगे और प्रभु को पानेवाले होंगे। हमारे लिए अब सवितादेव रत्नों को धारण कराता हुआ उदय होगा।

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    विषय

    विद्वान् द्रविणोदस् वनस्पति नाम से राजा प्रजाओं के कर्त्तव्य । (

    भावार्थ

    हे (अग्ने ) ज्ञानवन् विद्वन् ! अग्रणी नायक ! अग्नि के समान तेजस्विन् ! ( समिधं जोषि ) जिस प्रकार अग्नि समिधा अर्थात् काष्ठ को सुख से ले लेता, उसको जला देता है उसी प्रकार तू भी ( समिधं ) उत्तम दीप्ति या कान्ति के उत्पादक साधन या क्रिया को सेवन कर। ( आहुतिं जोषि ) अग्नि जिस प्रकार घृत आदि की आहुति चाहता है उसी प्रकार तू भी ( आहुतिं ) आदर पूर्वक सत्कार और दान को स्वीकार कर । तू ( जन्यं ) जनों के हितकारी ( ब्रह्म जोषि ) उत्तम अन्न और ब्रह्म अर्थात् वेद ज्ञान का सेवन कर। और तू ( सुस्तुतिन् जोषि ) उत्तम स्तुति वचन का सेवन कर उसको प्रीति पूर्वक प्रयोग कर। हे (वसो) अपने अधीन शिष्यों को बसाने और स्वयं विद्या समाप्ति के अनन्तर गृहस्थ आदि आश्रमों में बसने वाले ! विद्वन् ! तू स्वयं ( विश्वान् देवान् उशन् ) समस्त गुणों, व्यवहारों को और विद्वानों की कामना करता हुआ, उनको चाहता हुआ, ( विश्वेभिः ) सब विद्वानों सहित ( उशतः ) कामना करने वाले ( महः देवान् ) अपने से गुणों और अनुभवों में बड़ों को ( ऋतुना ) ऋतु अनुसार ( हविः ) उत्तम अन्नादि पदार्थों का पायय ) उपभोग करा । इति प्रथमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ १-४ द्रविणोदाः ५ अश्विनौ । ६ अग्निश्च देवता ॥ छन्दः—१, ५ निचृज्जगती । २ जगती । ३ विराड् जगती ४, ६ भुरिक त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा विद्युतरूपी अग्नी काष्ठ इत्यादी पदार्थात असूनही त्यांना जाळत नाही, तसेच सर्वांबरोबर राहून त्यांचा नाश करता कामा नये. असे वागल्यास कार्य सिद्ध होते. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light, leader of humanity, giver of life’s vitality, accept the fuel offered, receive the havi offered in oblations, accept the creative chant of holy mantras, accept the praise and prayer. With all the powers of nature, serve the generous divinities. Lord giver of haven and home and the wealth of life, great, happy and rejoicing, yourself eager for the food of yajna and excitement, let all other great divinities, eager for food and fulfilment, receive and enjoy the offerings according to the seasons.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The merits and functions of a donor.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O virtuous learned person you are ! like the fire in which fuel and oblations etc. are put. You use these articles with love when performing Havan (daily Yajna). You take with love proper food, all good articles that are produced and prepared and the objects of good quality. Desiring the welfare of all great enlightened persons who are willing to co-operate with you in accordance with the needs in different seasons, make arrangements for giving them the good articles worth giving and cause them to drink Soma.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the electric fire or energy exists in all objects like wood but does not burn them. so a learned person should dwell with all but should not annihilate or harm them. By so doing, he will be able to accomplish his aim.

    Foot Notes

    (अग्ने) विद्वत् | अग्नि: कस्मात् अग्रणीभवति (NKT) अग्नि is from अगि-गतो । गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च Here the first meaning of knowledge has been taken.= O leader shining like the fire. (ब्रह्म) अन्नम् । ब्रह्म इत्यन्ननाम ( N. G. 3, 7 ) = Food. (उशतः) कामयमानान्ः। = Desiring.

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