ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 37/ मन्त्र 4
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - द्रविणोदाः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अपा॑द्धो॒त्रादु॒त पो॒त्राद॑मत्तो॒त ने॒ष्ट्राद॑जुषत॒ प्रयो॑ हि॒तम्। तु॒रीयं॒ पात्र॒ममृ॑क्त॒मम॑र्त्यं द्रविणो॒दाः पि॑बतु द्रविणोद॒सः॥
स्वर सहित पद पाठअपा॑त् । हो॒त्रात् । उ॒त । पो॒त्रात् । अ॒म॒त्त॒ । उ॒त । ने॒ष्ट्रात् । अ॒जु॒ष॒त॒ । प्रयः॑ । हि॒तम् । तु॒रीय॑म् । पात्र॑म् । अमृ॑क्तम् । अम॑र्त्यम् । द्र॒वि॒णः॒ऽदाः॒ । पि॒ब॒तु॒ । द्रा॒वि॒णो॒द॒सः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपाद्धोत्रादुत पोत्रादमत्तोत नेष्ट्रादजुषत प्रयो हितम्। तुरीयं पात्रममृक्तममर्त्यं द्रविणोदाः पिबतु द्रविणोदसः॥
स्वर रहित पद पाठअपात्। होत्रात्। उत। पोत्रात्। अमत्त। उत। नेष्ट्रात्। अजुषत। प्रयः। हितम्। तुरीयम्। पात्रम्। अमृक्तम्। अमर्त्यम्। द्रविणःऽदाः। पिबतु। द्रविणोदसः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 37; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या यथा द्रविणोदा होत्रादुत पोत्रात्प्रयो हितमपादमत्त उत नेष्ट्रादजुषत तथा द्रविणोदसः प्रयो हितं तुरीयममर्त्यममृक्तं पात्रं पिबतु ॥४॥
पदार्थः
(अपात्) पिबेत् (होत्रात्) हवनात् (उत) (पोत्रात्) पवित्रात् (अमत्त) हृष्यतु (उत) (नेष्ट्रात्) (अजुषत) (प्रयः) कमनीयमन्नादिकम् (हितम्) सुखकरम् (तुरीयम्) चतुर्थम् (पात्रम्) दातुं योग्यम् (अमृक्तम्) अकोमलम् (अमर्त्यम्) मरणधर्मरहितम् (द्रविणोदाः) यो द्रविणं ददाति सः (पिबतु) (द्रविणोदसः) यो द्रविणमत्ति तस्य। त्विजोऽत्र द्रविणोदस उच्यन्ते हविषो दातारस्ते चैनं जनयन्ति। निरु० ८। २ ॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये हवनेन पवित्रीकरणेन प्रापणेन हितं साद्धुं शक्नुवन्ति ते प्रीतिमन्तो जायन्ते ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (द्रविणोदाः) धन देनेवाला (होत्रात्) हवन से (उत) और (पोत्रात्) पवित्र व्यवहार से (प्रयः) मनोहर अन्नादि पदार्थ (हितम्) जो कि सुख करनेवाला है उसको (अपात्) पीये (अमत्त) हर्ष को प्राप्त हो (उत) और (नेष्ट्रात्) पदार्थ प्राप्ति से (अजुषत) प्रसन्न हो वैसे (द्रविणोदसः) जो धन को भोगता उस त्विज् का मनोहर अन्नादि पदार्थ जो सुख करनेवाला (तुरीयम्) चतुर्थ (अमर्त्यम्) नष्ट होनेपन से रहित (अमृक्तम्) अकोमल (पात्रम्) जो पीने योग्य है उसको (पिबतु) पिओ ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो हवन और अपवित्र को पवित्र करनेवाली प्राप्ति से हित साध सकते हैं, वे प्रीतिमान् होते हैं ॥४॥
विषय
तुरीय स्थिति
पदार्थ
१. (होत्रात्) = दानपूर्वक अदन के दृष्टिकोण से इसने (अपात्) = सोमपान किया। इसने यह समझ लिया कि दानपूर्वक अदन की वृत्ति से मैं भोगमार्ग से ऊपर उलूँगा और सोमरक्षण कर सकूँगा, साथ ही जितना जितना सोमरक्षण करूँगा, उतनी उतनी मेरी वृत्ति सुन्दर बनेगी। मैं अकेला खानेवाला न रहकर सबके साथ मिलकर खानेवाला बनूँगा । २. (उत) = और (पोत्रात्) = पोतृकर्म के दृष्टिकोण सेअपने जीवन को पवित्र बनाने के दृष्टिकोण से अमत्त यह सोमपान करके हर्ष को अनुभव करनेवाला हुआ। सोमरक्षण से जीवन पवित्र बनता है। ३. (उत) = और (नेष्ट्रात्) = नेष्ट कर्म के दृष्टिकोण से- अपने को प्रभु के समीप प्राप्त कराने के दृष्टिकोण से (हितं प्रयः) = शरीर में स्थापित सोमरूप अन्न का (अजुषत) = इसने प्रीतिपूर्वक सेवन किया। ४. इसके सोमपान का (तुरीयं पात्रम्) = चतुर्थपात्र (अमृक्तम्) = वे अहिंसित (अमर्त्यम्) = न नष्ट होनेवाले प्रभु हुए। सबसे प्रथम 'दानपूर्वक अदन' के हेतु से इसने सोमपान किया। दूसरे स्थान पर 'अपने को पवित्र करने के दृष्टिकोण से पुन: अपने को आगे ले चलने के दृष्टिकोण से और अन्ततः प्रभु प्राप्त करने के दृष्टिकोण से इसने सोम का सेवन किया। सोम अर्थात् वीर्यरक्षण से हमारे अन्दर देने की वृत्ति होगी- हम पवित्र बनेंगे-आगे . बढ़ेंगे और प्रभु को प्राप्त करेंगे। उपर्युक्त सम्पूर्ण वर्णन का ध्यान करते हुए यही उचित है कि (द्रविणोदाः) = धनों का दान करनेवाला व्यक्ति (द्राविणोदसः) = उस सम्पूर्ण धनों के देनेवाले प्रभु के सोम का (पिबतु) = पान करे। इस सोमरक्षण के लिए धनों का दान आवश्यक है। अन्यथा भोगवृत्ति बढ़कर मनुष्य को सोमरक्षण के योग्य नहीं रहने देती।
भावार्थ
भावार्थ - पहला चरण यह है कि हम दानपूर्वक अदन करनेवाले बनें। दूसरा- अपने जीवन को पवित्र बनाएँ। तीसरा- अपने को निरन्तर आगे ले चलें। चौथा- उस अहिंसित-अमर्त्य प्रभु को प्राप्त करें। इन सबके लिए सोमरक्षण करें।
विषय
विद्वान् द्रविणोदस् वनस्पति नाम से राजा प्रजाओं के कर्त्तव्य । (
भावार्थ
(द्रविणोदाः) राष्ट्र को ऐश्वर्य देने और राष्ट्र के कार्यकर्त्ताओं के चेतन द्रव्य देने और राष्ट्र ऐश्वर्य का भोग करने वाला पुरुष ( होत्रात् ) अधिकार आदि दान देने और कर आदि लेने के कार्य से ( अपात् ) राष्ट्र का भोग और पालन करे । ( पोत्रात् ) कण्टकशोधन और धर्मपालन के पवित्र करने के कार्य व्यवस्था से ( अमत्त ) स्वयं सुप्रसन्न रहे अन्यों को प्रसन्न करे । और ( नेष्ट्रा ) नायक बनकर इष्ट पदार्थ प्राप्त करा कर ( हितम् ) पूर्वनियत या हितकारी ( प्रयः ) पुष्टिकर, प्रीतियुक्त अन्न आदि पदार्थ को ( अजुषत ) स्नेह से सेवन करे और ( द्राविणोदसः) ऐश्वर्य और ज्ञान के देने वाले दानशील राजा और आचार्य उसके ‘द्रविणोदस्’ या ऐश्वर्य के भोगने वालों का हितू स्वामी वा प्रेम पात्र होकर वह (तुरीयं) चतुर्थ, सर्वोपरि विद्यमान एक चतुर्थांश ( अमृक्तं ) सबसे अधिक शुद्ध ( अमर्त्यम् ) सर्व साधारण मनुष्यों से अतिरिक्त, सबसे महान् ( पात्रम् ) पालन कार्य के अंश को (पिबतु) स्वयं भोग वा पालन करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ १-४ द्रविणोदाः ५ अश्विनौ । ६ अग्निश्च देवता ॥ छन्दः—१, ५ निचृज्जगती । २ जगती । ३ विराड् जगती ४, ६ भुरिक त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे हवनाद्वारे पवित्रता प्राप्त करून हित साधतात, ते प्रेमळ असतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May the lord giver receive the food brought by the yajaka and offered from the ladle and the vedi and may the lord relish and rejoice and shower the yajaka with love. And may the lord giver of wealth and bliss bless the yajaka’s fourth estate of existence and protect his bowl of bliss unhurt and immortal.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The nature and functions of the donor stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Let the giver of wealth (in various forms) drink the Soma after the performance of Yajna after purifying process and be delighted by getting it. Let him also take the beneficial and desirable food offered with love. Let him quaff the fourth measure of the decaying juice which is unpolluted and take food offered by the Yajaman (or host-the performer of the Yajna) the giver of oblations.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons are loved by all who know how to accomplish the welfare of all beings by preparing good food and drink herbal juice after the performance of Yajna (daily Agnihotra) with purifying process and by getting necessary articles leading to happiness.
Foot Notes
(अपात्) पिबेंत् = Let him drink. (प्रयः) कमनीयम् अन्नादिकम् । प्रयनाम (NG. 2-7) प्रयः is from प्रीञ् तर्पणे कान्तौ च ( क्रियादि:) कान्ति: – कामना। = Desirable good food etc. ( अमुक्तम् ) अकोमलम् । अमुक्तम् has been interpreted by Rishi Dayananda Sarasvati himself is in Rigveda 7, 37. अहंसितम् = Undestroyed or unpolluted. = Not very soft.
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