ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 4/ मन्त्र 5
ऋषिः - सोमाहुतिर्भार्गवः
देवता - अग्निः
छन्दः - आर्षीपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
आ यन्मे॒ अभ्वं॑ व॒नदः॒ पन॑न्तो॒शिग्भ्यो॒ नामि॑मीत॒ वर्ण॑म्। स चि॒त्रेण॑ चिकिते॒ रंसु॑ भा॒सा जु॑जु॒र्वाँ यो मुहु॒रा युवा॒ भूत्॥
स्वर सहित पद पाठआ । यत् । मे॒ । अभ्व॑म् । व॒नदः॑ । पन॑न्त । उ॒शिक्ऽभ्यः॑ । न । अ॒मि॒मी॒त॒ । वर्ण॑म् । सः । चि॒त्रेण॑ । चि॒कि॒ते॒ । रम्ऽसु॑ । भा॒सा । जु॒जु॒र्वान् । यः । मुहुः॑ । आ । युवा॑ । भूत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यन्मे अभ्वं वनदः पनन्तोशिग्भ्यो नामिमीत वर्णम्। स चित्रेण चिकिते रंसु भासा जुजुर्वाँ यो मुहुरा युवा भूत्॥
स्वर रहित पद पाठआ। यत्। मे। अभ्वम्। वनदः। पनन्त। उशिक्ऽभ्यः। न। अमिमीत। वर्णम्। सः। चित्रेण। चिकिते। रम्ऽसु। भासा। जुजुर्वान्। यः। मुहुः। आ। युवा। भूत्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
यश्चित्रेण भासा मे वर्णं चिकिते स रंस्वभ्वमा चिकिते यो जुजुर्वान्मुहुर्यवेवाभूद्यमुशिग्भ्यो वनदो विद्वांसः पनन्त सनामिमीत तं सर्वे सम्यक् संप्रयुञ्जताम् ॥५॥
पदार्थः
(आ) (यत्) यः (मे) मम (अभ्वम्) उदकमिव (वनदः) प्रशंसितारः (पनन्त) स्तुवन्ति (उशिग्भ्यः) कामयमानेभ्यः (नः) निषेधे (अमिमीत) मिमीते (वर्णम्) रूपम् (सः) (चित्रेण) अद्भुतेन (चिकिते) विज्ञापयति (रंसु) रमणीयम् (भासा) प्रकाशेन (जुजुर्वान्) जीर्णः (यः) (मुहुः) वारंवारम् (आ) (युवा) यौवनस्थ इव (भूत्) भवति ॥५॥
भावार्थः
योऽग्निः सर्वमविद्यमानं विद्यमानवत्करोति यथा जीवो जीर्णावस्थां मरणञ्च प्राप्य पुनर्जायमानो युवा भवति तथा पुनः पुनर्वृद्धिक्षयौ प्राप्नोति सोऽग्निर्व्यवहारेषु योजनीयः ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
(यत्) जो (चित्रेण) अद्भुत (भासा) प्रकाश से (मे) मेरे (वर्णम्) रूप का (चिकिते) विज्ञान कराता (सः) वह (रंसु) रमणीय पदार्थ को (अभ्वम्) जल के समान (आ) अच्छे प्रकार जतलाता है। (यः) जो (जुजुर्वान्) जीर्ण हुआ भी (मुहुः) बार-बार (युवा) तरुण के समान (आभूत्) अच्छे प्रकार होता है जिसकी (उशिग्भ्यः) कामना करते हुए जनों को (वनदः) प्रशंसा करनेवाले विद्वान् (पनन्त) प्रशंसारूप स्तुति हैं वह (न) नहीं (अमिमीत) मान करता अर्थात् अपनी तीक्ष्णता के कारण सबको जलाता सब मनुष्य उसका अच्छे प्रकार प्रयोग करें ॥५॥
भावार्थ
जो अग्नि समस्त अविद्यमान को विद्यमान के समान करता और जैसे जीव वृद्धपन और मरण को प्राप्त होकर फिर उत्पन्न हुआ ज्वान होता है, वैसे जो बार-बार वृद्धि और क्षय को प्राप्त होता है, वह अग्नि व्यवहारों में युक्त करने योग्य है ॥५॥
विषय
जुजुर्वान् युवा
पदार्थ
१. (यत्) = जो (मे) = मेरा (अभ्वम्) = महत्त्व है उसे वनदः - (अव-नदः, अव के अ का लोप होकर 'वनदः') स्तोता लोग आपनन्त= सर्वथा स्तुत करते हैं। (न) = और [न=च सा०] उस समय यह प्रभु (उशिग्भ्यः) = इन मेधावी स्तोताओं के लिए (वर्णम्) = रूप को (अमिमीत) = निर्मित करते हैं। अपने रूप को इन स्तोताओं के लिए भी प्राप्त कराते हैं। स्तोता की स्तुति का उत्कर्ष इसी में है कि वह प्रभु के रूप में अपने को रंग ले 'विष्णुर्भूत्वा भजेद् विष्णुम्' । २. सब (रंसु) = रमणीय पदार्थों में वे प्रभु ही (चित्रेण भासा) = अद्भुत दीप्ति से चिकिते जाने जाते हैं। सूर्य चन्द्र तारों में वस्तुतः उस प्रभु की दीप्ति ही दीप्त हो रही है। ‘तस्य भासा सर्वमिदं विभाति' । ३. वे प्रभु (यः) = जो (जुजुर्वान्) = अत्यन्त पुराणकाल से चले आ रहे हैं, (मुहुः) = फिर (युवा आभूत्) = सर्वथा युवा ही है। प्रभु कभी जीर्णशक्तिवाले नहीं होते। उनकी शक्ति सदा एकरस बनी रहती है।
भावार्थ
भावार्थ-स्तोता भी के अनुरूप बनता है। उस प्रभु की दीप्ति ही सर्वत्र दीप्ति का प्रसार प्रभु करती है। वे सनातन होते हुए भी सदा युवा हैं। उपासक भी प्रभु के समान एकरस बनने का प्रयत्न
विषय
पक्षान्तर में परमेश्वर का निदर्शन।
भावार्थ
( वनदः ) जिस प्रकार जलों के देने वाले मेघ भी ( मे ) मुझ विद्युत् रूप अग्नि के ( यत् ) जिस ( अभ्वं ) जलमय या महान् स्वरूप को ( आ पनन्तः ) बतलाते हैं ( उशिग्भ्यः ) अग्नि की इच्छा करने वालों के लिये मेरा वह ( वर्णं ) स्वरूप ( न अमिमीत ) कभी भी प्रतीत नहीं होता । ( यः ) जो ( जुजुर्वान् ) जीर्ण होकर भी ( मुहुः ) वार ( युवा अभूत् ) युवा व पुनः पुनः बलशाली हो जाता है । (सः) वह अग्नि अपने ( रंसु ) रमणीय स्वरूप को ( चित्रेण ) अद्भुत ( भासा ) दीप्ति से ( चिकिते ) प्रकट करता है। उसी प्रकार यह जीव भी है । ( यः ) जो ( जुजुर्वान्) एक शरीर में वृद्ध होकर भी ( मुहुः युवा अभूत् ) वार २ युवा हो जाया करता है (मे) जिस ‘अहं’ पदवाच्य आत्मा के ( अभ्वं ) अव्यक्त महान् रूप को ( वनदः ) ज्ञानप्रद गुरु या ( वनदः ) स्तोता लोग ( उशिग्भ्यः ) ज्ञान के जिज्ञासुओं को ( आ पनन्तः ) बराबर बतलाते हैं पर तो भी ( वर्णन अमिमीत) उसका स्वरूप नहीं प्रतीत होता । वह आत्मा ( रंसु ) अपने अति मनोहर स्वरूप को ( चित्रेण ) आश्चर्य जनक या चित् स्वरूप में रमण करने वाले ( भासा ) तेज से (चिकिते) जनाता है । ( ३ ) इसी प्रकार नायक की बड़ाई को कविजन श्रोतृ जनों को वर्णन करते हैं तो भी उसका गूढ़रूप नहीं पता चलता। वह अनुभवी वृद्ध होकर भी कार्य करने में सदा युवा रहता है, वह अद्भुत तेज से अपने रम्य रूप प्रजामनोहारी रूप को प्रकट करता है, वही नायक होने योग्य है । अथवा—सूर्य के समान (रंसु) रमणीय चमकीले तेजस्वी पदार्थों या कार्यों में वह अपने रूप को प्रकट करता है । चतुर्विंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोमाहुतिर्भार्गव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द—१, ८ स्वराट् पक्तिः । २, ३, ५, ६, ७ आर्षी पंक्तिः । ४ ब्राह्म्युष्णिक् । ९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो अग्नी अप्रकट असलेल्यांना प्रकट करतो व जसा जीव जरा व मृत्यूला प्राप्त होतो व पुन्हा उत्पन्न होऊन तरुण बनतो तसे ज्याचा पुन्हा पुन्हा वृद्धी व क्षय होतो त्या अग्नीला व्यवहारात युक्त केले पाहिजे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That immensity and golden glory of Agni which the scholars and admirers fail to measure, comprehend and express for me and the worshippers, He himself, joyous and blissful, reveals directly by his glorious light in meditation and through its majesty in blaze, the same which, though aging since eternity, grows young again and again every moment of time.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The theme of scholars continues.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Agni - the instinctive knowledge enables a person to learn with its brilliance. It points out the qualities of good substances, like water. A man gets young spirit because of it, in spite of decay. Therefore, the admiring scholars adore its glory and honor it. All should make it's optimum use.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The energy existent in the body makes a man old and leads to death in its absence. With frequent ups and downs of this energy, we should make its proper use on the proper occasions.
Foot Notes
(अभ्वम् ) उदकमिव = Like water. (वनदः) प्रशंसितार: = Admiring persons. ( पनन्त ) स्तुवंति = Admire. ( जुजुर्वान् ) जीर्ण: = Decaying.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal