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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 4/ मन्त्र 7
    ऋषिः - सोमाहुतिर्भार्गवः देवता - अग्निः छन्दः - आर्षीपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स यो व्यस्था॑द॒भि दक्ष॑दु॒र्वीं प॒शुर्नैति॑ स्व॒युरगो॑पाः। अ॒ग्निः शो॒चिष्माँ॑ अत॒सान्यु॒ष्णन्कृ॒ष्णव्य॑थिरस्वदय॒न्न भूम॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । यः । वि । अस्था॑त् । अ॒भि । धक्ष॑त् । उ॒र्वीं । प॒शुः । न । ए॒ति॒ । स्व॒ऽयुः । अगो॑पाः । अ॒ग्निः । शो॒चिष्मा॑न् । अ॒त॒सानि॑ । उ॒ष्णन् । कृ॒ष्णऽव्य॑थिः । अ॒स्व॒द॒य॒त् । न । भूम॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स यो व्यस्थादभि दक्षदुर्वीं पशुर्नैति स्वयुरगोपाः। अग्निः शोचिष्माँ अतसान्युष्णन्कृष्णव्यथिरस्वदयन्न भूम॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। यः। वि। अस्थात्। अभि। धक्षत्। उर्वीं। पशुः। न। एति। स्वऽयुः। अगोपाः। अग्निः। शोचिष्मान्। अतसानि। उष्णन्। कृष्णऽव्यथिः। अस्वदयत्। न। भूम॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरग्निपरत्वेनैव विद्वद्विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यो भूम भूम्ना व्यस्थात्स्वयुरगोपाः पशुर्नेवैत्युर्वीमभि दक्षत्स शोचिष्मान् कृष्णव्यथिरग्निरतसान्युष्णन्नस्वदयद्वर्त्तते तं यथावद्विजानीत ॥७॥

    पदार्थः

    (सः) (यः) (वि) (अस्थात्) वितिष्ठते (अभि) (दक्षत्) अभितो दहति (उर्वीम्) भूमिम् (पशुः) (न) इव (एति) गच्छति (स्वयुः) यः स्वयं याति सः (अगोपाः) पालकरहितः (अग्निः) वह्निः (शोचिष्मान्) बहूनि शोचींषि विद्यन्ते यस्मिन् सः (अतसानि) नैरन्तर्येण गन्त्रीणि त्रसरेण्वादीनि (उष्णन्) दहन् (कृष्णव्यथिः) यः कर्षकश्चासौ व्यथयिता च (अस्वदयत्) स्वादयति (न) इव (भूम) भूम्ना ॥७॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यः पृथिव्यादिषु व्यवस्थितो मूर्त्तद्रव्यदाहको गोपालरहितपशुवत्स्वयं गन्ता प्रकाशमयोऽग्निः स्वतेजसा विस्तृतान् त्रसरेणूनपि परितपति सोऽग्निर्बलिष्ठोऽस्तीति वेद्यम् ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर अग्निपरता से ही विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यः) जो (भूम) बहुताई के साथ (व्यस्थात्) विविध प्रकार से स्थित होता है (स्वयुः) जो आप जाता अर्थात् बिना चैतन्य पदार्थ के भी चैतन्य के समान गति देता है। (अगोपाः) पालना करनेवाले गुणों से रहित पदाथों को अपने प्रताप से सन्ताप देनेवाला (पशुः) पशु के (न) समान (एति) जाता है। (उर्वीम्) और भूमि को (अभिदक्षत्) सब ओर से जलाता है। (सः) वह (शोचिष्मान्) बहुत लपटोंवाला (कृष्णव्यथिः) पदार्थों के अंशों को खींचने और उनको व्यथित करनेवाला (अग्निः) अग्नि (अतसानि) निरन्तर जानेवाले त्रसरेणु आदि पदार्थों को (उष्णन्) जलाता और (अस्वदयत्) स्वादिष्ठ करता हुआ (न) सा वर्त्तमान है ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो पृथिवी आदि पदार्थों में व्यवस्था को प्राप्त मूर्त्तिमान् पदार्थों का जलानेवाला रक्षकरहित पशु के समान आप जानेवाला प्रकाशमय अग्नि अपने तेज से विथरे हुए त्रसरेणुओं को भी सब ओर से तपाता है, वह अग्नि बलिष्ठ है, यह जानना चाहिये ॥७॥

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    विषय

    'पशुः-स्वयुः-अगोपाः'

    पदार्थ

    १. (सः) = वे प्रभु (यः) = जो कि (वि अस्थात्) = विशेषरूप से सब लोकों को अधिष्ठित कर रहे हैं, वे (उर्वीम्) = इस विस्तृत पृथिवी को (अभिदक्षत्) = सब प्रकार से बढ़ाते हैं। इस लोक में स्थित प्राणियों की वृद्धि का कारण वे प्रभु ही हैं। (पशुः न) = [पश्यति इति, न= इव] द्रष्टा के समान (एति) = वे गति कर रहे हैं 'साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च'। सारे संसार का निर्माण करते हुए भी वे प्रभु निर्लेपता के कारण अकर्ता ही हैं 'तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्' । (स्वयुः) = वे [स्वयमेव गच्छन्] स्वयं गति देनेवाले हैं, उन्हें यह शक्ति किसी ओर से प्राप्त नहीं होती। (अगोपाः) = उनका कोई रक्षक नहीं है-प्रभु ही सबके रक्षक हैं। सब प्राकृतिक पिण्डों को वे प्रभु स्वयं गति दे रहे हैं और सब जीवरूप भेड़ों के वे 'गोपा' [चरवाहे] हैं । २. वे प्रभु (अग्निः) = अग्रणी हैं। (शोचिष्मान्) = दीप्तिवाले हैं। (अतसानि) = [अतसं = a weapon] आयुधों को-जीवों को जीवनसंग्राम के लिए प्राप्त कराये गये 'इन्द्रिय मन व बुद्धि रूप' आयुधों को (उष्णान्) = अग्नि में सन्तप्त करके निर्मल कर रहे हैं। (कृष्णव्यथि:) = [कृष्टाः व्यथय: येन, कृष्ण-कृष्ट] व्यथा के कारणभूत कामक्रोधादि शत्रुओं को उखाड़ फेंकनेवाले वे प्रभु हैं । उपासक की वासनाओं को वे दग्ध करनेवाले हैं। (न) = और [न=च] इस प्रकार वे प्रभु उपासकों के जीवन को (भूम) = अत्यधिक (अस्वदयत्) = [आस्वादयति इव] आनन्दयुक्त कर देते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु-उपासकों के इन्द्रियादि आयुधों को ख़ूब चमका देते हैं, काम-क्रोधादि को नष्ट कर देते हैं। इस प्रकार उपासक के जीवन को आनन्दमय कर देते हैं ।

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    विषय

    पक्षान्तर में परमेश्वर का निदर्शन।

    भावार्थ

    (अग्निः) अग्नि जिस प्रकार (बि अस्थात्) विविध दिशाओं में लग जाता है, ( उर्वी अभि दक्षत् ) पृथिवी पर के पदार्थों को जलाता है और ( स्वयुः ) स्वच्छन्दचारी ( अगोपाः ) बिना गवाले के (पशुः न ) पशु के समान ( वि, अभि एति ) विविध दिशाओं में जा पहुँचता है । वह ( शोचिष्मान् ) ज्वालाओं से युक्त हो ( अतसानि ) सूखे काष्ठों, नाना झाड़ीदार वृक्षों को ( उष्णन् ) जलाता हुआ ( भूम) अपने बड़े सामर्थ्य से ( कृष्णव्यथिः ) सब व्यथाकारी कण्टकों को काला कोयला करता हुआ ( अस्वदयत् न ) मानों स्वयं सब खा जाता है। उसी प्रकार ( यः ) जो उत्तम नायक, सेनापति ( उर्वीम् अभि दक्षत् ) पृथ्वी पर पराक्रम करता, शत्रु की बड़ी भारी सेना को भस्म कर दे, जो ( स्वयुः ) स्वयं प्रयाण करनेहारा, ( अगोपाः ) अपने से अन्य किसी रक्षक की अपेक्षा न करता हुआ, ( पशुः ) स्वयं सब को भली प्रकार देखता हुआ, ( वि अस्थात् ) विविध देशों में ठहरता ( अभि एति ) शत्रु पर अभियोक्ता या आक्रमक होकर चढ़ाई करता है और जो ( शोचिष्मान् ) सूर्य के समान तेजस्वी होकर ( अतसानि ) निरन्तर आक्रमण करने वाले सैन्यों को ( उष्णन् ) अपने तेज से संतप्त करता हुआ ( भूम ) बड़े सामर्थ्य से ( कृष्णव्यथिः ) अपने व्यथादायी शत्रुओं को उच्छिन्न करता हुआ ( भूम अस्वदयत् न ) बड़े भारी ऐश्वर्य, या राज्य को मानो भोग करने में समर्थ होता है । (सः) वही तेजस्वी पुरुष (अग्निः) यथार्थ में ‘अग्नि’ कहाने योग्य है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोमाहुतिर्भार्गव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द—१, ८ स्वराट् पक्तिः । २, ३, ५, ६, ७ आर्षी पंक्तिः । ४ ब्राह्म्युष्णिक् । ९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो पृथ्वीवर स्थित असून प्रत्यक्ष पदार्थांचे दहन करतो. गोपालाकडून रक्षित नसलेल्या पशूप्रमाणे गमन करतो तो प्रकाशमय अग्नी आपल्या तेजाने विस्तृत त्रसरेणूंना तप्त करतो. असा अग्नी बलवान असतो हे जाणले पाहिजे. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    That is Agni which stands by us all round, heats and lights the earth, and freely at will goes forward like the light of the eye or like a cow without the shepherd — Agni, shining, blazing and cleansing, heating and moving the particles of matter and energy, attracting, propelling and dispelling, breaking up, universal presence all knowing, as if tasting everything that exists.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of energy is compared with the scholars.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! the energy is not a living entity but it activates others like a life substance. It sets the things in order, protects and heats with its power. It is mobile like an animal and gets into the earth and burns the substances all-round. It is full of flames and can extract and destroy the smallest substances like त्रसरेणु Trasarenu, with which it burns as well as makes the eatables tasteful. (The Indian space scientists base their calculation from the smallest in the rung, called Trasarenu). The details are defined in the Sanskrit Commentary-Editor).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A scholar should know the property and force of energy, existent in the earth and other substances. With its burning capacity, this energy is capable to diversify the smallest base of the universe.

    Foot Notes

    (शोचिष्मान्) बहुनि शोचींषि विद्यन्ते यस्सिन् सः 1 = Containing flames in abundance. (अतसानि) नैरन्तर्येण गन्त्रीणि तसरेण्वादीनि = Trasarenu constantly moving the smallest basis of the universe. (कृष्णब्यथि:) यः कर्षकश्चासौ व्यथयिता च । = One which extracts and harasses.

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