ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 4/ मन्त्र 6
ऋषिः - सोमाहुतिर्भार्गवः
देवता - अग्निः
छन्दः - आर्षीपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
आ यो वना॑ तातृषा॒णो न भाति॒ वार्ण प॒था रथ्ये॑व स्वानीत्। कृ॒ष्णाध्वा॒ तपू॑ र॒ण्वश्चि॑केत॒ द्यौरि॑व॒ स्मय॑मानो॒ नभो॑भिः॥
स्वर सहित पद पाठआ । यः । वना॑ । त॒तृ॒षा॒णः । न । भाति॑ । वाः । न । प॒था । रथ्या॑ऽइव । स्वा॒नी॒त् । कृ॒ष्णऽअ॑ध्वा । तपुः॑ । र॒ण्वः । चि॒के॒त॒ । द्यौःऽइ॑व । स्मय॑मानः । नभः॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यो वना तातृषाणो न भाति वार्ण पथा रथ्येव स्वानीत्। कृष्णाध्वा तपू रण्वश्चिकेत द्यौरिव स्मयमानो नभोभिः॥
स्वर रहित पद पाठआ। यः। वना। ततृषाणः। न। भाति। वाः। न। पथा। रथ्याऽइव। स्वानीत्। कृष्णऽअध्वा। तपुः। रण्वः। चिकेत। द्यौःऽइव। स्मयमानः। नभःऽभिः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
यो वना ततृषाणो नाभाति पथा वार्ण रथ्येव च स्वानीद्यः कृष्णाध्वा तपू रण्वः स्मयमानो द्यौरिव नभोभिश्चिकेत स विद्वद्भिरेव विज्ञातुं योग्यः ॥६॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (यः) (वना) वनानि (ततृषाणः) भृशं तृड्युक्तः। अत्र तुजादित्वादभ्यासदीर्घः। (न) इव (भाति) प्रकाशते (वाः) उदकम् (न) इव (पथा) मार्गेण (रथ्येव) रथाय हितेव (स्वानीत्) शब्दायते (कृष्णाध्वा) कृष्णोऽध्वा मार्गो यस्य (तपुः) परितापकः (रण्वः) रमणीयः (चिकेत) उद्बुध्येत (द्यौरिव) सूर्यप्रकाशवत् (स्मयमानः) किञ्चिद्धसन्निव (नभोभिः) अन्नादिभिः पदार्थैः ॥६॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा कश्चिदति तृषितो वक्ता हसन् वदेत् जलं मार्गे गच्छति तथाग्निर्वनस्थो महच्छब्दायते ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जो (वना) वन और जलों के प्रति (ततृषाणः) निरन्तर पिआसे के (न) समान (आ भाति) अच्छे प्रकार प्रकाशित होता है और (पथा) मार्ग से (वाः) जल के (न) समान तथा (रथ्येव) रथ आदि के लिये जो हित है उस मार्ग अर्थात् सड़क के समान (स्वानीत्) शब्दायमान होता है जो (कृष्णाध्वा) काले वर्णयुक्त (तपुः) सब ओर से तपानेवाला (रण्वः) रमणीय (स्मयमानः) कुछ मुस्कातासा हुआ (द्यौरिव) सूर्य के प्रकाश के समान (नभोभिः) अन्नादि पदार्थों से (चिकेत) उद्बोध को प्राप्त हो अर्थात् प्रज्वलित हो वह विद्वानों ही को जानने योग्य है ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे कोई अतितृषायुक्त कहनेवाला जन हँसता हुआ कहे कि जल मार्ग में जाता है, वैसे वनस्थ अग्नि बहुत शब्दायमान होता है ॥६॥
विषय
दीप्ति की प्राप्ति व मार्ग का आक्रमण
पदार्थ
१. प्रभु वे हैं (यः) = जो (वना) = उपासकों को [वन्- संभजन] (तातृषाणः न) = अत्यन्त तृषित की तरह (आभाति) = दीप्त करते हैं [आभासयति सा०] । जैसे प्यासा पानी पीने के लिए आतुर होता है, उसी प्रकार प्रभु भक्त को ज्ञानदीप्त करने के लिए आतुर होते हैं-उसे शीघ्रता से ज्ञानदीप्ति प्राप्त कराते हैं। प्रभु से ज्ञानदीप्ति प्राप्त करके यह उपासक (वाः न पथा) = जल की तरह मार्ग से बढ़ता है— जल जैसे शान्तभाव से आगे और आगे बढ़ता चलता है, इसी प्रकार यह अपने कर्त्तव्यपथ पर अग्रगति वाला होता है। (रथ्या इव स्वानीत्) = रथ में जुते हुए घोड़ों के समान यह उत्साहयुक्त ध्वनि करनेवाला होता है अथवा [सु+आनीत्] उत्तम प्राणशक्ति सम्पन्न होता है। प्रभु से ज्ञान प्राप्त करके यह उत्साह व शक्ति से युक्त होकर मार्ग का आक्रमण करता है। २. (कृष्णाध्वा) = यह कृष्ण मार्गवाला होता है । 'कृष्ण' शब्द रंगों के अभाव का सूचक है-यह रंगीले मार्गवाला नहीं होता-जीवन में निर्लेपता से चलता है । (तपुः) = तपस्वी होता है, (रण्वः) = प्रभु का स्तवन करनेवाला [रण शब्दे] अतएव रमणीय जीवनवाला होता है । ३. (नभोभिः) = नक्षत्रों से (स्मयमान:) - मुस्कराते हुए (द्यौः इव) = आकाश की तरह यह (चिकेत) = जाना जाता है। जैसे द्युलोक नक्षत्रों से दीप्त है, उसी प्रकार इसका मस्तिष्करूप द्युलोक विज्ञान के नक्षत्रों से दीप्त होता है। यह सब दीप्ति उसे प्रभु ही तो प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु से दीप्ति को प्राप्त करके उपासक निर्लेपता से कर्त्तव्यपथ पर बढ़ता है
विषय
पक्षान्तर में परमेश्वर का निदर्शन।
भावार्थ
( तातृषाणः वना न ) जिस प्रकार पियासा जीव जलों को चाहता है उसी प्रकार ( यः ) जो अग्नि अति बुभुक्षितसा होकर ( वना ) वनों को (भाति) चमकाता, उनको खाजाना चाहता है, उनको प्रज्वलित कर देता है। (वाः न) जिस प्रकार मार्ग से जाता हुआ जल-प्रवाह घरघराता हुआ आगे बढ़ता है और ( रथ्यः इव ) जिस प्रकार रथ में जुता हुआ अश्व ( पथा ) मार्ग से जाता हुआ ( स्वानीत् ) ध्वनि करता, हिनहिनाता या पैरों की पटपट ध्वनि करता है उसी प्रकार ( अग्नि ) भी आगे बढ़ता प्रवाह चला जाता है । ( स्वानीत् ) चटचट ध्वनि किया करता है । ( नमोभिः द्यौ इवः ) चमकते अन्धकारों या आकाश प्रदेशों या मेघ खण्डों सहित सूर्य जिस प्रकार मानों ( स्मयमानः ) मुस्कराया करता है उसी प्रकार यह अग्नि भी (नमोभिः) नील आकाश प्रदेशों से या जलों से (स्मयमानः) विशेष स्फुलिंगों द्वारा मुस्कराता सा है । वह ( कृष्णाध्या ) काले रंग के धूआं रूप मार्ग से जानेवाला, ( तपुः ) सब को तपाने वाला, ( रण्वः ) रमणीय रूपवान् होता है उसी प्रकार वह नायक भी ( वना ) संविभाग करने योग्य ऐश्वर्यों के प्रति ( ततृषाणः ) पियासे के समान सदा अर्थ लिप्सु होकर ही ( भाति ) प्रकाशित हो । ( वाः न ) वह जल के समान अदम्य वेग से प्रयाण करे । वह ( रथ्यः इव स्वानीत् ) रथ में लगे अश्व के समान शब्द करे, उसके समान रम्य लक्ष्मी को देखकर स्वयं ( रथ्यः ) रथसेना का स्वामी होकर हर्ष सूचक शब्द करता हुआ ( पथा ) मार्ग से जावे । सूर्य के समान या नक्षत्रों से मण्डित आकाश के समान अपने ( नभोभिः ) बन्धुजनों से मुस्कराता, सुप्रसन्न होता रहे । वह ( कृष्णाध्वा ) चित्ताकर्षक, या शत्रु को काट गिरा देनेवाले मार्ग पर चलता हुआ और (तपुः) शत्रुजनों के संताप जनक और स्वयं भी तपस्वी होकर भी ( रण्वः ) अतिरम्यरूप में ( चिक्रेत ) जाना जावे। अग्नि जिस पदार्थ पर से गुजर जाता है वह कोयल होकर या धूआं लगकर काला हो जाता है । और राजा जा नायक चित्ताकर्षक या शत्रु-निकृन्तन के मार्ग से जाने से ‘कृष्णाध्वा’ है । वह दुष्टों का संताप दायी होकर भी रमणीय रहे । अर्थात् जैसे रघुवंश में लिखा है
टिप्पणी
भीमकान्तैर्नृपगुणैः स बभूवोपजीविनाम् । अधृष्यश्चाभिगम्यश्च यादोरानैरिवार्णवः ॥ रघुवंशे ॥ रघु भयानक और सुन्दर गुणों से असह्य और जल जन्तुओं और रत्नों से समुद्र के समान शरणीय हो गया था ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोमाहुतिर्भार्गव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द—१, ८ स्वराट् पक्तिः । २, ३, ५, ६, ७ आर्षी पंक्तिः । ४ ब्राह्म्युष्णिक् । ९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा एखादा अति तृषार्त माणूस प्रसन्नतेने हसून म्हणतो की जल (वाहताना) शब्दायमान होते, तसा वनातील अग्नी शब्दायमान होतो. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, bright as sun rays, flaming with light and love, shines, radiates and roars like a flood rushing on its way, or like a war horse on the highway. Bright and burning, it goes on dispelling darkness and leaving a trail of light on its path, blazing like the light of heaven and thundering like lightning. It can be known and realised with homage of service in humility and inputs of fine foods in yajna.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The scholars should know the science, solar energy etc.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A scholar always endeavors to make discoveries about the forest wealth and water resources. Such a man builds good roads for the carriers and conveyances (chariots), and their continuous movements make noise. The sun shines, heatens, blackens and beautifies and smiles the food grains flowers etc. as well The scholars should know such secret of the solar heat.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The resources of water and energy are very significant for the growth of the lands, and the scholars should know the details about them.
Foot Notes
(ततृषाण:) भृशं तृड्युक्तः । अब तुजादित्यादभ्यासदीर्घः = Very thirsty. (स्वानीत् ) शब्दायते । = Creates noise. (तपुः) परितापक:। = Heating.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal