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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 2/ मन्त्र 12
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - अग्निर्वैश्वानरः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    वै॒श्वा॒न॒रः प्र॒त्नथा॒ नाक॒मारु॑हद्दि॒वस्पृ॒ष्ठं भन्द॑मानः सु॒मन्म॑भिः। स पू॑र्व॒वज्ज॒नय॑ञ्ज॒न्तवे॒ धनं॑ समा॒नमज्मं॒ पर्ये॑ति॒ जागृ॑विः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वै॒श्वा॒न॒रः । प्र॒त्नऽथा॑ । नाक॑म् । आ । अ॒रु॒ह॒त् । दि॒वः । पृ॒ष्ठम् । भन्द॑मानः । सु॒मन्म॑ऽभिः । सः । पू॒र्व॒ऽवत् । ज॒नय॑न् । ज॒न्तवे॑ । धन॑म् । स॒मा॒नम् । अज्म॑म् । परि॑ । ए॒ति॒ । जागृ॑विः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वैश्वानरः प्रत्नथा नाकमारुहद्दिवस्पृष्ठं भन्दमानः सुमन्मभिः। स पूर्ववज्जनयञ्जन्तवे धनं समानमज्मं पर्येति जागृविः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वैश्वानरः। प्रत्नऽथा। नाकम्। आ। अरुहत्। दिवः। पृष्ठम्। भन्दमानः। सुमन्मऽभिः। सः। पूर्वऽवत्। जनयन्। जन्तवे। धनम्। समानम्। अज्मम्। परि। एति। जागृविः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 12
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    यो भन्दमानो जागृविरिव वैश्वानरः प्रत्नथा दिवः पृष्ठं नाकमारुहत् योऽज्मम्पर्य्येति जन्तवे समानं धनं पूर्ववज्जनयन् स सर्वैर्विद्वद्भिस्सुमन्मभिर्विज्ञेयः ॥१२॥

    पदार्थः

    (वैश्वानरः) पावकः (प्रत्नथा) प्रत्नः प्राक्तन इव (नाकम्) (आ) (अरुहत्) आरोहति (दिवः) दिव्यस्याकाशस्य (पृष्ठम्) परभागम् (भन्दमानः) कल्याणं कुर्वाणः (सुमन्मभिः) सुष्ठुविचारैः (सः) (पूर्ववत्) (जनयन्) जनयति (जन्तवे) प्राणिने (धनम्) (समानम्) तुल्यम् (अज्मम्) अजन्ति गच्छन्ति यस्मिन्मार्गे तत् (परि) (एति) सर्वतः प्राप्नोति (जागृविः) सदा जाग्रदिव ॥१२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। नह्ययमग्निरपूर्वोऽस्ति योऽतीतेषु कल्पेषु यादृशोऽभूत्तादृश एवेदानीं वर्त्तते भविष्यत्काले भविष्यति च यद्ययं सर्वेषां प्रकाशक इव रवियोगेन कार्यकारी वर्त्तते तर्हि स यथावत् विज्ञातः प्रयुक्तश्च सन् मङ्गलप्रदो भवति ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो (भन्दमानः) कल्याण को करता हुआ (जागृविः) जागता सा (वैश्वानरः) अग्नि (प्रत्नथा) पुरातन के समान (दिवः) दिव्य आकाश के समान (पृष्ठम्) पर भाग (नाकम्) स्वर्ग सुख भोग विशेष को (आरुहत्) चढ़ता है जो (अज्मम्) गमन होनेवाले मार्ग में (पर्य्येति) सब ओर से जाता है (जन्तवे) वा प्राणी के लिये (समानम्) तुल्य (धनम्) धन को (पूर्ववत्) पूर्व के समान (जनयन्) उत्पन्न करता है (सः) वह (सुमन्मभिः) समस्त उत्तम विचारवाले विद्वानों को विशेषता से जानने योग्य है ॥१२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। यह अग्नि अपूर्व नहीं है, जो व्यतीत हुए कल्पों में जैसा हुआ वैसा ही अब वर्त्तमान है, भविष्यत्काल में भी होगा। यदि यह सबका प्रकाशक के समान रवि के योग से कार्यकारी वर्त्तमान है तो वह यथावत् जाना और प्रयोग किया हुआ मङ्गल का अच्छे प्रकार देनेवाला होता है ॥१२॥

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    विषय

    'ज्ञानमय आनन्दमय' एकरस प्रभु

    पदार्थ

    [१] (वैश्वानरः) = सब मनुष्यों का हित करनेवाले प्रभु (दिवस्पृष्ठम्) = द्युलोक रूप पृष्ठवालेज्ञानप्रकाशरूप आधारवाले, (नाकम्) = आनन्दमय लोक में (प्रत्नथा) = सनातन काल की तरह अर्थात् सदा आरुहत् आरूढ़ होते हैं, अर्थात् प्रभु ज्ञानमय हैं और आनन्दमय हैं। वे प्रभु (सुमन्मभिः) = विचारशील स्तोताओं से (भन्दमानः) = स्तूयमान होते हैं। ज्ञानीपुरुष सदा प्रभुस्तवन करते हैं । प्रभुस्तवन करते हुए ये भी अपने ज्ञान को उत्तरोत्तर बढ़ाते हुए आनन्दमयता प्राप्त करते हैं । [२] वे प्रभु (पूर्ववत्) = पहले की तरह, जैसे पिछली सृष्टि में, उसी तरह इस सृष्टि में भी, (जन्तवे) = प्राणी के लिये (धनम्) = धन को (जनयन्) = उत्पन्न करते हैं। सब मनुष्यों को वे प्रभु आवश्यक धन प्राप्त कराते हैं। (जागृवि:) = सदा जागरित वे प्रभु (समानम्) = समान ही (अज्मम्) = मार्ग पर (पर्येति) = गति करते हैं । प्रभु एकरस हैं। वे अपनी व्यवस्थाओं को न भंग करते हुए समान मार्ग से आगे और आगे बढ़ते चल रहे हैं। कोई भी घटना प्रभु को मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। 'पिछली सृष्टि के नियमों से अब की बार कुछ परिवर्तन हो गया है', ऐसी बात नहीं है। वे प्रभु एकरस हैं, उनके नियम अपरिवर्तनीय हैं। प्रभु का मार्ग सदा एक समान है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ज्ञानमय व आनन्दमय हैं। सब के लिये वे आवश्यक धन देते हैं। प्रभु का मार्ग सदा एक समान है, प्रभु के नियमों में परिवर्तन नहीं होता रहता।

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    विषय

    उसके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (वैश्वानरः) सूर्य जिस प्रकार (प्रत्नथा) पूर्व के समान (दिवः पृष्ठम् आ अरुहत्) आकाश के ऊपर चढ़ जाता है (सुमन्मभिः मन्दमानः) उत्तम किरणों से सबको सुखी करता, (जन्तवे पूर्ववत् जनयन्) प्राणी मात्र के लिये पुष्टि करता और (समानम् अज्मं परिएति) समान रूप से अपना मार्ग तय कर लेता है उसी प्रकार (वैश्वानरः) सबका नेता, पुरुष (प्रत्नथा) पुरातन, सनातन से चले आये धर्मानुसार दुःखरहित (दिवः पृष्ठं) तेज के सर्वोपरि पद को (आ अरुहत्) प्राप्त करे (नाकम्) सुख और (सुमन्मभिः) अपने उत्तम विचारों और उत्तम विचारवान् पुरुषों द्वारा (मन्दमानः) प्रजा का कल्याण करता हुआ (दिवः पृष्ठं) तेज और विजय कामना के सर्वोपरि (नाकं) सुखमय, दुःखरहित पदको (प्र अरुहत्) प्राप्त करे । और (जन्तवे) प्राणिमात्र के लिये (पूर्ववत्) पूर्व के समान या अपने से पूर्व विद्यमान पिता आचार्यादि के समान (धनं) पोषक अन्नादि ऐश्वर्य (जनयन्) उत्पन्न करता हुआ (जागृविः) जागरणशील, सदा सावधान होकर (समानं अज्मं) समान अर्थात् निष्पक्षपात मार्ग या मान आदर से युक्त मार्ग पर (परि एति) चले । (२) परमेश्वर सर्वोपरि तेजोमय (नाकम्) आनन्दघन होने से ‘नाक’ पर स्थित है । वे उत्तम ज्ञानों से सबका कल्याणकर्त्ता, कल्पकल्पान्तरों से बराबर पुष्टि देता, सदा जागृत होकर समान रूप से एकरस सर्वत्र व्याप रहा है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्वैश्वानरो देवता॥ छन्दः–१, ३, १० जगती। २, ४, ६, ८, ९, ११ विराड् जगती। ५, ७, १२, १३, १४, १५ निचृज्जगती च ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हा अग्नी अपूर्व नाही तर पूर्वकल्पात जसा होता तसाच आताही वर्तमान आहे व भविष्यकाळातही असेल. तो सर्वांचा प्रकाशक असलेल्या सूर्याच्या योगे कार्य करीत असतो. त्याला योग्य रीतीने जाणून त्याचा प्रयोग केल्यास तो कल्याणकारी ठरतो. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Vaishvanara, vital fire of life and immanent will, ancient and eternal, rises to paradisal bliss over the heights of heaven sung and celebrated by poets of faith and imagination. Creating as ever the wealth of life for living beings, the illustrious leader goes all round by the highways of existence ever awake, without a wink of sleep.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More attributes and functions of fire.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Like a benevolent and ever vigilant person, as of old, the fire ascends to the lower part of the heaven and travels in its own way. It gives wealth ( of light and heat) to all without any discrimination as before. It should be known well by all learned persons with noble ideas.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    This fire is not created newly. It is as it was in the ancient times and will be so in the future. If its properties are known thoroughly and utilized methodically, it becomes beneficent to all.

    Foot Notes

    (भन्दमानः) कल्याणं कुर्वाण:। = Doing good to all, benevolent. (सुमन्मभिः) सुष्ठुविचारै: = With noble ideas.

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