ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 2/ मन्त्र 9
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - अग्निर्वैश्वानरः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
ति॒स्रो य॒ह्वस्य॑ स॒मिधः॒ परि॑ज्मनो॒ऽग्नेर॑पुनन्नु॒शिजो॒ अमृ॑त्यवः। तासा॒मेका॒मद॑धु॒र्मर्त्ये॒ भुज॑मु लो॒कमु॒ द्वे उप॑ जा॒मिमी॑यतुः॥
स्वर सहित पद पाठति॒स्रः । य॒ह्वस्य॑ । स॒म्ऽइधः॑ । परि॑ऽज्मनः । अ॒ग्नेः । अ॒पु॒न॒न् । उ॒शिजः॑ । अमृ॑त्यवः । तासा॑म् । एका॑म् । अद॑धुः । मर्त्ये॑ । भुज॑म् । ऊँ॒ इति॑ । लो॒कम् । ऊँ॒ इति॑ । द्वे इति॑ । उप॑ । जा॒मिम् । ई॒य॒तुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तिस्रो यह्वस्य समिधः परिज्मनोऽग्नेरपुनन्नुशिजो अमृत्यवः। तासामेकामदधुर्मर्त्ये भुजमु लोकमु द्वे उप जामिमीयतुः॥
स्वर रहित पद पाठतिस्रः। यह्वस्य। सम्ऽइधः। परिऽज्मनः। अग्नेः। अपुनन्। उशिजः। अमृत्यवः। तासाम्। एकाम्। अदधुः। मर्त्ये। भुजम्। ऊँ इति। लोकम्। ऊँ इति। द्वे इति। उप। जामिम्। ईयतुः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 9
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाग्निविषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या यह्वस्य परिज्मनोऽग्नेर्या उशिजोऽमृत्यवस्तिस्रः समिधः सर्वानपुनन् तासामेकां मर्त्येऽदधुर्द्वे भुजं लोकमु जामिमुपेयतुस्ता यथावद्विजानीत ॥९॥
पदार्थः
(तिस्रः) त्रिप्रकारकाणि विद्युद्भौमसूर्यरूपेण स्थितानि ज्योतींषि (यह्वस्य) महतः (समिधः) सम्यक् प्रदीप्ताः (परिज्मनः) परितः सर्वतो व्याप्तस्य (अग्नेः) (अपुनन्) (उशिजः) कमनीयाः (अमृत्यवः) मृत्युभयरहिताः (तासाम्) (एकाम्) (अदधुः) (मर्त्ये) मर्त्यलोके (भुजम्) पालिकाम् (उ) वितर्के (लोकम्) द्रष्टव्यम् (उ) (द्वे) (उप) (जामिम्) जायमानम् (ईयतुः) प्राप्नुतः ॥९॥
भावार्थः
यदि मनुष्यास्त्रिविधमग्निं विदित्वोपर्यधस्थानि प्रयोजनानि साधयितुं प्रवर्त्तेरँस्तर्हि तेषां किमपि कार्यमसाध्यन्न स्यात् ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
अब अग्नि के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यह्वस्य) महान् (परिज्मनः) सर्वत्र व्याप्त (अग्नेः) अग्नि की जो (उशिजः) मनोहर (अमृत्यवः) मृत्यु धर्म रहित (तिस्रः) तीन प्रकार बिजुली भूमिगत और सूर्य रूप से स्थित ज्योति (समिधः) सम्यक् प्रदीप्त लपटे हैं वे सबको (अपुनन्) पवित्र करती हैं (तासाम्) उनमें से (उ) ही (एकाम्) एक को (मर्त्ये) मनुष्यलोक में (अदधुः) स्थापन करते हैं (द्वे) शेष दो (भुजम्) पालनेवाली पृथ्वी तथा (लोकम्) देखने योग्य लोक के समूह को (उ) और (जामिम्) जायमान वस्तु मात्र को (उपेयतुः) प्राप्त होती हैं उनको अच्छे प्रकार जानो ॥९॥
भावार्थ
जो मनुष्य तीन प्रकार के अग्नि को जान के ऊपर-नीचे स्थित जो प्रयोजन उनको सिद्ध करने को प्रवृत्त हों, तो उनको कोई काम असाध्य न हो ॥९॥
विषय
तीन समिधाएँ
पदार्थ
[१] (यह्वस्य) = उस महान् प्रभु की (तिस्रः समिधः) = तीन समिधाएँ हैं। 'इयं समित् पृथिवी द्यौर्द्वितीया उतान्तरिक्षं समिधा पृणाति' = यह पृथिवीलोक पहली समिधा है, द्युलोक दूसरी और तीसरी समिधा अन्तरिक्ष है। जैसे इस अग्नि में डाले जानेवाली समिधा से अग्नि दीप्त होती है, उसी प्रकार पृथिवीलोक के पदार्थों में द्युलोक के सूर्यादि पिण्डों में तथा अन्तरिक्ष लोक के मेघ विद्युत् आदि में प्रभु की महिमा दिखती है एवं ये पदार्थ प्रभु को हमारे लिये दीप्त करते हैं। उस प्रभु को जो कि (परिज्मनः) = चारों ओर गतिवाले हैं, सर्वव्यापक हैं । (अग्नेः) = जो अग्रणी हैं। उन प्रभु के ये तीनों लोक तीन समिधाएँ हैं। (उशिज:) = तेजस्वी लोग (अमृत्यवः) = विषयों के पीछे न मरनेवाले लोग (अपुनन्) = इन तीनों समिधाओं का शोधन करते हैं। इन लोकों के पदार्थों का गहरा ज्ञान प्राप्त करते हैं और इनमें प्रभु की महिमा देखते हैं । [२] (तासाम्) = उन समिधाओं में से (एकाम्) = एक इस पृथ्वीरूप समिधा को (उ) = निश्चय से (मर्त्ये) = मनुष्य के निमित्त (भुजम्) = पालन करनेवाली के रूप में (अदधुः) = स्थापित करते हैं। इस पृथ्वी के पदार्थों का प्रयोग करता हुआ मनुष्य इनमें प्रभु की महिमा को देखना भूल जाता है। इस प्रकार यह पृथिवी रूप समिधा तो मनुष्य का पालन करनेवाली ही हो जाती है। (उ) = और (द्वे उ) = दो समिधाएँ निश्चय से (जामिम्) = सारे ब्रह्माण्ड को जन्म देनेवाले (लोकम्) = प्रकाशमय प्रभु के (उप ईयतुः) = समीप प्राप्त होती हैं, अर्थात् अन्तरिक्ष व द्युलोक के पदार्थों में प्रभु की महिमा सदा दिखती है और मनुष्य को प्रभु का स्मरण कराती है।
भावार्थ
भावार्थ- पृथ्वी के पदार्थ मनुष्य के प्रयोग में आकर उसका पालन करते हैं । अन्तरिक्ष व द्युलोक के पदार्थ उसे प्रभु की महिमा दिखाते हैं ।
विषय
उसके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार (परिज्मनः) सर्वव्यापक (महतः) महान् (अग्नेः) अग्नि तत्व के (तिस्रः समिधः) तीन समान रूप दीप्ति युक्त ज्वालाएं हैं। वे तीनों (उशिजः) सबसे अधिक कान्तियुक्त, (अमृत्यवः) मृत्युभय से रहित होकर (अपुनन्) सबको पवित्र करती हैं । अथवा उन तीनों को (उशिजः) कामना करने हारे (अमृत्यवः) मृत्यु भय को त्यागकर निर्भय विद्वान् (अपुनन्) प्राप्त होते और साधते हैं । अग्नि के (तासाम्) उन तीनों में से (एकाम्) एक प्रकार की दीप्ति को (मर्त्ये) मरणधर्मा जीवों में (भुजम्) अन्नादि के भोक्ता सर्वपालक जाठराग्नि और स्थूलाग्नि रूप से (अदधुः) पुष्ट करते हैं और (द्वे) शेष दोनों विद्युत् और सौर अग्नि (जामिम् लोकम्) सर्वोत्पादक लोक, अन्तरिक्ष और सूर्य में (ईयतुः) प्राप्त होते हैं । उसी प्रकार (यह्वस्य) महान् शक्तिशाली (परि-ज्मनः) युद्धादि में सर्वत्र जाने वाले (अग्नेः) तेजस्वी पुरुष की (तिस्रः) तीन (समिधः) समान रूप से उत्तेजित होनेवाली शक्तियां मृत्युरहित, अविनाशी (उशिजः) तेजोयुक्त होकर (अपुनन्) राष्ट्र को दुष्टों से रहित, शुद्ध पवित्र करें, राष्ट्र का कण्टक शोधन करें । अथवा मृत्युभय से रहित, कामना वाले प्रजागण उन तीनों को प्राप्त हों। (तासाम् एकाम्) उनमें से एक को (मर्त्ये) मरणशील प्रजाजन में (भुजम्) पालन करने वाली, राष्ट्रपालक और रक्षक रूप से (अदधुः) रखें । और (द्वे जामिम् लोकम्) दो समीप के पड़ोसी राष्ट्र को (उप ईयतुः) प्राप्त हों अर्थात् उनके मुकाबले पर हों । राजा की शक्ति के तीन भागों में से एक राष्ट्र की रक्षा करे, दो भाग उदासीन और शत्रु राष्ट्रों के मुकाबला कर सकें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्वैश्वानरो देवता॥ छन्दः–१, ३, १० जगती। २, ४, ६, ८, ९, ११ विराड् जगती। ५, ७, १२, १३, १४, १५ निचृज्जगती च ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे तीन प्रकारच्या अग्नीचे प्रयोजन जाणून ते सिद्ध करण्यास प्रवृत्त होतात त्यांना कोणतेही काम असाध्य नसते. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Three are the flames of mighty Agni shining everywhere, beautiful are they and immortal, purging, purifying and sanctifying everything. One of these they, the immortal powers of Divinity, place in the world of the mortals for their sustenance: this one is the fire and magnetic energy. The other two, electric energy and light, they carry up above to the heights of the twins, sky and the region of light and place them there.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of three kinds of Agni are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! there are three radiant forms of the great circumambient Agni which are desirable and in the casual form is indestructible, which purify all. One of the divine powers (fire) or enlightened persons have been placed in the world of the mortals. The other two (electricity and the sun) pervade by their power this earth and the other worlds and their objects that exist.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If the men know the three forms of Agni (fire, electricity and the sun) and begin to use them methodically to accomplish various purposes up and down, there is nothing that they can not accomplish.
Foot Notes
(परिज्मनः) परितः सर्वतो व्याप्तस्य । परिज्मनः is from परि + अज । अजगति क्षेपणयोः। गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र । तृतीयार्थग्रहणम् । = Pervading on all sides. (तिस्रः) त्रिप्रकारकाणि विद्यद्भौम सूर्यरूपेण स्थितानि ज्योतींषि = Three lights in the form of electricity (lightning) fire and the sun. (जामिम्) जायमानम् । = That is born or manifest.
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