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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 2/ मन्त्र 15
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - अग्निर्वैश्वानरः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    म॒न्द्रं होता॑रं॒ शुचि॒मद्व॑याविनं॒ दमू॑नसमु॒क्थ्यं॑ वि॒श्वच॑र्षणिम्। रथं॒ न चि॒त्रं वपु॑षाय दर्श॒तं मनु॑र्हितं॒ सद॒मिद्रा॒य ई॑महे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒न्द्रम् । होता॑रम् । शुचि॑म् । अद्व॑याविनम् । दमू॑नसम् । उ॒क्थ्य॑म् । वि॒श्वऽच॑र्षणिम् । रथ॑म् । न । चि॒त्रम् । वपु॑षाय । द॒र्श॒तम् । मनुः॑ऽहितम् । सद॑म् । इत् । रा॒यः । ई॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मन्द्रं होतारं शुचिमद्वयाविनं दमूनसमुक्थ्यं विश्वचर्षणिम्। रथं न चित्रं वपुषाय दर्शतं मनुर्हितं सदमिद्राय ईमहे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मन्द्रम्। होतारम्। शुचिम्। अद्वयाविनम्। दमूनसम्। उक्थ्यम्। विश्वऽचर्षणिम्। रथम्। न। चित्रम्। वपुषाय। दर्शतम्। मनुःऽहितम्। सदम्। इत्। रायः। ईमहे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 15
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या वयं यं होतारं मन्द्रं दमूनसमुक्थ्यं शुचिं विश्वचर्षणिं मनुर्हितं विद्वांसं प्राप्य रथं न चित्रं वपुषाय दर्शतं सदमद्वयाविनं वह्निमीमहे तेन राय ईमहे तमिद्यूयमपि याचत ॥१५॥

    पदार्थः

    (मन्द्रम) आनन्दप्रदम् (होतारम्) आदातारम् (शुचिम्) पवित्रम् (अद्वयाविनम्) यो द्वयोर्न विद्यते तं सरलगामिनम् (दमूनसम्) दमनशीलम् (उक्थ्यम्) प्रशंसनीयम् (विश्वचर्षणिम्) सर्वेषां दर्शकम् (रथम्) दृढं रमणीयं यानम् (न) इव (चित्रम्) अद्भुतम् (वपुषाय) वपूंषि रूपाणि विद्यन्ते यस्मिंस्तस्मै व्यवहाराय। अत्र अर्श आदिभ्योऽजिति वेद्यम्। (दर्शतम्) द्रष्टुं योग्यम् (मनुर्हितम्) मनुष्याणां हितकारकम् (सदम्) अवस्थितम् (इत्) एव (रायः) धनानि (ईमहे) याचामहे ॥१५॥

    भावार्थः

    यदि दान्तानां विदुषां संनिधौ स्थित्वा वह्निविद्यां जानीयुस्तर्हि मनुष्याः किं किं धनं न प्राप्नुयुरिति ॥१५॥ अत्र विद्वद्वह्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्वितीयं सूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! हम लोग जिस (होतारम्) ग्रहण करने और (मन्द्रम्) आनन्द देनेवाले (दमूनसम्) दमनशील (उक्थ्यम्) प्रशंसा करने योग्य (शुचिम्) पवित्र (विश्वचर्षणिम्) सबके देखने और (मनुर्हितम्) मनुष्यों के हित करने करनेवाले विद्वान् को प्राप्त होकर (रथम्) दृढ रमणीय यान के (न) समान (चित्रम्) अद्भुत और (वपुषाय) जिस व्यवहार में रूप विद्यमान उस व्यवहार के लिये (दर्शतम्) देखने योग्य (सदम्) अवस्थित और (अद्वयाविनम्) जो दो में नहीं विद्यमान ऐसे सीधे चलनेवाले अग्नि को (ईमहे) जांचते और उससे (रायः) धनों को जाँचते हैं, उस (इत्) ही को तुम लोग भी जाँचो ॥१५॥

    भावार्थ

    जो इन्द्रियों को दमन करनेवाले विद्वानों के निकट स्थित होकर अग्निविद्या को जानें, तो मनुष्य किस-किस धन को न प्राप्त हों ? ॥१५॥ इस सूक्त में विद्वान् और अग्नि के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह दूसरा सूक्त और उन्नीसवाँ वर्ग पूर्ण हुआ ॥

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    विषय

    'सब ऐश्वर्यों के दाता' प्रभु

    पदार्थ

    [१] (मन्द्रम्) = स्तुत्य, (होतारम्) = सब कुछ देनेवाले, (शुचिम्) = पवित्र, (अद्वयाविनम्) = कुटिलता से रहित [अद्वयावी], (दमूनसम्) = दान के मनवाले, (उक्थ्यम्) = स्तुतियोग्य, (विश्वचर्षणिम्) = सर्वद्रष्टा, सबका ध्यान करनेवाले, (रथं न) = जो प्रभु जीवनयात्रा की पूर्ति के लिये रथ के समान हैं। (चित्रम्) = अद्भुत अथवा ज्ञान देनेवाले (वपुषाय दर्शतम्) = [वपुषं- beauty] सौन्दर्य के लिये दर्शनीय, अर्थात् जहाँ-जहाँ भी सौन्दर्य है, वह सब प्रभुतेज के अंश के कारण ही तो है, (मनुर्हितम्) = मानवहित करनेवाले उस प्रभु से (सदम्) = सदा (इत्) = ही (रायः) = धनों को ईमहे माँगते हैं। [२] सब धनों के स्वामी वे प्रभु हैं, उस प्रभु से ही हम धनों की याचना करते हैं। प्रभु से जीवनयात्रा के लिये आवश्यक धनों को प्राप्त करते हुए हम अपनी जीवनयात्रा को सुन्दरता से निभानेवाले बनते हैं। प्रभुस्तवन करते हैं, प्रभु पर पूर्ण विश्वास के साथ चलते हैं। 'प्रभु सदा देनेवाले हैं, वे हमारा हित करनेवाले हैं' यह धारणा हमें जीवन के सौन्दर्य को प्राप्त कराती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु से ही हम सब आवश्यक ऐश्वर्यों की याचना करते हैं ।सम्पूर्ण सूक्त इसी भाव से परिपूर्ण है कि प्रभु ही सब इष्ट धनों के देनेवाले हैं। इस प्रभु की ही उपासना अगले सूक्त में भी उपदिष्ट है

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    विषय

    उसके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (मन्दं) आनन्ददायक, स्तुति योग्य, (होतारं) ज्ञान के देने वाले और आश्रय में लेने वाले, (शुचिम्) शुद्ध पवित्र स्वभाव के, (अद्वयाविनम्) दो भावों से न रहने वाले, सरलस्वभाव, (दमूनसं) जितेन्द्रिय और दानशील, (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय, (विश्वचर्षणिम्) सब पदार्थों के स्वयं देखने और दिखाने वाले, (मनुर्हितम्) मनुष्यों के हितकारी (वपुषाय) रूप में भी (दर्शतम्) दर्शनीय (रथं न चित्रम्) रथ के समान अद्भुत, (सदम्) गृह के समान सबके शरण योग्य, स्थित पुरुष को (राये) धनैश्वर्य को प्राप्त करने के लिये (ईमहे) प्रार्थना करें । अथवा पूर्वोक्त गुणों से युक्त विद्वान् को (वपुषाय दर्शतं अग्निं ईमहे) रूपवान् पदार्थों के दिखाने वाले अग्नि के ज्ञान का प्रश्न करें । (२) परमेश्वर पक्ष में—वह अद्वितीय होने से ‘अद्वयावी’ है। विश्व द्रष्टा होने से ‘विश्वचर्षणि’ है । वह गृह के समान शरण योग्य सर्व हितकारी, रस रूप होने और रमण योग्य होने से रथ के समान चित्, रूप होने से ‘चित्र’ है । हम उसकी प्रार्थना करें । इत्येकोनविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्वैश्वानरो देवता॥ छन्दः–१, ३, १० जगती। २, ४, ६, ८, ९, ११ विराड् जगती। ५, ७, १२, १३, १४, १५ निचृज्जगती च ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे इंद्रियदमन करणाऱ्या विद्वानाजवळ स्थित होऊन अग्निविद्या जाणतात त्या माणसांना कोणते धन प्राप्त होणार नाही? ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Emanating the ecstasy of Ananda, universal yajna, purest power, clarion call to life unambiguous, self-controlled and all-controlling, adorable, all watching eye, infinitely various in colour and motion yet constant as light and steady as a chariot, beauty crystallized in form, inexhaustible fount of bliss for humanity, the ultimate haven of peace, the real treasure of existence: that is Agni, that we worship with homage and yajnic offerings.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The qualities and nature of fire are concluded.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! we implore a great scholar who is giver of Bliss, accepter of virtues, self-controlled, the commendably pure, the beholder of and guide to all, benefactor of mankind to impart us knowledge about the Agni (fire). It is many coloured like a chariot, elegant in form and going straight forward. We implore to acquire that wealth. So you should also emulate it.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    If men acquire the knowledge of Agni (fire electricity etc), sitting at the feet of great scholars or scientists who are perfect master of their senses, there is no wealth which may not be able to achieve?.

    Foot Notes

    (दमूनसम् ) दमनशीलम् | दमूना:-दममना वा दान्तमना वा (Nkt. 4, 1, 5)= Man of self-control. (मनुहितम्) मनुष्याणांहितकारकम्। = (Stph. 8. 6, 3, 18) Benefactor of mankind.

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