ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 2/ मन्त्र 13
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - अग्निर्वैश्वानरः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
ऋ॒तावा॑नं य॒ज्ञियं॒ विप्र॑मु॒क्थ्य१॒॑मा यं द॒धे मा॑त॒रिश्वा॑ दि॒वि क्षय॑म्। तं चि॒त्रया॑मं॒ हरि॑केशमीमहे सुदी॒तिम॒ग्निं सु॑वि॒ताय॒ नव्य॑से॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तऽवा॑नम् । य॒ज्ञिय॑म् । विप्र॑म् । उ॒क्थ्य॑म् । आ । यम् । द॒धे । मा॒त॒रिश्वा॑ । दि॒वि । क्षय॑म् । तम् । चि॒त्रऽया॑मम् । हरि॑ऽकेशम् । ई॒म॒हे॒ । सु॒ऽदी॒तिम् । अ॒ग्निम् । सु॒वि॒ताय॑ । नव्य॑से ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतावानं यज्ञियं विप्रमुक्थ्य१मा यं दधे मातरिश्वा दिवि क्षयम्। तं चित्रयामं हरिकेशमीमहे सुदीतिमग्निं सुविताय नव्यसे॥
स्वर रहित पद पाठऋतऽवानम्। यज्ञियम्। विप्रम्। उक्थ्यम्। आ। यम्। दधे। मातरिश्वा। दिवि। क्षयम्। तम्। चित्रऽयामम्। हरिऽकेशम्। ईमहे। सुऽदीतिम्। अग्निम्। सुविताय। नव्यसे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 13
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
यं ऋतावानं यज्ञियमुक्थ्यं दिवि क्षयं चित्रयामं सुदीतिं हरिकेशमग्निं नव्यसे सुविताय मातरिश्वाऽऽदधे तं यो जानाति तं विप्रं वयमीमहे॥१३॥
पदार्थः
(ऋतावानम्) सत्यकारणमयम् (यज्ञियम्) यज्ञसंपादकम् (विप्रम्) मेधाविनम् (उक्थ्यम्) प्रशंसनीयम् (आ) (यम्) (दधे) दधाति (मातरिश्वा) यो मातर्य्यन्तरिक्षे श्वसिति (दिवि) दिव्ये आकाशे (क्षयम्) निवसितारम् (तम्) (चित्रयामम्) चित्रा अद्भुता यामाः प्रहरा यस्मात् यद्वा चित्रं यामं प्रापणं यस्य तम् (हरिकेशम्) हरयो हरणशीलाः केशा रश्मयो यस्य तम् (ईमहे) याचामहे (सुदीतिम्) सुष्ठु दीतिः क्षयो यस्मात् तम् (अग्निम्) पावकम् (सुविताय) अभिषवाय (नव्यसे) नूतनाय ॥१३॥
भावार्थः
वह्नेर्निमित्तकारणं धर्ता वायुः प्रवर्त्तते यत्रान्तरिक्षे वायुरस्ति तत्रैव पावकः। यस्मात्प्रलयः प्रभवति येन च यज्ञाः सिद्धा भवन्ति तमद्भुतगुणकर्मस्वभावमग्निं नवीनताविद्याफलाप्तये विद्वांसोऽन्विच्छन्तु ॥१३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
(यम्) जिस (ऋतावानम्) सत्यकारणमय (यज्ञियम्) यज्ञसंपादक (उक्थ्यम्) प्रशंसा करने योग्य (दिवि, क्षयम्) दिव्य आकाश में निवास करते हुए (चित्रयामम्) चित्र-विचित्र अद्भुत प्रहर जिसमें होते हैं वा चित्र विचित्र याम प्राप्ति जिसकी वा (सुदीतिम्) सुन्दर दान जिससे होता उस (हरिकेशम्) हरणशील रश्मियोंवाले (अग्निम्) अग्नि को (नव्यसे) नवीन (सुविताय) अभिषव के लिये (मातरिश्वा) अन्तरिक्ष में सोनेवाला वायु (आ, दधे) अच्छे प्रकार धारण करता है (सम्) उसे जो जानता है उस (विप्रम्) मेधावी पुरुष को हम लोग (ईमहे) याचते हैं ॥१३॥
भावार्थ
अग्नि के निमित्त कारण को धारण करनेवाला वायु वर्त्तमान है, जिस अन्तरिक्ष में वायु है, वहीं अग्नि भी है, जिससे प्रलय होता वा यज्ञ सिद्ध होते हैं, उस अद्भुत गुण-कर्म-स्वभाववाले अग्नि को नवीनता और विद्या प्राप्ति के लिये विद्वान् जन ढूँढें ॥१३॥
विषय
मातरिश्वा
पदार्थ
[१] (ऋतावानम्) = ऋतवाले व ऋत का अवन [=रक्षण] करनेवाले प्राकृतिक संसार में काम करनेवाला नियम ऋत कहलाता है, प्रभु इस ऋत का रक्षण करते हैं, प्रभु की व्यवस्था में प्रत्येक पिण्ड ऋत के अनुसार गति कर रहा है। (यज्ञियम्) = पूज्य, संगतिकरण योग्य व समर्पणीय। (विप्रम्) = विशेषरूप से हमारा पूरण करनेवाले, (उक्थ्यम्) = स्तुत्य, (दिवि क्षयम्) = प्रकाशमय स्वरूप में निवास करनेवाले (यम्) = जिस ईश को (मातरिश्वा) = वेदमाता के अनुसार गति करनेवाला व वृद्धि प्राप्त करनेवाला जीव (दधे) = धारण करता है। (तम्) = उसी प्रभु की हम (ईमहे) = याचना करते हैं। प्रभु का यह उपासक भी ऋतरक्षण करनेवाला, यज्ञशील, अपना पूरण करनेवाला व स्तुतिमय जीवनवाला बनता है। [२] (तम्) = उस (चित्रयामम्) = अद्भुत गतिवाले उस प्रभु की गतियाँ जीव के लिये अज्ञेय हैं। (हरिकेशम्) = दुःख के हरण करनेवाली ज्ञानरश्मियोंवाले। (सु-दीतिम्) = उत्तम दीप्तिवाले (अग्निम्) = अग्रणी प्रभु को (नव्यसे) = अत्यन्त स्तुत्य (सुविताय) = सुवित के लिये ईमहे याचना करते हैं। प्रभुकृपा से हम प्रशस्त जीवन-मार्गवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुस्तवन करते हुए हम प्रशस्त जीवन-मार्ग का आक्रमण करें। प्रभु - धारण के लिये वेदानुकूल जीवनयापन का प्रयत्न करें। -
विषय
उसके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार (ऋतावानं) सत् कारणस्वरूप, (यज्ञियं) यज्ञ के योग्य (विनम्) विशेष रूप से सर्वत्र पूर्ण, (उक्थ्यम्) प्रशंसा के योग्य (दिविक्षयम्) आकाश या अन्तरिक्ष में विद्यमान, विद्युत् को (मातरिश्वा) अन्तरिक्ष में प्राण के समान चलने वाला वायु धारण करता है उस (चित्रयामं) अद्भुत वेग से जाने वाले, (सुदीतिम्) उत्तम दीप्ति युक्त एवं उत्तम रीति से दृढ़ पदार्थों को भी खण्डित करने में समर्थ (हरिकेशम्) पीली रश्मियों वाले, या तीव्र प्रकाशमान् किरणों से युक्त (अग्निम्) अग्निरूप विद्युत् को (नव्यसे) नये से नये (सुविताय) प्रयोगों के लिये (ईमहे) प्राप्त करते हैं। या ऐसी विद्युत् के विषय में (विप्रम् ईमहे) विद्वान् पुरुप से पूछते हैं उसी प्रकार (यम्) जिसको (मातरिश्वा) भूमि पर वेग से जाने वाला, वायु के समान बलवान् वीर पुरुष (आदधे) स्थापित करता है (तं) उस (ऋतावानं) सत्य, न्यायाचरण और वेद की व्यवस्था से युक्त, (यज्ञियं) दानशील प्रजापति पद के योग्य, (विप्रम्) राष्ट्र को विविध ऐश्वर्यों से पूर्ण करने वाले (दिवि क्षयम्) ज्ञान, व्यवहार, विजयकामना में या पृथिवी पर निवास करने वाले (चित्रयामं) अद्भुत मार्गों से जाने वाले, (हरिकेशम्) पीत वर्ण के बालों के समान मानो तेज को धारण करने वाले, सूर्य के समान तेजस्वी, वा प्रजाओं के क्लेशों को दूर करने वाले, (सुदीतिम्) उत्तम दीप्ति, संहार शक्ति से युक्त (अग्निम्) अग्नि को (नव्यसे) नये २, उत्तम (सुविताय) सुखपूर्वक गमन, सन्मार्ग में प्रेरण तथा अभिषेक के लिये (ईमहे) प्रार्थना करें, वरें । (२) परमेश्वर पक्ष में—सर्वनिर्माता परमेश्वर में रमने वाला उपासक ‘मातरिश्वा’ है। वह जिसको हृदय में धारता है उस सत्यमय, परम पूज्य मेधावी अद्भुत, दुःखहारी स्वप्रकाशस्वरूप प्रभु की हम उपासना करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्वैश्वानरो देवता॥ छन्दः–१, ३, १० जगती। २, ४, ६, ८, ९, ११ विराड् जगती। ५, ७, १२, १३, १४, १५ निचृज्जगती च ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
अग्नीचे निमित्त कारण धर्ता वायू असतो. ज्या अंतरिक्षात वायू असतो तेथे अग्नीही असतो. त्यामुळे प्रलयही होतो व यज्ञही सिद्ध होतात. नवीनतेसाठी व विद्याप्राप्तीसाठी विद्वानांनी त्या अद्भुत गुण, कर्म, स्वभावाच्या अग्नीचे संशोधन करावे. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That Agni, Vaishvanara, universal fire of life, going by the ways of Truth and universal Law, venerable, intelligent, admirable, existing and operating in the lights of spaces, which is held and sustained by the universal Vayu energy, that same Agni, wonderful in movement and achievement, bright in flames, radiant with holy light, we love, admire and worship for the sake of latest success and well-being.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of fire is further narrated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
We implore for Divine Commands and praiseworthy wealth from that wise man who knows the nature and properties of the Agni (fire). It is born out of true eternal cause (matter) and is the means of performing Yajnas. It is admirable, because the wind moving in the firmament and the sky upholds. It makes us dwell in wonderful happiness. Properly utilized, it has charming flames and is well consuming.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The wind is the exciting cause and upholder of the fire. Where there is wind, it blazes fire. This fire is the cause of dissolution and the accomplishment of the Yajnas. So learned scientists should investigate the properties of this wonderful fire well to discover new secrets of this science.
Foot Notes
ऋतावानम् ) सत्यकारणमयम् । = Born of true cause ( Matter ). (विप्रम् ) मेधाविनम् । विप्र इति मेधाविनाम (N.G. 3,15) = Extra ordinary wise man or genius. (चित्रयामम् ) चित्रा अद्भुता यामा: प्रहरा यस्मात् । यद्वा चित्रं यामं प्रापणं यस्य तम् = Conveyor of wonderful happiness. (हरिकेशम्) हरयो हरणशीला: केशा रश्मयो यस्य तम् । केशाः रश्मयः इति N.R.T. 12,3, 26 काशनाद् वा प्रकाशनाद् वा। = Having charming flames. (सुदीतिम्) सुष्ठु दीतिः क्षयो यस्मात् तम् = Consuming cause of dissolution. (ईमहे) याचामहे। = We implore.
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