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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 40/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒भि द्यु॒म्नानि॑ व॒निन॒ इन्द्रं॑ सचन्ते॒ अक्षि॑ता। पी॒त्वी सोम॑स्य वावृधे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । द्यु॒म्नानि॑ । व॒निनः॑ । इन्द्र॑म् । स॒च॒न्ते॒ । अक्षि॑ता । पी॒त्वी । सोम॑स्य । व॒वृ॒धे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि द्युम्नानि वनिन इन्द्रं सचन्ते अक्षिता। पीत्वी सोमस्य वावृधे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। द्युम्नानि। वनिनः। इन्द्रम्। सचन्ते। अक्षिता। पीत्वी। सोमस्य। ववृधे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 40; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे राजन् ! यथा वनिनोऽक्षिता द्युम्नान्यभीन्द्रं सचन्ते यथाऽहं सोमस्य पीत्वी वावृधे तथा त्वमाचर ॥७॥

    पदार्थः

    (अभि) आभिमुख्ये (द्युम्नानि) यशांसि जलान्यन्नानि धनानि वा (वनिनः) याच्ञावन्तः (इन्द्रम्) ऐश्वर्य्यकरम् (सचन्ते) सम्बध्नन्ति (अक्षिता) क्षयरहितानि (पीत्वी) (सोमस्य) ओषध्यैश्वर्य्यस्य योगेन (वावृधे) वर्धते ॥७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सर्वैर्मनुष्यैर्धर्मयुक्तेन परमपुरुषार्थेनाऽक्षयमैश्वर्यं प्राप्य युक्ताऽऽहारविहारेणाऽऽरोग्यं सम्पाद्य च जगति सुकीर्त्तिर्विस्तारणीया ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे राजन् ! जैसे (वनिनः) माँगनेवाले जन (अक्षिता) नाश से रहित (द्युम्नानि) यशों के (अभि) सन्मुख (इन्द्र) ऐश्वर्य्य करनेवाले का (सचन्ते) सम्बन्ध होते हैं और जैसे मैं (सोमस्य) ओषधिरूप ऐश्वर्य्य के योग से (पीत्वी) पान करके (वावृधे) वृद्धि करूँ, वैसे आप करो ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को चाहिये कि धर्म्मयुक्त अत्यन्त पुरुषार्थ से नहीं नाश होने योग्य ऐश्वर्य्य को प्राप्त होकर नियमित भोजन औऱ विहार से आरोग्य को उत्पन्न करके संसार में उत्तम कीर्त्ति का विस्तार करैं ॥७॥

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    विषय

    सोमरक्षण व सर्वाङ्गीण उन्नति

    पदार्थ

    [१] (वनिनः) = उस सम्भजनीय [उपासनीय] प्रभु के (द्युम्नानि) = द्योतमान, अर्थात् ज्ञानाग्नि को दीप्त करनेवाले अक्षिता सब क्षयों से बचानेवाले ये सोमकण (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को (अभिसचन्ते) = प्राप्त होते हैं। प्रभु इसलिए उपासना के योग्य हैं कि प्रभु हमें उन सोमकणों को प्राप्त कराते हैं, जो कि हमारे जीवनों को ज्योतिर्मय बनाते हैं और हमें सब प्रकार के विनाशों से बचाते हैं। [२] यह इन्द्र [जितेन्द्रिय पुरुष] (सोमस्य पीत्वी) = सोम का पान करके (वावृधे) = अत्यन्त ही वृद्धि को प्राप्त करता है। सोम उसकी सब प्रकार की उन्नतियों का मूल बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से मनुष्य सर्वांगीण उन्नति करनेवाला होता हैं।

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    विषय

    ऐश्वर्यों का पालक इन्द्र, प्रभु, उसकी उपासना।

    भावार्थ

    (वनिनः द्युम्नानि) जिस प्रकार किरणों से युक्त सूर्य के तेज सूर्य को ही प्राप्त होते हैं उसी प्रकार (वनिनः) सेवन करने योग्य ऐश्वर्य के स्वामी पुरुष के (द्युम्नानि) समस्त ऐश्वर्य (इन्द्रं) ऐश्वर्य के रक्षक, भूमि के धारक और शत्रु के नाशक पुरुष को ही (अक्षिता) अक्षय होकर (सचन्ते) प्राप्त होते हैं और वह (सोमस्य पीत्वी) उस ऐश्वर्य वा राष्ट्र का पालन और उपभोग करके (वावृधे) वृद्धि को प्राप्त करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१–४, ६–९ गायत्री। ५ निचृद्गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्व माणसांनी धर्मयुक्त पुरुषार्थाने शाश्वत ऐश्वर्य प्राप्त करावे. नियमित आहार विहाराने आरोग्य संपादन करावे आणि जगात उत्तम कीर्ती पसरवावी. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Seekers and celebrants, serve Indra and pray for honour, excellence and prosperity of imperishable value, and as I drink of the soma of his grace, so he too waxes in divine joy as he accepts our homage.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of duties and merits of the ruler and people is stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! let suppliants and beggars be united with the President (of the council of ministers) who possesses undecaying glory, food and wealth. He gives much wealth. As I grow in vigor by taking Soma (Juice of invigorating herbs) and acquire wealth, so you should also do.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of all men to gain good reputation in the world by acquiring undecaying wealth with righteous industriousness and by maintaining health through regular food and walk etc.

    Foot Notes

    (द्युम्नानि ) यशांसि जलान्यन्नानि धनानि वा । = द्युम्नं द्योतते यशो वा अन्नं वेति NKT 5, 15 ) यास्काचार्य । द्युम्नमिति धननाम (N.G. 2,10) Good reputation, food or wealth. (वनिनः) यान्चावन्तः = Suppliants.

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