ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 43/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ या॑हि पू॒र्वीरति॑ चर्ष॒णीराँ अ॒र्य आ॒शिष॒ उप॑ नो॒ हरि॑भ्याम्। इ॒मा हि त्वा॑ म॒तयः॒ स्तोम॑तष्टा॒ इन्द्र॒ हव॑न्ते स॒ख्यं जु॑षा॒णाः॥
स्वर सहित पद पाठआ । या॒हि॒ । पू॒र्वीः । अति॑ । च॒र्ष॒णीः । आ । अ॒र्यः । आ॒ऽशिषः॑ । उप॑ । नः॒ । हरि॑ऽभ्याम् । इ॒माः । हि । त्वा॒ । म॒तयः॑ । स्तोम॑ऽतष्टाः । इन्द्र॑ । हव॑न्ते । स॒ख्यम् । जु॒षा॒णाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ याहि पूर्वीरति चर्षणीराँ अर्य आशिष उप नो हरिभ्याम्। इमा हि त्वा मतयः स्तोमतष्टा इन्द्र हवन्ते सख्यं जुषाणाः॥
स्वर रहित पद पाठआ। याहि। पूर्वीः। अति। चर्षणीः। आ। अर्यः। आऽशिषः। उप। नः। हरिऽभ्याम्। इमाः। हि। त्वा। मतयः। स्तोमऽतष्टाः। इन्द्र। हवन्ते। सख्यम्। जुषाणाः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 43; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मित्रतागुणविषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र ! या इमाः स्तोमतष्टाः सख्यं जुषाणा मतयस्त्वाऽऽहवन्ते ताभिः सह नोऽस्मानायाहि। यथार्य्यश्चर्षणीः प्राप्याऽऽशिष उपलभते तथा ताः पूर्वीर्हि हरिभ्यामत्यायाहि ॥२॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (याहि) गच्छ (पूर्वीः) पूर्वं भूताः (अति) (चर्षणीः) मनुष्यादिप्रजाः (आ) (अर्य्यः) स्वामी (आशिषः) आशीर्वादान् (उप) (नः) अस्मान् (हरिभ्याम्) वाय्वग्नीभ्याम् (इमाः) वर्त्तमानाः (हि) यतः (त्वा) त्वाम् (मतयः) प्रज्ञाः (स्तोमतष्टाः) विस्तृतस्तुतयः (इन्द्र) बह्वैश्वर्यप्रद (हवन्ते) आददति (सख्यम्) मित्रत्वम् (जुषाणाः) सेवमानाः ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यया प्रज्ञया सर्वैः सह मित्रता स्यात्तया युक्ताः सन्तः सर्वाशिषः प्राप्य सुखं सततं प्राप्नुत ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब मित्रता के गुण के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (इन्द्र) बहुत ऐश्वर्य्यों के देनेवाले ! जो (इमाः) इन वर्त्तमान (स्तोमतष्टाः) विस्तारयुक्त स्तुतियों से विशिष्ट और (सख्यम्) मित्रता का (जुषाणाः) सेवन करती हुई (मतयः) बुद्धियाँ (त्वा) आपको (आ, हवन्ते) ग्रहण करती हैं उनके साथ (नः) हम लोगों को (आ) सब प्रकार (याहि) प्राप्त हूजिये, जिस प्रकार (अर्य्यः) स्वामी (चर्षणीः) मनुष्य आदि प्रजाओं को प्राप्त होकर (आशिषः) आशीर्वादों को प्राप्त होता है वैसे उन (पूर्वीः) प्राचीन काल में उत्पन्न हुई आशिषों को (हि) ही (हरिभ्याम्) वायु और अग्नि से (अति, आ) सब ओर से अत्यन्त प्राप्त हूजिये ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जिस बुद्धि से सब लोगों के साथ मित्रता हो, उससे युक्त हुए सबके आशीर्वादों को प्राप्त होकर सुख को निरन्तर प्राप्त होइये ॥२॥
विषय
श्रमशीलता द्वारा पालन व पूरण
पदार्थ
[१] (पूर्वी:) = अपना पालन व पूरण करनेवाले (चर्षणी:) = श्रमशील मनुष्यों को (अति) = अतिशयेन (आयाहि) = प्राप्त होइये । प्रभु उन्हें ही प्राप्त होते हैं, जो कि शरीर के दृष्टिकोण से अपना पालन करते हैं- शरीरों को रुग्ण नहीं होने देते और मन के दृष्टिकोण से जो अपना पूरण करते हैं, अर्थात् मन में ईर्ष्या-द्वेष आदि दुर्भावों को उत्पन्न नहीं होने देते। इसी दृष्टिकोण से जो सदा कार्यों में लगे रहते हैं, कभी अनाश्रमी होकर स्थित नहीं होते। [२] (नः) = हमारी (आशिष:) = इच्छा के (अर्य:) = आप ही स्वामी हैं। आप (हरिभ्याम्) = इन इन्द्रियाश्वों के साथ (नः उप) = हमारे समीप प्राप्त होइये । हमें आपकी कृपा से उत्तम ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ प्राप्त हों। [३] (इमाः) = ये (हि) = निश्चय से (स्तोमतष्टाः) = स्तोताओं से की गयी (मतयः) = बुद्धिपूर्वक स्तुतियाँ त्वा तुझे ही प्राप्त होती हैं। हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! ये स्तोता (सख्यं जुषाणाः) = आपकी मित्रता का प्रीतिपूर्वक सेवन करते हुए आपको ही (हवन्ते) = पुकारते हैं।
भावार्थ
भावार्थ – अपना पालन व पूरण करते हुए श्रमशील बनकर हम प्रभुप्राप्ति के पात्र बनते हैं। प्रभु हमारी इच्छाओं को पूर्ण करते हैं, हमें उत्तम इन्द्रियाश्व प्राप्त कराते हैं।
विषय
प्रजा के साथ उत्तम व्यवहार।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यप्रद विद्वन् ! तू (पूर्वी) अपने से पूर्व और समृद्धियों से पूर्ण (चर्षणीः) प्रजाजनों को (अति आयाहि) अतिक्रमण करके, शक्ति आदि में सबसे बढ़कर प्राप्त कर, उनको अपने अधीन कर। तू (अर्यः) स्वामी होकर (हरिभ्याम्) सब प्रजाके दुःखों को हरने वाले विद्वान् और बलवान् पुरुषों द्वारा (नः) हमारे (आशिषः) उत्तम आशा सूचक वचनों, आशीर्वादों वा इच्छाओं को (उप आयाहि) प्राप्त कर। (सख्यम्) तेरी मित्रता को (जुषाणाः) प्रेम से सेवन करते हुए (स्तोमतष्टाः) उत्तम स्तुति-वचनों से परिष्कृत (इमा हि) ये (मतयः) मननशील विदुषी प्रजाएं और उनकी सभाएं (त्वा हवन्ते) तुझे पुकारें, आदरपूर्वक आमन्त्रित करें। अध्यात्म में—(चर्षणीः) ज्ञानेन्द्रिय गण। (मतयः) प्रजाएं और स्तुतियें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ३ विराट् पङ्क्ति। २, ४, ६ निचृत्त्रिष्टुप्। ५ भुरिक् त्रिष्टुप्। ७, ८ त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! ज्या बुद्धीने सर्वांबरोबर मैत्री होईल व आशीर्वाद मिळतील असे वागून निरंतर सुख प्राप्त करा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord and leader of the nation, come to us across the multitude of people by your chariot of horse power to receive our blessings of old and our good wishes. These worshipful people all with songs of adoration invoke and invite you, they love to be friends with you.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of friends are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! come to us with those praiseworthy intellects who accept you propitiating your friendship. As a king receives benedictions or blessings from the mature people, reach them with the help of air and energy properly applied in your vehicle.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! enjoy happiness endowed with that intellect which makes all people friend. Get the blessings of all and be happy.
Foot Notes
(चर्षणी:) मनुष्या दिप्रजाः। = People. (हरिभ्याम्) वाय्वग्नीभ्याम् = With air and fire. (स्तोमतष्टाः) विस्तृतस्तुतय: = Full of much praise.
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