ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 52/ मन्त्र 3
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
पु॒रो॒ळाशं॑ च नो॒ घसो॑ जो॒षया॑से॒ गिर॑श्च नः। व॒धू॒युरि॑व॒ योष॑णाम्॥
स्वर सहित पद पाठपु॒रो॒ळास॑म् । च॒ । नः॒ । घसः॑ । जो॒षया॑से । गिरः॑ । च॒ । नः॒ । व॒धू॒युःऽइ॑व । योष॑णाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरोळाशं च नो घसो जोषयासे गिरश्च नः। वधूयुरिव योषणाम्॥
स्वर रहित पद पाठपुरोळासम्। च। नः। घसः। जोषयासे। गिरः। च। नः। वधूयुःऽइव। योषणाम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 52; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र ! राजँस्त्वं नः पुरोळाशं घसोऽस्मान् भोजय च। योषणां वधूयुरिव नो जोषयासे वयं तव च गिरो जोषयेम ॥३॥
पदार्थः
(पुरोळाशम्) पुरस्ताद्दातुं योग्यम् (च) (नः) अस्माकम् (घसः) भक्षय (जोषयासे) सेवयस्व (गिरः) वाचः (च) (नः) अस्माकम् (वधूयुरिव) यथाऽऽत्मनो वधूमिच्छुः (योषणाम्) स्वस्त्रियम् ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। राजप्रजाजनाः परस्परैश्वर्य्यं स्वकीयमेव मन्येरन्। यथा स्त्रीकामः प्रियां भार्य्यां प्राप्याऽऽनन्दति तथैव राजा धार्मिकीः प्रजा लब्ध्वा सततं हर्षेत् ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे राजन् ! आप (नः) हम लोगों के (पुरोळाशम्) प्रथम देने के योग्य का (घसः) भक्षण करो और हम लोगों के लिये भक्षण कराओ (च) और (योषणाम्) अपनी स्त्री को (वधूयुरिव) अपनी स्त्री विषयिणी इच्छा करनेवाले के सदृश (नः) हम लोगों की (जोषयासे) सेवा करो (च) और हम लोग आपकी (गिरः) वाणियों का (जोषयेम) सेवन करैं ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजा और प्रजाजन आपस के ऐश्वर्य्य को अपना ही समझें और जैसे स्त्री की कामना करनेवाला पुरुष प्रिया स्त्री को प्राप्त होकर आनन्दित होता है, वैसे ही राजा धर्म करनेवाली प्रजाओं को प्राप्त कर निरन्तर प्रसन्न होवें ॥३॥
विषय
पुरोडाश का भक्षण + वेदवाणियों का सेवन
पदार्थ
[१] प्रभु कहते हैं कि हे जीव ! तू (नः) = हमारे इस (पुरोडाशम्) = [पुरः दाश्यते यज्ञार्थम्] यज्ञशेष का (घस:) = भक्षण कर, (च) = और (न:) = हमारी (गिरः) = इन वेदवाणियों का ज्ञानवाणियों का (जोषयासे) = प्रीतिपूर्वक सेवन कर। [२] वेदवाणियों का तू इस तरह प्रेम से सेवन करनेवाला हो (इव) = जैसे कि (वधूयुः) = वधू की कामनावाला पुरुष (योषणाम्) = अपनी पत्नी का प्रेमपूर्वक ग्रहण करता है। वेदवाणी हमें पत्नी तुल्य प्रिय हो, वेदवाणी से हमारा परिणय हो ।
भावार्थ
भावार्थ- हम यज्ञशेष का सेवन करें और वेदवाणी की उपासना करें। सात्त्विक भोजन हमें ज्ञान की रुचिवाला करे ।
विषय
आदर पूर्वक प्राप्त भोजन खाने का उपदेश।
भावार्थ
(वधूयुः) वधू अर्थात् स्त्री का कामना करने वाला, स्त्री का स्वामी (इव) जिस प्रकार (पुरोडाशं योषणाम् घसत् जोषयाते च) आदरपूर्वक दान की गई, स्त्री का ही उपभोग करता और उसको प्रेमपूर्वक स्वीकार करता है, उसी प्रकार हे ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! तू (नः) हमारे (पुरोडाशम्) आदरपूर्वक दिये अन्नादि ऐश्वर्य को (घसः) अन्नवत् उपभोग कर और (नः) हमें और हमारी (गिरः च) वाणियों को (जोषयासे) प्रेमपूर्वक स्वीकार कर। राजा की प्रजा ही, पति की पत्नी के समान है यह बात मन्त्र से लक्षित है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ३, ४ गायत्री। २ निचृद्-गायत्री। ६ जगती। ५, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. राजा व प्रजा यांनी आपसातील ऐश्वर्य आपलेच समजावे. जशी स्त्रीची कामना करणारा पुरुष प्रिय स्त्रीला प्राप्त करून आनंदित होतो तसेच राजाने धार्मिक प्रजेबरोबर सतत प्रसन्न राहावे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Accept and eat the purodasha and cherish the voices of exhortation offered by us like one impassioned for the love of his wife.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the rulers are highlighted.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (king) ! accept good articles, rotis. ghee etc. and invite us to dine with you. Derive enjoyment from our praises and presents, like a lover from his beloved wife.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The king and the people should regard all property belonging to them as joint and common wealth. As a man desirous of getting a wife is joyous after getting her, in the same manner, a king should always feel delighted by getting ideal subjects.
Foot Notes
(पुरोडाशम् ) पुरस्ताद्दातुं योग्यम् = That which is offered beforehand. Here it mostly means cake and butter etc. (जुषस्व ) सेबस्व। = Accept lovingly and make us to do so. (योषणाम् ) स्वस्त्रियम् = One's wife.
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