ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 52/ मन्त्र 5
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
माध्य॑न्दिनस्य॒ सव॑नस्य धा॒नाः पु॑रो॒ळाश॑मिन्द्र कृष्वे॒ह चारु॑म्। प्र यत्स्तो॒ता ज॑रि॒ता तूर्ण्य॑र्थो वृषा॒यमा॑ण॒ उप॑ गी॒र्भिरीट्टे॑॥
स्वर सहित पद पाठमाध्य॑न्दिनस्य । सव॑नस्य । धा॒नाः । पु॒रो॒ळास॑म् । इ॒न्द्र॒ । कृ॒ष्व॒ । इ॒ह । चारु॑म् । प्र । यत् । स्तो॒ता । ज॒रि॒ता । तूर्णि॑ऽअर्थः । वृ॒ष॒ऽयमा॑णः । उप॑ । गीः॒ऽभिः । ईट्टे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
माध्यन्दिनस्य सवनस्य धानाः पुरोळाशमिन्द्र कृष्वेह चारुम्। प्र यत्स्तोता जरिता तूर्ण्यर्थो वृषायमाण उप गीर्भिरीट्टे॥
स्वर रहित पद पाठमाध्यन्दिनस्य। सवनस्य। धानाः। पुरोळासम्। इन्द्र। कृष्व। इह। चारुम्। प्र। यत्। स्तोता। जरिता। तूर्णिऽअर्थः। वृषऽयमाणः। उप। गीःऽभिः। ईट्टे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 52; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र ! त्वं माध्यन्दिनस्य सवनस्य मध्ये या धानाश्चारुं पुरोडाशं त्वमिह कृष्व। यद्यो वृषायमाणस्तूर्ण्यर्थो जरिता स्तोता गीर्भिः प्रोपेट्टे स तव सत्कर्त्तव्यो भवेत् ॥५॥
पदार्थः
(माध्यन्दिनस्य) मध्यन्दिने भवस्य (सवनस्य) कर्मविशेषस्य (धानाः) भृष्टान्नानि (पुरोडाशम्) (इन्द्र) (कृष्व) कुरुष्व (इह) (चारुम्) भक्षणीयं सुन्दरम् (प्र) (यत्) यः (स्तोता) प्रशंसकः (जरिता) भवतः सेवकः (तूर्ण्यर्थः) तूर्णिः सद्योऽर्थो यस्य सः (वृषायमाणः) वृषं बलं कुर्वाणः (उप) (गीर्भिः) (ईट्टे) ऐश्वर्य्यवान् भवेत् ॥५॥
भावार्थः
हे राजजना ऋत्विग्वद्राज्यं वर्धयेयुस्तान् राजा सत्कारेण हर्षयेत् ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (इन्द्र) प्रतापयुक्त ! आप (माध्यन्दिनस्य) मध्य दिन में होनेवाले (सवनस्य) कर्म विशेष के मध्य में जो (धानाः) भूँजे हुए अन्न और (चारुम्) भक्षण करने योग्य सुन्दर (पुरोडाशम्) अन्न विशेष का आप (इह) इस उत्तम कर्म में (कृष्व) संग्रह कीजिये और (यत्) जो (वृषायमाणः) बल को करनेवाला (तूर्ण्यर्थः) शीघ्र है प्रयोजन जिसका वह (जरिता) आपका सेवाकारी और (स्तोता) प्रशंसा करनेवाला (उप) समीप में (गीर्भिः) वाणियों से (प्र, उप) समीप में (ईट्टे) ऐश्वर्य्यवान् हो, वह आपके सत्कार करने योग्य होवे ॥५॥
भावार्थ
जो राजा के जन ऋत्विजों के सदृश राज्य की वृद्धि करैं, उनको राजा सत्कार से प्रसन्न करे ॥५॥
विषय
माध्यन्दिन सवन में
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (माध्यन्दिनस्य सवनस्य) = जीवन के पच्चीस से अड़सठ वर्ष तक के माध्यन्दिन सवन के (धाना:) = धारण करनेवाले (पुरोडाशम्) = [पुर: दाश्यते यज्ञार्थम्] यज्ञशेष को इह यहाँ (चारुं कृष्व) = [चर भक्षणे] भोजन बना । तू इस गृहस्थ के समय में यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाला बन । यह यज्ञशेष अमृत है, यह तेरा उत्तमता से धारण करेगा। [२] इस माध्यन्दिन सवन में पुरोडाश का ही-यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाला (यत्) = जब होता है, तो यह स्तोता- प्रभु का स्तवन करनेवाला, (जरिता) = वासनाओं को जीर्ण करनेवाला, (तूर्ण्यर्थः) = शीघ्रता से कार्यों को करनेवाला, (वृषायमाणः) = शक्तिशाली की तरह आचरण करता हुआ (गीर्भिः) = स्तुतिवाणियों से (प्र उप ईट्टे) = अत्यन्त ही स्तवन करता है।
भावार्थ
भावार्थ- गृहस्थ का समय ही जीवन का माध्यन्दिन सवन है। इसमें यज्ञशेष का सेवन ही मुख्य धारणात्मक कर्म है। यज्ञशेष का सेवन करता हुआ गृहस्थ प्रभु का स्तोता बने। यही वासनाओं को जीर्ण करने का मार्ग है।
विषय
आदर पूर्वक प्राप्त भोजन खाने का उपदेश।
भावार्थ
(यत्) जब (स्तोता) उत्तम विद्वान् (जरिता) उपदेष्टा (तूर्ण्यर्थः) शीघ्र ही अपने अभिप्राय को प्रकट करनेहारा होकर (वृषायमाणः) बलवान् पुरुष के समान वा वर्षणशील मेघ के समान ज्ञान प्रदान करता हुआ (गीर्भिः) उत्तम वेदवाणियों द्वारा (उप ईट्टे) सब को उपदेश करे तब तू भी हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (माध्यन्दिनस्य) दिन के मध्यकाल के समान प्रखर, तीक्ष्ण तेज से युक्त समय पर होने वाले (सवनस्य) शासन और ऐश्वर्य को (धानाः) धारण और पोषण करनेवाली प्रजाओं और अधीन धारित पोषित सेनाओं को और (पुरोडाशम्) आगे दान मानपूर्वक दिये गये अन्न या राष्ट्र-भाग को (इह) इस राष्ट्र में (चारुम्) उत्तम (कृष्व) कर। इति सप्तदशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ३, ४ गायत्री। २ निचृद्-गायत्री। ६ जगती। ५, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे राजजन ऋत्विजांप्रमाणे राज्याची वृद्धी करतात त्यांचा राजाने सत्कार करून प्रसन्न करावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of light and power, accept, enjoy and sanctify the taste and joy of the yajnic rice and pudding of the mid-day session of the yajnic business of life which the singer, celebrant and generous devotee eager for the success of his endeavour profusely offers in worship and homage to you with words of love and faith.
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