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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 52/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    तृ॒तीये॑ धा॒नाः सव॑ने पुरुष्टुत पुरो॒ळाश॒माहु॑तं मामहस्व नः। ऋ॒भु॒मन्तं॒ वाज॑वन्तं त्वा कवे॒ प्रय॑स्वन्त॒ उप॑ शिक्षेम धी॒तिभिः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तृ॒तीये॑ । धा॒नाः । सव॑ने । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । पु॒रो॒ळाश॑म् । आऽहु॑तम् । म॒म॒ह॒स्व॒ । नः॒ । ऋ॒भु॒ऽमन्त॑म् । वाज॑ऽवन्तम् । त्वा॒ । क॒वे॒ । प्रय॑स्वन्तः । उप॑ । शि॒क्षे॒म॒ । धी॒तिऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तृतीये धानाः सवने पुरुष्टुत पुरोळाशमाहुतं मामहस्व नः। ऋभुमन्तं वाजवन्तं त्वा कवे प्रयस्वन्त उप शिक्षेम धीतिभिः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तृतीये। धानाः। सवने। पुरुऽस्तुत। पुरोळाशम्। आऽहुतम्। ममहस्व। नः। ऋभुऽमन्तम्। वाजऽवन्तम्। त्वा। कवे। प्रयस्वन्तः। उप। शिक्षेम। धीतिऽभिः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 52; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाऽध्यापकविषयमाह।

    अन्वयः

    हे पुरुष्टुत कवे ! प्रयस्वन्तो वयं धीतिभिस्तृतीये सवने पुरोळाशं धाना ऋभुमन्तं वाजवन्तमाहुतं त्वोपशिक्षेम स त्वं नो मामहस्व ॥६॥

    पदार्थः

    (तृतीये) त्रयाणां पूरके (धानाः) अग्निना भृष्टाऽन्नविशेषाः (सवने) सायंकाले कर्त्तव्ये कर्मणि (पुरुष्टुत) बहुभिः प्रशंसित (पुरोळाशम्) सुसंस्कृतान्नविशेषम् (आहुतम्) कृताऽऽह्वानम् (मामहस्व) भृशं सत्कुरु (नः) अस्मान् (ऋभुमन्तम्) प्रशस्ता ऋभवो मेधाविनो विद्यन्ते यस्य तम् (वाजवन्तम्) वाजाः शुष्कान्नविशेषा विद्यन्ते यस्य तम् (त्वा) त्वाम् (कवे) विद्वन् (प्रयस्वन्तः) प्रयतमानाः (उप) (शिक्षेम) (धीतिभिः) अङ्गुलीभिर्निर्दिष्टैर्वचनार्थैः ॥६॥

    भावार्थः

    यथा विद्वांस ऋत्विजो यजमानादिभ्यो यज्ञकृत्यं शिक्षन्ति तथैव सर्वा विद्या हस्तादिक्रियया प्रत्यक्षीकृत्याऽन्यान् प्रत्यध्यापकाः साक्षात्कारयन्तु ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब अध्यापक के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (पुरुष्टुत) बहुतों से प्रशंसित (कवे) विद्वान् पुरुष ! (प्रयस्वन्तः) प्रयत्न करते हुए हम लोग (धीतिभिः) अङ्गुलियों से दिखाये गये वचनार्थों से (तृतीये) तीन की पूर्त्ति करनेवाले (सवने) सायंकाल में करने योग्य कर्म में (पुरोळाशम्) उत्तम संस्कारयुक्त अन्न विशेष और (धानाः) अग्नि से भूँजे गये अन्न विशेषों के तुल्य (ऋभुमन्तम्) श्रेष्ठ बुद्धिमानों से युक्त (वाजवन्तम्) शुष्क अन्न विशेष विद्यमान जिसके उस (आहुतम्) पुकारे गये (त्वा) आपको (उप, शिक्षेम) शिक्षा देवैं वह आप (नः) हम लोगों का (मामहस्व) अत्यन्त सत्कार करिये ॥६॥

    भावार्थ

    जैसे विद्वान् यज्ञ करनेवाले यजमानों के लिये यज्ञ कृत्य की शिक्षा देते हैं, वैसे ही संपूर्ण विद्याओं का हस्त आदि क्रियाओं से प्रत्यक्ष अर्थात् अभ्यास करके अन्य जनों के लिये अध्यापक लोग प्रत्यक्ष करावें ॥६॥

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    विषय

    तृतीय सवन में

    पदार्थ

    [१] हे (पुरुष्टुत) = [पुरु स्तुतं यस्य] प्रभु का अत्यन्त स्तवन करनेवाले जीव! तू (तृतीये सवने) = उनहत्तर से एक सौ सोलह तक अड़तालीस वर्ष के इस तृतीय सवन में (धाना:) = धारण करनेवाले, (नः) = हमारे लिए [प्रभु के लिए] (आहुतम्) = दिये गये, (पुरोडाशम्) = इस यज्ञशेष को (मामहस्व) = पूजित कर-आदर दे। तू जीवन के तृतीय सवन में भी यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाला हो, यह यज्ञशेष तुझे इस सायन्तन सवन में भी धारण करनेवाला होगा । [२] जीव प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे (कवे) = कान्तप्रज्ञ प्रभो ! (ऋभुमन्तम्) = अत्यन्त दीप्तिवाले, (वाजवन्तम्) = शक्तिशाली (त्वा) = तुझे (प्रयस्वन्तः) = उत्तम अन्नों का सेवन करनेवाले होते हुए हम (धीतिभिः) = ध्यानों द्वारा (उपशिक्षेम) = समीप पूजित करनेवाले हों। वस्तुतः उत्तम अन्नों का सेवन व प्रभु-पूजन हमें भी शक्तिशाली व दीप्तिवाला बनाता है। उत्तम अन्न शक्ति को देते हैं और प्रभु-पूजन दीप्ति को प्राप्त कराता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - जीवन के सन्ध्याकाल में भी हम यज्ञशेष का सेवन करनेवाले हों। उत्तम अन्नों का सेवन करते हुए प्रभु-पूजन की वृत्तिवाले हों।

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    विषय

    तीन आश्रम और तीन सवनों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुष ! हे नायक ! तू (तृतीये) तीसरे सर्वोत्तम (सवने) शासन में हे (पुरुष्टुत) बहुतों से प्रशंसा करने योग्य ! सायंकाल में अग्नि जिस प्रकार दिये पुरोडाश को स्वीकार करता है उसी प्रकार (नः) हमारे (आहुतिम्) आदर पूर्वक दिये गये (पुरोडाशम्) अन्न आदि को (मामहस्व) आदर पूर्वक स्वीकार कर। और (धानाः) धारण करने योग्य प्रजाओं को भी अपना। हे (कवे) विद्वान् दीर्घदर्शिन् ! हम लोग (प्रयस्वन्तः) उत्तम अन्नवान् होकर वा प्रयत्नशील होकर (ऋभुमन्तम्) सत्य ज्ञान और सामर्थ्य से प्रकाशित होने वाले शिष्यों और सहयोगियों के स्वामी, (वाजवन्तं) ज्ञानवान् तुझको (उप) प्राप्त होकर हम (धीतिभिः) उत्तम स्तुतियों से (शिक्षेम) ज्ञानैश्वर्य की याचना करें। (४-६) तीनों मन्त्रों में तीन सवन जीवन के तीन काल हैं। ब्रह्मचर्यकाल, यौवनकाल और वार्धक्यकाल। तीन आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ इनमें क्रतु अर्थात् प्रज्ञा को बढ़ावे। इनमें वृष वीर्य सेक्ता होकर अर्थ सम्पादन कर विद्वानों से संग करे, तीसरे में प्राणवान् ज्ञानवान् होकर अन्यों को शिक्षा दे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ३, ४ गायत्री। २ निचृद्-गायत्री। ६ जगती। ५, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे विद्वान ऋत्विज यज्ञ करणाऱ्या यजमानासाठी यज्ञकर्माचे शिक्षण देतात तसे अध्यापकांनी संपूर्ण विद्यांचे प्रात्यक्षिक करून इतरांसाठी प्रत्यक्ष करवावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O lord of knowledge and poetic imagination admired and revered by many, in the third and closing session of the day’s programme of yajnic action, accept, enjoy and exalt the value of our gift of rice and pudding which we, doing our best in thought and action, bring and offer to you, lord in command of food, energy, knowledge and expertise of the art of living.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duty of a teacher is stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O wise men ! praised by many, let us be industrious, and teach you in the evening session of the Yaina in a practical manner with our fingers. You are useful, like the barley rotis etc., and have many wisemen associated with you and possess various kinds of food materials. You should duly respect us like your teachers.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the learned priests teach the meaning and significance of the various acts of the Yajna, in the same manner, it is the duty of the teachers to teach in various science and arts the practical manner, so that the pupils may visualize and grasp them thoroughly.

    Foot Notes

    (मामहस्व ) भृशं सत्कुरु = Revere respect (ऋभुमन्तम् ) प्रशस्ता ऋभवो मेधाविनो विद्यन्ते यस्य तम् । ऋभुरिति मेधाविनाम (N.G. 3,15)। = He with whom many very wisemen are associated with (वाजवन्तम्) वाजाः शुष्कान्नविशेषा विन्द्यते यस्य तम् । वाज इत्यन्ननाम (N.G. 2, 7 ) = He who possesses various kinds of food materials.

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