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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 52/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पू॒ष॒ण्वते॑ ते चकृमा कर॒म्भं हरि॑वते॒ हर्य॑श्वाय धा॒नाः। अ॒पू॒पम॑द्धि॒ सग॑णो म॒रुद्भिः॒ सोमं॑ पिब वृत्र॒हा शू॑र वि॒द्वान्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पू॒ष॒ण्ऽवते॑ । ते॒ । च॒कृ॒म॒ । क॒र॒म्भम् । हरि॑ऽवते । हरि॑ऽअश्वाय । धा॒नाः । अ॒पू॒पम् । अ॒द्धि॒ । सऽग॑णः । म॒रुत्ऽभिः॑ । सोम॑म् । पि॒ब॒ । वृ॒त्र॒ऽहा । शू॒र॒ । वि॒द्वान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पूषण्वते ते चकृमा करम्भं हरिवते हर्यश्वाय धानाः। अपूपमद्धि सगणो मरुद्भिः सोमं पिब वृत्रहा शूर विद्वान्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पूषण्ऽवते। ते। चकृम। करम्भम्। हरिऽवते। हरिऽअश्वाय। धानाः। अपूपम्। अद्धि। सऽगणः। मरुत्ऽभिः। सोमम्। पिब। वृत्रऽहा। शूर। विद्वान्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 52; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे शूर ! यथा वृत्रहा विद्वान् पूषण्वते हरिवते हर्य्यश्वाय ते करम्भं धाना अपूपं दद्यात्तं सगणस्त्वं मरुद्भिः सहाऽद्धि सोमं पिब। तथैव वयं त्वदर्थं चकृम ॥७॥

    पदार्थः

    (पूषण्वते) बहवः पूषणः पुष्टिकरा विद्यन्ते यस्य तस्मै (ते) तुभ्यम् (चकृम) कुर्य्याम। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (करम्भम्) दध्यादियुक्तं भक्ष्यविशेषम् (हरिवते) प्रशस्ताऽश्वादियुक्ताय (हर्य्यश्वाय) हरणशीला आशुगामिनोऽश्वास्तुरङ्गा अग्न्यादयो वा विद्यन्ते यस्य तस्मै (धानाः) (अपूपम्) (अद्धि) भक्ष (सगणः) गणेन सह वर्त्तमानः (मरुद्भिः) उत्तमैर्मनुष्यैः सह (सोमम्) उत्तमौषधिरसम् (पिब) (वृत्रहा) प्राप्तधनः (शूर) दुष्टानां हिंसक (विद्वान्) ॥७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्याविनयसंपन्नास्तेऽर्हाय राज्ञ उत्तमान् पदार्थान् दत्वैनं सततं सत्कुर्य्युस्ते राज्ञाऽपि सर्वदा सत्कर्त्तव्याः ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (शूर) दुष्ट पुरुष के नाशकर्त्ता ! जैसे (वृत्रहा) धन से युक्त विद्वान् पुरुष (पूषण्वते) पुष्टि करनेवाले विद्यमान हैं जिसके उस (हरिवते) उत्तम घोड़े आदि से युक्त के तथा (हर्य्यश्वाय) हरणशील और शीघ्र चालवाले घोड़े वा अग्नि आदि विद्यमान हैं जिसके उस (ते) आपके लिये (करम्भम्) दधि आदि से युक्त भोजन करने के पदार्थ विशेष और (धानाः) भूँजे हुए अन्न तथा (अपूपम्) पुआ को देवे उसको (सगणः) समूह के सहित वर्त्तमान आप (मरुद्भिः) उत्तम मनुष्यों के साथ (अद्धि) भक्षण कीजिये और (सोमम्) उत्तम ओषधि के रस को (पिब) पान कीजिये और वैसे ही हम लोग आपके लिये (चकृम) करें ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्या नम्रता से युक्त हैं, वे श्रेष्ठ राजा के लिये उत्तम पदार्थों को देकर इसका निरन्तर सत्कार करें और वे राजा से भी सर्वदा सत्कार के योग्य हैं ॥७॥

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    विषय

    'करम्भ-धाना-अपूप [पुरोडाश]'

    पदार्थ

    [१] (पूषण्वते) = शरीर का उत्तम पोषण करनेवाले (ते) = तेरे लिए (करम्भम्) = दधिमिश्रित सत्तुओं को (चक्रमा) = करते हैं। ये दधिमिश्रित सत्तु तेरा उत्तम पोषण करनेवाले होंगे। [२] (हरिवते) = दुःखों का हरण करनेवाले प्रभु के उपासक, (हर्यश्वाय) = तेजस्वी इन्द्रियाश्वोंवाले तेरे लिए (धाना:) = भुने हुए जौ को करते हैं। भुने हुए जौ तेरी वृत्ति को इतना सात्त्विक बनाएँ कि तू प्रभु का उपासक बने - प्रभु की ही तरह औरों के दुःखों के हरण में प्रवृत्त हो । ये जौ का भोजन तेरी इन्द्रियों को । भी तेजस्वी बनाए। [३] (सगण:) = कर्मेन्द्रिय पञ्चक व ज्ञानेन्द्रिय पञ्चक रूप गणों से युक्त हुआहुआ तू (अपूपम्) = पुरोडाश को-यज्ञशेष रूप अमृत को (अद्धि) = खानेवाला बन । यह अपूप भक्षण तेरी इन्द्रियों को अपवित्र व निर्बल न होने देगा। इसी दृष्टि से सम्भवत: ऐतरेय में 'इन्द्रियमपूपः' [२।१४] ऐसा उल्लेख हुआ है। इन्द्रियों का नाम ही अपूप रख दिया गया है। [४] हे (वृत्रहा) = वासनारूप वृत्र को विनष्ट करनेवाले, शूर सब शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले विद्वान् ज्ञानी पुरुष! तू (मरुद्भिः) = प्राणों के साथ (सोमं पिब) = सोम का पान करनेवाला हो । सोमरक्षण से ही वस्तुतः शूरता व विद्वत्ता प्राप्त होती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- मनुष्य का उत्तम भोजन दधिमिश्रित सत्तु व भुने जौ हैं। इन्हें भी यज्ञशेष के रूप में ही सेवन करना है ।

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    विषय

    बल उत्पन्न करने और अन्न सम्पदा प्राप्त करने का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (शूर) वीर पुरुष ! (पूषण्वते) सब को पुष्ट करने वाली पृथ्वी के स्वामी रूप तेरे लिये हम (करम्भम् चकृम) कर्म सामर्थ्य से युक्त क्षात्रबल का सम्पादन करें। (हरिवते) भूमि निवासी प्रजा, मनुष्यों के स्वामी और (हर्यश्वाय) आशुगामी रथादि और अश्वादि के स्वामी तेरे लिये (धानाः चकृम) राष्ट्र को धारण करने योग्य सेनाओं और ऐश्वर्य युक्त प्रजाओं को भी सुसम्पादित करें। हे शूर ! तू (विद्वान्) विद्वान् और (वृत्रहा) विघ्न नाशक शत्रुहन्ता होकर (सगणः) गणों सहित और (मरुद्भिः सह) विद्वानों, वीरों से युक्त होकर (अपूपं) माल-पुए के समान समृद्ध वा स्नेहयुक्त वा ऐश्वर्यं युक्त (सोमं) राष्ट्र का (पिब) उपभोग कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ३, ४ गायत्री। २ निचृद्-गायत्री। ६ जगती। ५, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे विद्या व नम्रता यांनी युक्त आहेत. त्यांनी श्रेष्ठ राजाचा उत्तम पदार्थांनी निरंतर सत्कार करावा व त्यांचाही राजाकडून सदैव सत्कार झाला पाहिजे. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    We prepare the roasted grain and curds for you, giver of health and nourishment, lord of sunbeams possessing the fastest means of motion. O breaker of the clouds of rain and dispeller of the shades of darkness, heroic brave, master of knowledge, relish the cake and drink the soma with your friends and supporters and commandos of the speed of winds.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a teacher are elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O destroyer of enemies ! the wealthy learned men have many nourishing substances, and are lord of the many horses. They possess speedy steads in the form of electricity etc. the parched or cooked food grains and curds and fried barley. Eat them in the company of your army personnel and good men and drink Soma juice of various herbs and plants. Let us also do the same to you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who are blessed with knowledge and humility should honor a worthy king by offering gifts and edibles (to eat and drink). They should also be always honored by the king.

    Foot Notes

    (हरिवते) प्रशस्ताश्वः दियुक्ताय । (हरयः) हरणशीलाः अश्वाः । = Lord of many horses, speedy horses or electricity. (हर्यश्वाय) हरणशीला आशुगामिनो अश्वास्तुरङ्गा अग्न्यादयो वा विद्यन्ते यस्य तस्मै । = Possessor of speedy steads in the form of electricity (वृत्रहा ) प्राप्तधनः । = वृत्रमिति धननाम ( N. G. 2.10 )। Wealthy.

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