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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 52/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    पु॒रो॒ळाशं॑ सनश्रुत प्रातःसा॒वे जु॑षस्व नः। इन्द्र॒ क्रतु॒र्हि ते॑ बृ॒हन्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒रो॒ळास॑म् । स॒न॒ऽश्रु॒त॒ । प्रा॒तः॒ऽसा॒वे । जु॒ष॒स्व॒ । नः॒ । इन्द्र॑ । क्रतुः॑ । हि । ते॒ । बृ॒हन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरोळाशं सनश्रुत प्रातःसावे जुषस्व नः। इन्द्र क्रतुर्हि ते बृहन्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुरोळासम्। सनऽश्रुत। प्रातःऽसावे। जुषस्व। नः। इन्द्र। क्रतुः। हि। ते। बृहन्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 52; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे सनश्रुतेन्द्र ! हि यतस्ते क्रतुर्बृहन्नस्ति तस्मात्वं प्रातःसावे नः पुरोडाशं जुषस्व ॥४॥

    पदार्थः

    (पुरोडाशम्) सुसंस्कृतमन्नविशेषम् (सनश्रुत) सत्याऽसत्यविवेकिनां सकाशाच्छ्रुतं येन यद्वा सनं सत्यासत्यविभाजकं वचनं श्रुतं येन तत्सम्बुद्धौ (प्रातःसवने) यः प्रातः सूयते निष्पद्यते तस्मिन् (जुषस्व) सेवस्व (नः) अस्माकम् (इन्द्र) विद्यैश्वर्य्ययुक्त (क्रतुः) प्रज्ञा कर्म वा (हि) यतः (ते) तव (बृहन्) महान् ॥४॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्येषु यादृशी विद्या शीलता भवेत् तादृश्येव तेषु सत्कृपा कार्या ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (सनश्रुत) सत्य और असत्य के विचारकर्त्ताओं से उत्तम कृत्य सुना जिसने ऐसे (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य से युक्त (हि) जिससे (ते) आपकी (क्रतुः) बुद्धि वा कर्म्म (बृहन्) बड़ा है तिससे आप (प्रातःसावे) जो प्रातःकाल में किया जाय उसमें (नः) हम लोगों के (पुरोडाशम्) उत्तम प्रकार संस्कारयुक्त अन्नविशेष का (जुषस्व) सेवन करो ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि जिन पुरुषों में जैसी विद्या और शीलता होवे, वैसी ही उन पर उत्तम कृपा करें ॥४॥

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    विषय

    प्रज्ञान व शक्तिवर्धन

    पदार्थ

    [१] [सन = Food] हे (सन-श्रुत) = अपने सात्त्विक भोजन के कारण प्रसिद्ध जीव तू (प्रात: सावे) = जीवन के प्रथम चौबीस वर्षरूप प्रातः सवन में (नः) = हमारे इस (पुरोडाशम्) = [पुर: दाशते यज्ञार्थम्] यज्ञशेषरूप अमृत का ही (जुषस्व) = प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाला हो। [२] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! इस प्रकार यज्ञशेष का सेवन करने से (हि) = निश्चयपूर्वक (ते) = तेरा (क्रतुः) = प्रज्ञान व बल (बृहन्) = महान् होता है। यज्ञशेष का सेवन मस्तिष्क में प्रज्ञान को व शरीर में शक्ति को स्थापित करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम यज्ञशेष का सेवन करें। इससे हमारी बुद्धि व बल दोनों बढ़ेंगे।

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    विषय

    आदर पूर्वक प्राप्त भोजन खाने का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (सनश्रुत) ‘सन’ अर्थात् सत्यासत्य के विवेक करने वाले पुरुषों से शास्त्र-ज्ञान के श्रवण करने वाले व सत्यासत्य विवेचक ज्ञान का श्रवण करने वाले (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् ! तू (प्रातः-सावे) प्रातः सवन-काल में अर्थात अपने शासन के प्रारम्भ काल में (नः) हमारे (पुरोडाशम्) आदर पूर्वक दिये ऐश्वर्य को (जुषस्व) प्रेम पूर्वक स्वीकार कर। (ते) तेरा (क्रतुः) प्रजा बल और कर्म सामर्थ्य (बृहन् ) बहुत बड़ा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ३, ४ गायत्री। २ निचृद्-गायत्री। ६ जगती। ५, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या पुरुषांमध्ये जशी विद्या व शील असेल तशी माणसांनी त्यांच्यावर कृपा करावी. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of universal word of wisdom and discrimination, accept and enjoy our purodasha offered in the morning session of yajna. Great is your word and light and creative action of cosmic dimensions.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of duties of the rulers is stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Indra (endowed with the wealth of wisdom) who have received education from discreet persons, and your intellect and deeds, they are indeed great. Therefore, accept as a mark of respect our well cooked food consisting of roti and ghee offered in the morning.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should show respect and kindness to the people, according to their ability and character.

    Foot Notes

    (सनश्रुत) सत्यासत्यविवेकिनां सकाशाच्छुतं येन यद्वा सत्यामत्यविभाजकं वचनं श्रुतं येन तत्सम्बुद्धौ। = He who has heard or received education from the persons who have power to distinguish between truth and untruth. (इन्द्र) विद्यैश्वर्ययुक्तः। Endowed with the wealth of wisdom.

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