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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 56/ मन्त्र 4
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒भीक॑ आसां पद॒वीर॑बोध्यादि॒त्याना॑मह्वे॒ चारु॒ नाम॑। आप॑श्चिदस्मा अरमन्त दे॒वीः पृथ॒ग्व्रज॑न्तीः॒ परि॑ षीमवृञ्जन्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भीके॑ । आ॒सा॒म् । प॒द॒ऽवीः । अ॒बो॒धि॒ । आ॒दि॒त्याना॑म् । अ॒ह्वे॒ । चारु॑ । नाम॑ । आपः॑ । चि॒त् । अ॒स्मै॒ । अ॒र॒म॒न्त॒ । दे॒वीः । पृथ॑क् । व्रज॑न्तीः । परि॑ । सी॒म् । अ॒वृ॒ञ्ज॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभीक आसां पदवीरबोध्यादित्यानामह्वे चारु नाम। आपश्चिदस्मा अरमन्त देवीः पृथग्व्रजन्तीः परि षीमवृञ्जन्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभीके। आसाम्। पदऽवीः। अबोधि। आदित्यानाम्। अह्वे। चारु। नाम। आपः। चित्। अस्मै। अरमन्त। देवीः। पृथक्। व्रजन्तीः। परि। सीम्। अवृञ्जन्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 56; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरीश्वरगुणानाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या येन जगदीश्वरेणासामादित्यानां च पदवीरबोधि यस्य चारु नाम यस्मिँश्चिद् व्रजन्तीर्देवीरापः सीम् पृथगरमन्त पर्यवृञ्जन्नस्मा अभीके स्थितोऽहमिममह्वे तमेव यूयमप्यह्वायत ॥४॥

    पदार्थः

    (अभीके) कमितरि (आसाम्) सनातनीनां प्रजानाम् (पदवीः) यः पदानि वेति व्याप्नोति (अबोधि) बुध्यताम् (आदित्यानाम्) सूर्यादीनां मासानां वा (अह्वे) आह्वयेयम् (चारु) श्रेष्ठम् (नाम) संज्ञा (आपः) प्राणाः (चित्) अपि (अस्मै) (अरमन्त) रमन्ते (देवीः) देदीप्यमानाः (पृथक्) (व्रजन्तीः) गच्छन्तीः (परि) (सीम्) परिग्रहे (अवृञ्जन्) वृञ्जन्ति ॥४॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यः सर्वेषां सुखं कामयते यस्मिन्त्सर्वे जीवा लोकादयश्च पदार्थाः पृथक् पृथक् क्रीडन्ति गृह्णन्ति त्यजन्ति च तं विहायाऽन्यं कञ्चिदपि मोपाध्वम् ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर भी ईश्वर के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जिस जगदीश्वर ने (आसाम्) इन अनादि काल से सिद्ध प्रजाओं और (आदित्यानाम्) सूर्य्यादिकों वा मास आदि समय विभागों के (पदवीः) पदों को जो व्याप्त होता वह (अबोधि) जाना हुआ है और जिसका (चारु) अत्यन्त श्रेष्ठ (नाम) नाम जिसमें (चित्) निश्चित (व्रजन्तीः) जाते हुए (देवीः) प्रकाशमान (आपः) प्राण (सीम्) परिग्रह करने में (पृथक्) अलग-अलग (परि, अरमन्त) सब ओर से रमते और (अवृञ्जन्) त्याग करते हैं (अस्मै) इसके लिये (अभीके) कामना करनेवाले में वर्त्तमान मैं इस ईश्वर को (अह्वे) बुलाता हूँ, उसीको आप लोग भी बुलाओ ॥४॥

    भावार्थ

    हे मनुष्या जो सबके सुख की कामना करता है, जिसमें सब जीव और लोकादि पदार्थ पृथक्-पृथक् क्रीड़ा करते ग्रहण करते और त्याग करते हैं, उसको छोड़ के अन्य किसी की भी मत उपासना करो ॥४॥

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    विषय

    आदित्यों की तीन बातें

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र में 'त्रिपाजस्य' व्यक्ति सब उत्तमताओं का आदान करते हुए आदित्य बनते हैं। (आसाम्) = इन (आदित्यानाम्) = आदित्य-वृत्तिवाले व्यक्तियों को (पदवी:) = [पदानि वेति प्रजनयति] ज्ञानशब्दों को प्राप्त करानेवाला प्रभु (अभीक) = समीप होता है। ये आदित्य प्रभु का सान्निध्य अनुभव करते हैं। [२] इन आदित्यों द्वारा उस प्रभु का चारु नाम सुन्दर नाम (अह्वे) = पुकारा जाता है ये प्रभु के नाम का स्मरण करते हैं। [३] (अस्मै) = इस आदित्य-वृत्तिवाले व्यक्ति के लिए (देवी: आय:) = दिव्यगुणोंवाले अथवा रोगकृमियों पर आक्रमण करनेवाले रेतः कणरूप जल (अरमन्त) = रमण करनेवाले होते हैं। वीर्यकण इसके शरीर के अन्दर ही क्रीडा करते हैं। और वे वीर्यकण रूप (आप) जल (पृथग् व्रजन्तीः) = सामान्य क्रम से भिन्न तरीके से जाते हुए, अर्थात् निम्न गतिवाले न होकर ऊर्ध्वगतिवाले होते हुए (सीम्) = निश्चय से (परि अवृञ्जन्) = शरीर में चारों ओर पवित्रता को करनेवाले होते हैं [वृज् - purify]।

    भावार्थ

    भावार्थ– आदित्य-वृत्ति के व्यक्ति [क] प्रभु के समीप निवास करते हैं, [ख] प्रभु के प्रिय नाम का जप करते हैं, [ग] इनके शरीर में रेत: कण ऊर्ध्वगतिवाले होकर पवित्रता का साधन बनते हैं।

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    विषय

    सूर्य, आत्मा, परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (आसाम्) इन समस्त प्रजा और प्रकृति के सूक्ष्म परमाणुओं के बीच (अभीके) अति समीप, उनमें व्यापक रहकर (पदवीः) उनमें गति उत्पन्न करने वाला और जीव प्रजाओं को प्राप्तव्य उत्तमाधम पद प्राप्त कराने वाला तथा (आदित्यानां) सूर्यादि लोकों का भी सञ्चालक परमात्मा मासों के बीच सूर्य के समान ही (अबोधि) जानने योग्य है। मैं उस परमेश्वर के (चारु नाम) सुन्दर नाम का उच्चारण करूं। (अस्मै चित् आपः) सूर्य के कारण जिस प्रकार जलधाराएं मेघ से निकलती हैं उसी प्रकार (अस्मैचित्) इस परमेश्वर के बल से (देवीः आपः) दिव्य गुणों वाली प्रकृति के सूक्ष्म परमाणु (अरमन्त) क्रीड़ा करते, गति करते हैं। और सब प्रजाएं और लोक समूह भी (पृथक्) पृथक् २ अपने २ मार्ग पर (व्रजन्तीः) गमन करते हुए (सीम्) सब प्रकार से उसी परमेश्वर को (परि अवृञ्जन्) आश्रय किये रहती हैं। (२) राजा सब प्रजाओं और तेजस्वी पुरुषों को पदाधिकार देता है। प्रजा उसको उत्तम नाम से पुकारें। सब प्रजाएं (देवीः) उसे चाहती हुईं उसके साथ प्रसन्न रहें। अपने मार्ग पर चलती हुई भी उसका आश्रय करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषयः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट्त्रिष्टुप्। ५, ७ त्रिष्टुप्। २ भुरिक् पंक्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जो सर्वांच्या सुखाची कामना करतो, ज्याच्यात सर्व जीव व लोक इत्यादी पदार्थ पृथक् पृथक् क्रीडा करतात, ग्रहण करतात व त्याग करतात, त्याला सोडून इतर कुणाचीही उपासना करू नका. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Immanent in these stages of the evolution of forms such as stars and living beings, the lord knows them all and I, in love and devotion, invoke and chant his gracious name. The celestial currents of water and energy love to flow for him, each in its separate path, to him and from him.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of God are underlined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    I call upon God, sitting near Him in spirit. He is desirous of our welfare and knows well about these subjects-about the sun and other luminaries and Whose principal name (OM) is charming. By moving in Him, the shining Pranas enjoy bliss exclusively and give up (or rise up above) all evil tendencies. You should also invoke Him.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should not worship any other except One God, Who desires the welfare of all and in Whom all souls and worlds enjoy separate identity take good but give up bad things. He is the upholder of all.

    Foot Notes

    (अभीके) कमितरि = Desirer of the welfare of all.

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