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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 56/ मन्त्र 7
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्रिरा दि॒वः स॑वि॒ता सो॑षवीति॒ राजा॑ना मि॒त्रावरु॑णा सुपा॒णी। आप॑श्चिदस्य॒ रोद॑सी चिदु॒र्वी रत्नं॑ भिक्षन्त सवि॒तुः स॒वाय॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रिः । आ । दि॒वः । स॒वि॒ता । सो॒ष॒वी॒ति॒ । राजा॑ना । मि॒त्रावरु॑णा । सु॒पा॒णी इति॑ सु॒ऽपा॒णी । आपः॑ । चि॒त् । अ॒स्य॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । चि॒त् । उ॒र्वी इति॑ । रत्न॑म् । भि॒क्ष॒न्त॒ । स॒वि॒तुः । स॒वाय॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रिरा दिवः सविता सोषवीति राजाना मित्रावरुणा सुपाणी। आपश्चिदस्य रोदसी चिदुर्वी रत्नं भिक्षन्त सवितुः सवाय॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रिः। आ। दिवः। सविता। सोषवीति। राजाना। मित्रावरुणा। सुपाणी इति सुऽपाणी। आपः। चित्। अस्य। रोदसी इति। चित्। उर्वी इति। रत्नम्। भिक्षन्त। सवितुः। सवाय॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 56; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजप्रस्तावेन विद्वद्विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यस्सविता मित्रावरुणा सुपाणी राजानेव दिवस्त्रिरा सोषवीत्यस्य सवितुः सकाशात्सवायाऽऽपश्चिदुर्वी रोदसी रत्नं चित्सर्वे भिक्षन्त ॥७॥

    पदार्थः

    (त्रिः) (आ) अभिविधौ (दिवः) प्रकाशात् (सविता) प्रेरकोऽन्तर्य्यामी (सोषवीति) भृशं सुवति (राजाना) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमानः (मित्रावरुणा) प्राणोदानवत्सर्वेषां सुहृदौ (सुपाणी) शोभनौ पाणी ययोस्तौ (आपः) प्राणा इव (चित्) इव (अस्य) जगदीश्वरस्य (रोदसी) प्रकाशाप्रकाशे जगती (चित्) अपि (उर्वी) बहुले (रत्नम्) रमणीयं धनम् (भिक्षन्त) याचन्ते (सवितुः) सकलैश्वर्य्यसम्पन्नस्य सकाशात् (सवाय) ऐश्वर्य्याय ॥७॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये राजानः परमेश्वरवद्गुणकर्मस्वभावास्सन्तः प्रजासु वर्त्तन्ते त एव साम्राज्यमसंख्यं धनञ्च लभन्ते ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजप्रस्ताव से विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (सविता) प्रेरणा करनेवाला अन्तर्य्यामी (मित्रावरुणा) प्राण और उदान वायु के सदृश सबके मित्र (सुपाणी) और सुन्दर जिनके हाथ ऐसे (राजाना) विद्या और विनय से प्रकाशमान नरों के समान (दिवः) प्रकाश से (त्रिः, आ, सोषवीति) तीन बार सब ओर से निरन्तर प्रेरणा देता है (अस्य) इस (सवितुः) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्ययुक्त जगदीश्वर के समीप से (सवाय) ऐश्वर्य्य के लिये (आपः) प्राणों के (चित्) सदृश (उर्वी) बहुत (रोदसी) प्रकाशित और अप्रकाशित जगत् और (रत्नम्) सुन्दर धन की (चित्) भी सब लोग (भिक्षन्त) याचना करते हैं ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो राजा लोग परमेश्वर के सदृश गुण-कर्म और स्वभावयुक्त हुए प्रजाओं में वर्त्तमान हैं, वे ही चक्रवर्त्ति राज्य और असङ्ख्य धन को प्राप्त होते हैं ॥७॥

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    विषय

    स्नेह, निष्पापता व उदारता

    पदार्थ

    [१] वह (सविता) = प्रेरक प्रभु (दिवः त्रिः) = दिन में तीन वार (आसोषवीति) = हमारे लिए धनों को प्रेरित करें, अर्थात् हम सदा आवश्यक धनों को अपने जीवन में प्राप्त करनेवाले हों। जीवन का प्रातःकाल प्रथम २४ वर्ष हैं, मध्याह्न अगले ४४ वर्ष हैं तथा सायं अन्तिम ४८ वर्ष हैं। हमें प्रभु इन सब समयों में आवश्यक धन प्राप्त कराते हैं। (राजाना) = ज्ञान से दीप्त होनेवाले, (सुपाणी) = उत्तम हाथों [कर्मों] वाले (मित्रावरुणा) = मित्र और वरुण, सब के साथ स्नेह करनेवाले व द्वेष का निवारण करनेवाले लोग और (आप:) = [आप्लृ व्याप्तौ] व्यापक [उदार] वृत्तिवाले पुरुष (अस्य सवितुः) = इस प्रेरक प्रभु के यज्ञों के लिए (रत्नम्) = रमणीय धनों की (भिक्षन्त) = याचना करते हैं। प्रभु से रमणीय धनों को प्राप्त करके वे यज्ञों में उनका विनियोग करते हैं। [२] (चित्) = निश्चय से (उर्वी रोदसी) = विशाल द्यावापृथिवी उस परमात्मा से ही रत्नों की याचना करते हैं। इन विशाल द्यावापृथिवी में रहनेवाले सब प्राणी प्रभु से ही धनों को प्राप्त करते हैं। प्रभु से प्राप्त धनों द्वारा ही वे यज्ञात्मक कर्मों को करनेवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमें जीवन को यज्ञमय बनाने के लिए धनों को प्राप्त कराते हैं। हम स्नेह की वृत्तिवाले, निष्पाप जीवनवाले व व्यापक [उदार] भावनावाले बनकर यज्ञों में प्रवृत्त होते हैं।

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    विषय

    सूर्य, आत्मा, परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (सविता) सर्वोत्पादक परमेश्वर और राजा (दिवः) ज्ञान-प्रकाश से (राजाना) प्रकाशमान, (मित्रावरुणा) स्नेही और परस्पर वरण करने वाले (सुपाणी) उत्तम हाथ, व्यवहार और वाणी वाले स्त्री पुरुषों को (त्रिः) तीन २ बार (सोषवीति) प्रेरित किया करें। (अस्य) उससे (अस्य चित्) आप्तजन (रोदसी चित्) आकाश और पृथिवी के समान स्त्री पुरुष और (उर्वी) भूमिनिवासनी प्रजा भी (सवितुः) प्रेरक मुख्य राजाके (सवाय) अभिषेक या ऐश्वर्यवृद्धि के लिये (रत्नं) रमण योग्य उत्तम ऐश्वर्य की (भिक्षन्त) याचना करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषयः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट्त्रिष्टुप्। ५, ७ त्रिष्टुप्। २ भुरिक् पंक्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे राजे परमेश्वराप्रमाणे गुण, कर्म, स्वभाव धारण करून प्रजेशी वागतात त्यांना चक्रवर्ती राज्य व असंख्य धन प्राप्त होते. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Thrice does Savita shower us with inspiration and energy from the light of heaven, so do Mitra and Varuna, refulgent powers of nature and humanity, friendly, just, and generous of hands. Indeed, the flowing waters, heaven and earth and the wide firmament, all pray for the gifts of light, wealth and power from this lord Savita for yajnic advancement in life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the learned kings are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! God the Impeller and Indwelling Spirit urges only those who shine with knowledge and humility, who are friendly like Prana and Udāna (vital breaths) and Who are well-handed with the light of knowledge. It is from this Lord of the world, that the waters, the vast heaven and earth and the Pranas receive and men solicit charming wealth for giving prosperity to all beings.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The meritorious kings bearing the divine actions deal lovingly with the people. They acquire infinite wealth and vast and good State.

    Foot Notes

    (मित्रावरुणा ) प्राणोदानवत्सर्वेषां सुहृदौ । प्राणोदानौ वा मित्रावरुणौ (Stph 1, 8, 3, 12, 3, 6, 1, 16) = Friends of all like Prana and Udana. (सवाय) ऐश्वर्य्याय । (सवाय) षु प्रसवैश्वर्य्ययोः (स्वा० ) । अत्र ऐश्वर्याथं ग्रहणम् । = For prosperity.

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