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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 56/ मन्त्र 6
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्रिरा दि॒वः स॑वित॒र्वार्या॑णि दि॒वेदि॑व॒ आ सु॑व॒ त्रिर्नो॒ अह्नः॑। त्रि॒धातु॑ रा॒य आ सु॑वा॒ वसू॑नि॒ भग॑ त्रातर्धिषणे सा॒तये॑ धाः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रिः । आ । दि॒वः । स॒वि॒तः॒ । वार्या॑णि । दि॒वेऽदि॑वे । आ । सु॒व॒ । त्रिः । नः॒ । अह्नः॑ । त्रि॒ऽधातु॑ । रा॒यः । आ । सु॒व॒ । वसू॑नि भग॑ । त्रा॒तः॒ । धि॒ष॒णे॒ । सा॒तये॑ । धाः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रिरा दिवः सवितर्वार्याणि दिवेदिव आ सुव त्रिर्नो अह्नः। त्रिधातु राय आ सुवा वसूनि भग त्रातर्धिषणे सातये धाः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रिः। आ। दिवः। सवितः। वार्याणि। दिवेऽदिवे। आ। सुव। त्रिः। नः। अह्नः। त्रिऽधातु। रायः। आ। सुव। वसूनि भग। त्रातः। धिषणे। सातये। धाः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 56; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरप्रार्थनया जगद्विषयमाह।

    अन्वयः

    हे सवितस्त्वं दिवेदिवे नोऽस्मभ्यं दिवो वार्याणि त्रिरासुव। हे भग अह्नो मध्ये रायस्त्रिरासुव। हे त्रातस्सातये त्रिधातु वसूनि धिषणे आ धाः ॥६॥

    पदार्थः

    (त्रिः) त्रिवारम् (आ) समन्तात् (दिवः) कमनीयाः (सवितः) ऐश्वर्यप्रद (वार्याणि) वरितुं योग्यान्यैश्वर्याणि (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (आ) (सुव) जनय (त्रिः) त्रिवारम् (नः) अस्मभ्यम् (अह्नः) दिवसस्य मध्ये (त्रिधातु) त्रीणि सुवर्णरजताऽयसादयो धातवो येषु तानि (रायः) (आ) (सुवा) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (वसूनि) धनानि (भग) भजनीयतम (त्रातः) रक्षक (धिषणे) द्यावापृथिव्यौ (सातये) संविभागाय (धाः) धेहि ॥६॥

    भावार्थः

    हे जगदीश्वर भवान् कृपयाऽस्मान् धर्मेण पुरुषार्थयित्वा प्रतिदिनमैश्वर्य्यं प्रापय सततं रक्षित्वा सर्वेषां सुखाय विभागान् कारय ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ईश्वर की प्रार्थना के साथ जगद्विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (सवितः) ऐश्वर्य के देनेवाले आप (दिवेदिवे) प्रतिदिन (नः) हम लोगों के लिये (दिवः) कामना करने योग्य क्रियाओं को (वार्याणि) ग्रहण करने योग्य ऐश्वर्यों को (त्रिः) तीन बार (आसुव) उत्पन्न करो हे (भग) अत्यन्त भजने योग्य (अह्नः) दिन के मध्य में (रायः) धनों को (त्रिः) तीन बार (आसुव) उत्पन्न करो और (त्रातः) हे रक्षा करनेवाले (सातये) उत्तम प्रकार विभाग के लिये (त्रिधातु) सुवर्ण और चाँदी आदि धातु जिनमें ऐसे (वसूनि) धनों और (धिषणे) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (आ, धाः) सब प्रकार धारण करो ॥६॥

    भावार्थ

    हे जगदीश्वर ! आप कृपा से हम लोगों को धर्म से पुरुषार्थयुक्त करके प्रतिदिन ऐश्वर्य्य प्राप्त कराओ और निरन्तर रक्षा करके सबके सुख के लिये विभागों को कराओ ॥६॥

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    विषय

    ज्ञान तथा वसुओं की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] हे (सवितः) = हमारे हृदयों में प्रेरणा देनेवाले प्रभो ! (दिवे दिवे) = प्रतिदिन (अह्नः त्रिः) = दिन में तीन वार (नः) = हमें (त्रिः) = तीन प्रकार से विभक्त (दिवः) = ज्ञान के [प्रकृति विज्ञान, जीवज्ञान, प्रभु का ज्ञान] (वार्याणि) = वरणीय धनों को (आसुव) = सर्वथा प्राप्त कराइये । हम प्रातः, मध्याह्न व सायं तीनों कालों में ज्ञानधन प्राप्त करने का प्रयत्न करें। [२] (त्रि धातु राय:) = 'शरीर, मन व बुद्धि' तीनों का धारण करनेवाले धनों को तथा वसूनि विकास के लिए आवश्यक सब पदार्थों को हे (भग) = सर्वैश्वर्य-सम्पन्न प्रभो! (आसुव) = प्राप्त कराइये । हे (त्रातः) = रक्षक प्रभो ! (सातये) सब धनों के लाभ के लिए आप हमें (धिषणे) = बुद्धि में (धाः) = स्थापित करिए। हम ज्ञानी बनकर सब आवश्यक धनों का उपार्जन करनेवाले हों। 'धिषण' शब्द 'घर' का वाचक है। सो (धिषणे) = घर में (धाः) = स्थापित करा, अर्थात् हम विलास की वृत्तिवाले बनकर इधर-उधर भटकनेवाले न हों। विलासवृत्तिवाले हम हुए और धनों का विनाश हुआ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभुकृपा से ज्ञानधनों को प्राप्त करके हम सब आवश्यक धनों व वसुओं को प्राप्त करनेवाले हों ।

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    विषय

    सूर्य, आत्मा, परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (सवितः) सबके उत्पादक प्रेरक परमेश्वर ! हे राजन् ! तू (दिवेदिवे) दिनों दिन (नः) हमें सूर्य के समान (दिवः) आकाश से वृष्टिजलों के समान (दिवः) हमारे उत्तम व्यवहार में से (वार्याणि) उत्तम, वरण करने योग्य गुणों और ऐश्वर्यो को (अह्नः त्रिः) दिन में तीन २ बार (आसुव) प्राप्त कराओ। हे (भग) ऐश्वर्यवन्! आप (रायः) ऐश्वर्य का (त्रिधातु) तीनों सुवर्ण, रजत, लोह से बने धन को (आसुव) प्रदान करें। हे (त्रातः) रक्षक ! हे (धिषणे) बुद्धिमति राजसभे ! तू (नः) हमें (वसूनि) नाना ऐश्वर्य (सातये) प्राप्त करने के लिये (धाः) धारण कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषयः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट्त्रिष्टुप्। ५, ७ त्रिष्टुप्। २ भुरिक् पंक्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे जगदीश्वरा! तू कृपा करून आम्हाला धर्माने पुरुषार्थयुक्त करून प्रत्येक दिवशी ऐश्वर्य प्राप्त करून दे व निरंतर रक्षण करून सर्वांच्या सुखासाठी त्याचे विभाग कर. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Savita, lord creator and giver of light and life and inspiration, bring us three of the choicest blessings of wealth and excellence day by day in three sessions of daily yajna. Create and give us the wealth of three metals of excellent order. O lord of honour and excellence, saviour and sustainer, O heaven and earth, O mother Sarasvati, bear and bring us the patience, courage and fighting strength for winning the victories of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of world through the prayer to God is dealt

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God ! Giver of wealth ! you bestow upon us desirable and choicest blessings thrice a day (morning, noon and night). O most adorable God, thrice a day grant us your riches. O protector! uphold the heaven and the earth and grant us wealth consisting of three metals i.e. gold, silver and iron (steel) for distribution among the deserving and needy persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O Lord of the world! kindly enable us to acquire wealth every day by righteous means and with labor. Protect us constantly and prompt us to distribute our wealth for making others happy.

    Foot Notes

    (दिवः) कमनीया:। = Desirable. (सवितः ) हे ऐश्वर्यप्रद = O Giver of wealth. (त्रिधातु ) त्रीणि सुवर्णरजतायसादयो धातवो येषु तानि । = Wealth consisting of three principal metals i.e. Gold, Silver and Iron (धिषणे ) द्यावापृथिव्यौ = Heaven and earth. (सातये ) संविभागाय = For distribution.

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