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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 56/ मन्त्र 5
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्री ष॒धस्था॑ सिन्धव॒स्त्रिः क॑वी॒नामु॒त त्रि॑मा॒ता वि॒दथे॑षु स॒म्राट्। ऋ॒ताव॑री॒र्योष॑णास्ति॒स्रो अप्या॒स्त्रिरा दि॒वो वि॒दथे॒ पत्य॑मानाः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्री । ष॒धऽस्था॑ । सि॒न्ध॒वः॒ । त्रिः । क॒वी॒नाम् । उ॒त । त्रि॒ऽमा॒ता । वि॒दथे॑षु । स॒म्ऽराट् । ऋ॒तऽव॑रीः । योष॑णाः । ति॒स्रः । अप्याः॑ । त्रिः । आ । दि॒वः । वि॒दथे॑ । पत्य॑मानाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्री षधस्था सिन्धवस्त्रिः कवीनामुत त्रिमाता विदथेषु सम्राट्। ऋतावरीर्योषणास्तिस्रो अप्यास्त्रिरा दिवो विदथे पत्यमानाः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्री। षधऽस्था। सिन्धवः। त्रिः। कवीनाम्। उत। त्रिऽमाता। विदथेषु। सम्ऽराट्। ऋतऽवरीः। योषणाः। तिस्रः। अप्याः। त्रिः। आ। दिवः। विदथे। पत्यमानाः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 56; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरेण सर्वेषां निवासाय जगद्रचितमित्याह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यो जगदीश्वरस्त्री सधस्था सिन्धव उतापि कवीनां त्रिस्त्रिमाता विदथेषु सम्राडिवर्तावरीर्योषणा इव तिस्रोऽप्या विदथे पत्यमानास्त्रिदिवो निर्मिमीते सएव सर्वाऽधीशोऽस्ति ॥५॥

    पदार्थः

    (त्री) त्रीणि (सधस्था) सहस्थानानि (सिन्धवः) नद्यः (त्रिः) (कवीनाम्) विदुषाम् (उत) (त्रिमाता) त्रयाणां जन्मस्थाननाम्नां माता जनकः (विदथेषु) संग्रामादिषु विज्ञातव्येषु व्यवहारेषु (सम्राट्) यः सम्यग्राजते भूमौ (ऋतावरीः) ऋतं सत्यं विद्यते यासु ताः (योषणाः) योषाइव वर्त्तमानाः (तिस्रः) स्थूलसूक्ष्मकारणाख्याः (अप्याः) अप्स्वन्तरिक्षे भवाः (त्रिः) त्रिवारम् (आ) (दिवः) ज्योतींषि (विदथे) संग्रामे (पत्यमानाः) पतिरिवाचरन्तीः ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः येन परमात्मना सर्वेषां प्राण्यप्राणिनां निवासाय जलस्थलान्तरिक्षाणि निर्मितानि तं पतिं पतिव्रतेव सततं सेवध्वम् ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सबके निवास के लिये ईश्वर ने जगत् बनाया, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो जगदीश्वर (त्री) तीन (सधस्था) साथ के स्थान (सिन्धवः) नदियाँ (उत) और (कवीनाम्) विद्वानों के (त्रिः) तीनबार (त्रिमाता) जन्म, स्थान और नाम इन तीनों को उत्पन्न करनेवाला (विदथेषु) वा जो संग्रामों और जानने योग्य व्यवहारों में (सम्राट्) उत्तम प्रकार भूमि में प्रकाशित है ऐसे पुरुष के सदृश (ऋतावरीः) जिनमें सत्य विद्यमान (योषणाः) जो स्त्रियों के सदृश वर्त्तमान (तिस्रः) स्थूल सूक्ष्म और कारण नामक (अप्याः) अन्तरिक्ष में होनेवाली सृष्टियाँ (विदथे) संग्राम में (पत्यमानाः) पति के सदृश आचरण करती हुई हैं उनको (त्रिः) तीनबार और (दिवः) तारागणों को रचता है, वही सबका स्वामी है ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जिस परमात्मा ने सब प्राणी और प्राणिभिन्नों के निवास के लिये जल स्थल और अन्तरिक्ष रचे, उस स्वामी की पतिव्रता स्त्री के सदृश निरन्तर सेवा करो ॥५॥

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    विषय

    त्रिमाता

    पदार्थ

    [१] (त्री सध-स्था) = तीन लोक हैं, जो कि मिलकर ही स्थित होते हैं। जैसे बाहर आधिदैविक जगत् में पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक का परस्पर सम्बन्ध है, इसी प्रकार अध्यात्म में शरीर, मन व मस्तिष्क का परस्पर सम्बन्ध है । (कवीनाम्) = क्रान्तदर्शी तत्त्वद्रष्टा पुरुषों के (त्रिः सिन्धवः) = तीन प्रकार से ज्ञान प्रवाह बहते हैं। प्रकृति का विज्ञानरूप सिन्धु 'ऋक्' है, जीव का विज्ञानरूप सिन्धु 'यजुः' है तथा परमात्मा का विज्ञान-सिन्धु 'साम' है। इन ज्ञानीपुरुषों की बुद्धिरूप गुहा में 'ऋग्, यजुः, साम' रूप तीन सिन्धुओं का प्रवाह चलता है। (उत) = और यह कवि (त्रिमाता) = ज्ञान, कर्म व उपासना तीनों का निर्माण करनेवाला होता है। (विदथेषु) = ज्ञानयज्ञों में यह (सम्राट्) = दीप्त होता है । [२] इस कवि की (तिस्रः) = तीन (योषणाः) = पत्नी के रूप में स्थित वेदवाणियाँ ['परीमे गामनेषत०'] (ऋतावरी:) = इसके जीवन में ऋत का रक्षण करनेवाली होती हैं और (अप्या:) = कर्मों में उत्तम होती हैं, अर्थात् यह कवि वेदवाणी के अपनाने से ऋतमय जीवनवालासब कार्यों को ऋतपूर्वक करनेवाला तथा क्रियाशील होता है। ये कवि लोग (दिवः त्रिः) = दिन में तीन वार (विदथे) = ज्ञानयज्ञ में (पत्यमानाः) = गतिवाले होते हैं । 'प्रातः, मध्यान् व सायं' तीनों समय इनका ज्ञानयज्ञ चलता है ये तीनों कालों में स्वाध्याय को अपनाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञानीपुरुष 'शरीर, मन व बुद्धि' तीनों का विकास करने के लिए यत्नशील होते हैं। प्रातः, मध्याह्न व सायं तीनों कालों में इनका ज्ञानयज्ञ चलता है। 'ज्ञान, कर्म व उपासना' का अपने में समन्वय करता है।

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    विषय

    सूर्य, आत्मा, परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    वह परमेश्वर ! (त्री सधस्था) तीनों लोकों को रचता है। हे (सिन्धवः) जल धाराओं के समान प्रवाह से गति करने वाली प्रजाओ ! (कवीनाम्) सब विद्वानों के बीच में (त्रिः) तीन २ प्रकार से (विदथेषु) जानने योग्य पदार्थों में (त्रिमाता) जन्म, स्थान और नाम तीनों का रचने वाला है वही (सम्राट्) बड़े राजा के समान सम्यक् प्रकाशमान, तेजस्वी स्वामी है। वह (ऋतावरी:) ‘ऋत’ सत्य को धारण करने वाली (योषणाः) सती साध्वी (पत्यमानाः) पति की कामना करने वाली स्त्रियों के समान (त्रिस्रः) तीन (दिवः) भूमियों को (अप्याः) अन्तरिक्ष में प्राणों के या जीवों के उपयोगी (त्रिः) तीनों प्रकार से (विदथे) वश में किये हुए हैं। (२) इसी प्रकार सम्राट् राजा तीनों प्रकार के लोकों को वश करता, विद्वानों की रक्षा करता, प्रजाओं को संग्राम में वश करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषयः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट्त्रिष्टुप्। ५, ७ त्रिष्टुप्। २ भुरिक् पंक्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! ज्या परमेश्वराने सर्व प्राण्यांच्या व इतरांच्या निवासासाठी जल, स्थल, अंतरिक्ष निर्माण केलेले आहे. पतिव्रता स्त्री जशी निरंतर पतीची सेवा करते तशी त्याची सेवा करा. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Self-refulgent creator is the ruling lord of light and life in all cosmic acts of creation and sustenance. Three are the rolling floods of light, air and waters, in heaven and skies and on the earth. Of the vision, thought and expression of the sagely poets and Rshis, he is the origin and inspiration. Three are the streams of causal, subtle and physical energy with cosmic truth and law flowing to the life on earth like youthful maidens rushing to meet their lover. Three are the regions and three the lights, agni (fire) on earth, vayu (air and electricity) in the sky, and aditya (light) in heaven, sustaining life in the cosmic yajna in three sessions.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    God created this universe for the inhabitation of all.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! God is the Sovereign of these worlds (planets). He has made these three worlds (lying at lower, higher and middle levels), has made these rivers and is the maker of birth, place and names of the enlightened persons. He in all dealings, is known like a sovereign shining well on account of His wonderful creation. Like the truthful chaste women (who gives birth to good progeny), and acts according to the wishes of her husbands), He makes creation in the firmament of three kinds-gross, subtle and causal. He creates three luminaries in the form of fire, lightning and the sun. He does all this in three forms of absolute existence, absolute consciousness and absolute Bliss.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should constantly worship that God, Who has made the earth, water and firmament for the life of the living beings and inanimate objects. Serve Him as a chaste wife serves her husband.

    Foot Notes

    (सधस्था) सहस्थानानि। = Worlds (planets) । (त्रिमाता) त्रयाणां जन्मस्थाननाम्नां माता जनकः । जननी = Generator of the birth, place and names (तिस्रः) स्थूलसूक्ष्मकारणाख्या:। = Gross, subtle and causal. (अप्या:) अप्स्वन्तरिक्षे भवाः | आप इत्यन्तरिक्षनाम (NG 1, 3) = Existing in the firmament.

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