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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 56/ मन्त्र 8
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्रिरु॑त्त॒मा दू॒णशा॑ रोच॒नानि॒ त्रयो॑ राज॒न्त्यसु॑रस्य वी॒राः। ऋ॒तावा॑न इषि॒रा दू॒ळभा॑स॒स्त्रिरा दि॒वो वि॒दथे॑ सन्तु दे॒वाः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रिः । उ॒त्ऽत॒मा दुः॒ऽनशा॑ । रो॒च॒नानि॑ । त्रयः॑ । रा॒ज॒न्ति॒ । असु॑रस्य । वी॒राः । ऋ॒तऽवा॑नः । इ॒षि॒राः । दुः॒ऽदभा॑सः । त्रिः । आ । दि॒वः । वि॒दथे॑ । स॒न्तु॒ । दे॒वाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रिरुत्तमा दूणशा रोचनानि त्रयो राजन्त्यसुरस्य वीराः। ऋतावान इषिरा दूळभासस्त्रिरा दिवो विदथे सन्तु देवाः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रिः। उत्ऽतमा दुःऽनशा। रोचनानि। त्रयः। राजन्ति। असुरस्य। वीराः। ऋतऽवानः। इषिराः। दुःऽदभासः। त्रिः। आ। दिवः। विदथे। सन्तु। देवाः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 56; मन्त्र » 8
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    ये ब्रह्मभक्तास्त्रय इवाऽसुरस्येषिरा ऋतावानो वीरा दूळभास आदिवो देवा विदथे त्रिस्सन्तु ते दूणशोत्तमा रोचनानि त्री राजन्ति ॥८॥

    पदार्थः

    (त्रिः) त्रिवारम् (उत्तमा) उत्तमानि (दूणशा) दुःखेन नशो नाशो येषान्तानि (रोचनानि) प्रकाशमानानि (त्रयः) विद्युत्प्रसिद्धसूर्य्याः (राजन्ति) (असुरस्य) दुष्टान् दोषान्प्रक्षेप्तुः (वीराः) व्याप्तविद्याशौर्यबलाः (ऋतावानः) प्रशंसितमृतं सत्यं विद्यते येषु ते (इषिराः) गन्तारः (दूळभासः) दुर्गतो दभो हिंसा येभ्यस्ते (त्रिः) (आ) (दिवः) कामयमानाः (विदथे) संग्रामादिव्यवहारे (सन्तु) (देवाः) विद्वांसः ॥८॥

    भावार्थः

    ये जगदीश्वरं प्राणवत्प्रियं राजवदादेष्टारं न्यायाधीशवन्नेतारं सूर्य्यवत्सुप्रकाशं सर्वप्रकाशकं सततं भजन्ते त एव शत्रुभिर्दुर्जयाः सत्याचारा अन्येषां सुखं कामयमानाश्चक्रवर्त्तिराज्यं प्राप्य सूर्य्यवद्विराजन्ते त एवात्र रक्षाधिकृता भवन्त्विति ॥८॥ अत्रेश्वरजगद्विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्वेद्या ॥ इति षट्पञ्चाशत्तमं सूक्तं प्रथमो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    जो ब्रह्म के भक्त (त्रयः) बिजुली प्रसिद्ध अग्नि और सूर्य्याग्नि के सदृश (असुरस्य) दुष्ट और दोषों के दूर करनेवाले के सम्बन्ध में (इषिराः) जानेवाले (ऋतावानः) प्रशंसित सत्य जिनमें विद्यमान तथा (वीराः) विद्या शूरता और बल से परिपूरित वे (दूळभासः) हिंसा से रहित (आ) सब प्रकार (दिवः) कामना करते हुए (देवाः) विद्वान् लोग (विदथे) संग्राम आदि व्यवहार में (त्रिः) तीन बार (सन्तु) प्रसिद्ध हों और (दूणशा) दुःख से जिनका नाश होता है वे (उत्तमा) श्रेष्ठ (रोचनानि) प्रकाशमान (त्रिः) तीन बार (राजन्ति) शोभित होते हैं ॥८॥

    भावार्थ

    जो लोग जगदीश्वर को प्राणों के सदृश प्रिय, राजा के सदृश उपदेशदाता, न्यायाधीश के सदृश नायक, सूर्य के सदृश अपने से प्रकाशमान और सबका प्रकाशकर्त्ता मान निरन्तर भजते हैं, वे ही शत्रुओं के दुःख से जीतने योग्य सत्य के आचरण करने और अन्यों के सुख चाहनेवाले हैं, वे चक्रवर्त्ती राज्य को प्राप्त होकर सूर्य्य के सदृश शोभित होते हैं और वे ही इस संसार में रक्षा के अधिकारी हों ॥८॥ इस सूक्त में ईश्वर, जगत् और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्तार्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥

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    विषय

    तीन उत्तम दीप्तियाँ

    पदार्थ

    [१] (असुरस्य) = [अस्यति क्षिपति] सब बुराइयों का संहार करनेवाले प्रभु के (त्रिः) = तीन उत्तमा सर्वोत्कृष्ट व (दूणशा) = कठिनता से नष्ट करने योग्य (रोचनानि) = दीप्तियाँ व तेज हैं। ये (त्रयः) = तीनों तेज (वीरा:) = [वि ईरयति] शत्रुओं को विशेषरूप से कम्पित करनेवाले होते हुए (राजन्ति) = चमकते हैं। शरीर में यह तेज 'अग्नि' के रूप में है। जब तक यह जाठराग्नि ठीक बनी रहती है, तब तक शरीर में रोगों का प्रादुर्भाव नहीं होता। मन में यह तेज 'विद्युत्' के रूप में है 'वैद्युतं मनः'। यह मानस - विद्युत् वासनावृक्षों को दग्ध करने का कारण बनती है। मस्तिष्क में यह तेज 'सूर्य' के रूप में है। मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञानसूर्य का उदय होने पर अन्धकार में पनपनेवाले कुविचार विलुप्त हो जाते हैं। [२] ये अग्नि, विद्युत् व सूर्य रूप तीन तेज (ऋतावानः) = ऋत [यज्ञ] का रक्षण करनेवाले, (इषिरा:) = सदा कर्म में प्रेरित करनेवाले व (दूडभासः) = न हिंसा करने योग्य हैं। शरीर में अग्नितत्त्व के ठीक होने पर सब क्रियाएँ ऋतपूर्वक [ठीक-ठीक] चलती हैं। मानस- विद्युत् के ठीक होने पर मन सदा उत्तम कार्यों की प्रेरणावाला बना रहता है। मस्तिष्क में ज्ञानसूर्य के उदय होने पर हम वासनान्धकार से हिंसित नहीं होते। [३] (देवा:) = देव (दिवः त्रिः) = दिन में तीन वार अवश्य प्रातः, मध्याह्न व सायं समय (विदथे) = ज्ञानयज्ञों में (सन्तु) = हों। इन ज्ञानयज्ञों द्वारा ही प्रभु का सच्चा उपासन होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ने शरीर में अग्नितत्त्व, मन में विद्युत् तत्त्व व मस्तिष्क में सूर्य की (सहस्रार चक्र) स्थापना की है। इनके कारण हमारा जीवन ऋतवाला, कर्मशील व प्रकाशमय बनता है। प्रस्तुत सूक्त में मानव जीवन की तीन-तीन के रूप में होनेवाली बातों का बड़ी सुन्दरता से चित्रण है। इस चित्रण की समाप्ति शरीरस्थ 'अग्नि, विद्युत् व सूर्य' के वर्णन से हुई है। अगले में प्रभु से दी गई वेदवाणी का उल्लेख है। यह हमारे जीवन में सब देवों का स्थापन करती सूक्त है

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    विषय

    सूर्य, आत्मा, परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (असुरस्य) सबको जीवन देने वाले, दोषों के नाशक परमेश्वर के और सर्वशत्रुनाशक राजा के (त्रिः उत्तमा) तीन उत्तम (दूनशा) कभी नष्ट न होने वाले (रोचनानि) प्रकाशमान तत्व, सूर्य, विद्युत् और अग्नि हैं। वे तीनों (वीराः) वीरों के तुल्य ही (राजन्ति) प्रकाशित होते हैं। (देवाः) विद्वान् लोग और विजयेच्छु लोग सूर्य किरणों के समान (ऋतावानः) सत्य, न्याय रूप प्रकाश और शान्ति रूप जल से युक्त (इषिराः) प्रबल इच्छावान् (दूळभासः) दूर तक प्रकाश देने वाले, एवं दुर्दमन करने योग्य, अहिंसक (दिवः) दिन में (त्रिः) तीन वार (विदथे) ज्ञान प्राप्ति और (विदथे) संग्राम में (आ सन्तु) सफल हों। इति प्रथमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषयः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट्त्रिष्टुप्। ५, ७ त्रिष्टुप्। २ भुरिक् पंक्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक जगदीश्वराला प्राणाहून प्रिय, राजाप्रमाणे उपदेश कर्ता, न्यायाधीशाप्रमाणे नायक, सूर्याप्रमाणे स्वतः प्रकाशमान व सर्वांचा प्रकाशकर्ता मानून निरंतर भजतात तेच शत्रूंच्या दुःखांना जिंकणारे, सत्याचे आचरण करणारे व इतरांचे सुख इच्छिणारे असतात. त्यांना चक्रवर्ती राज्य प्राप्त होते व ते सूर्याप्रमाणे सुशोभित होतात व तेच या जगाचे रक्षणकर्ते असतात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Three are the best and highest lights, formidable and indestructible: fire, electricity and the solar energy. These three brave and heroic powers of the lord of light and life’s energy shine in the world. Heroes of truth and cosmic law and the fluent light of rectitude, vibrant and tempestuous, blazing brilliant far and wide, may, we pray, shine like divinities thrice and threefold in the yajnic battles of life by virtue of the lights of heaven.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The qualities of a good king are underlined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those devotees of God are full of splendor like the three good lights i.e. fire, lightning and sun. They approach the eradicators of defects and evils, who are brave and learned, practice truth, quick moving of surpassing radiance, and are free from violence and inviolable. They desire the welfare of all, and shine threefold in the dealings of knowledge.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who adore God as dearer than their Pranas (lives), commanding like a king, leader like a judge, radiant like the sun and are illuminator of all, shine in this world like the sun after attainment of good and vast State. They cannot be easily defeated by their enemies because they are truthful in their conduct and desirous of the welfare of others.

    Foot Notes

    (असुरस्य) दुष्टान् दोषान्प्रक्षेप्तुः = Of the thrower or remover of the evil. (त्रयः) विद्युत्प्रसिद्ध सूर्य्याः । = Three lights, fire, lightning and sun. (दूडभास:) दुर्गंतो दभो हिंसा येभ्यस्ते । दम्नोति-वधकर्मा (NG 2, 19 ) = Free from violence.

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