ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 6/ मन्त्र 9
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
ऐभि॑रग्ने स॒रथं॑ याह्य॒र्वाङ् ना॑नार॒थं वा॑ वि॒भवो॒ ह्यश्वाः॑। पत्नी॑वतस्त्रिं॒शतं॒ त्रींश्च॑ दे॒वान॑नुष्व॒धमा व॑ह मा॒दय॑स्व॥
स्वर सहित पद पाठआ । ए॒भिः॒ । अ॒ग्ने॒ । स॒ऽरथ॑म् । या॒हि॒ । अ॒र्वाङ् । ना॒नाऽर॒थम् । वा॒ । वि॒ऽभवः॑ । हि । अश्वाः॑ । पत्नी॑ऽवतः । त्रिं॒शत॑म् । त्रीन् । च॒ । दे॒वान् । अ॒नु॒ऽस्व॒धम् । आ । व॒ह॒ । मा॒दय॑स्व ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऐभिरग्ने सरथं याह्यर्वाङ् नानारथं वा विभवो ह्यश्वाः। पत्नीवतस्त्रिंशतं त्रींश्च देवाननुष्वधमा वह मादयस्व॥
स्वर रहित पद पाठआ। एभिः। अग्ने। सऽरथम्। याहि। अर्वाङ्। नानाऽरथम्। वा। विऽभवः। हि। अश्वाः। पत्नीऽवतः। त्रिंशतम्। त्रीन्। च। देवान्। अनुऽस्वधम्। आ। वह। मादयस्व॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 9
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे अग्ने ! येऽग्नेर्विभवोऽश्वा नानारथं वा त्रीन् त्रिंशतं च पत्नीवतो देवाननुष्वधमावहन्ति य एभिस्त्वमर्वाङूर्ध्वं सरथमायाह्यस्मानावह मादयस्व च ॥९॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (एभिः) (अग्ने) अग्निवज्ज्ञानेन प्रकाशमय (सरथम्) रथैः सह वर्त्तमानम् (याहि) (अर्वाङ्) योऽवस्तादञ्चत्यधो गच्छति सः (नानारथम्) नाना रथा यस्मिँस्तम् (वा) (विभवः) व्यापकाः (हि) खलु (अश्वाः) किरणाः (पत्नीवतः) प्रशस्ताः पत्न्यो विद्यन्ते येषान्तान् (त्रिंशतम्) (त्रीन्) (च) (देवान्) पृथिव्यादीन् (अनुष्वधम्) अन्वन्नम् (आ) (वह) (मादयस्व) आनन्दय ॥९॥
भावार्थः
यथाऽग्निस्त्रयस्त्रिंशतः पृथिव्यादीन् दिव्यगुणान् पदार्थान्धरति तत्र व्यापको भूत्वा स्वसरूपान्करोति तथा विद्वांसो विज्ञानेन सर्वान् विज्ञायान्यान् प्रत्युपदिश्यानन्दन्ति ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के समान ज्ञान से प्रकाशमय ! जो अग्नि की (विभवः) व्यापक (अश्वाः) किरणें (नानारथम्) जिसमें अनेक रथ विद्यमान उसे (वा) वा (त्रीन्) तीन (त्रिंशतम् च) और तीस (पत्नीवतः) प्रशस्त पत्नियोंवाले (देवान्) पृथिवी आदि लोकों को (अनुस्वधम्) अन्न के अनुकूल पहुँचाती हैं (एभिः) इनसे आप (अर्वाङ्) जो नीचे को प्राप्त होता वा ऊपर को पहुँचता है उस (सरथम्) रथों के सहित वर्त्तमान मार्ग को (आ, याहि) आओ प्राप्त होओ और हम लोगों को (आ, वह) प्राप्त कीजिये तथा (मादयस्व) हर्षित कीजिये ॥९॥
भावार्थ
जैसे अग्नि तैंतीस पृथिवी आदि दिव्यगुणी पदार्थों को धारण करता और व्यापक होकर अपने रूप कर देता है, वैसे विद्वान् जन विज्ञान से सबको जानकर तथा औरों के प्रति उपदेश कर आनन्द देते हैं ॥९॥
विषय
महादेव का आगमन
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! देवों के अग्रणी प्रभो ! (एभिः) = इन, गतमन्त्र में उल्लिखित देवों के साथ (सरथम्) = समान रथ पर आरूढ़ हुए हुए आप (अर्वाङ् आयाहि) = हमें अन्दर प्राप्त होइए । हमारे अन्दर देवों का निवास हो, देवों के निवास के साथ हम आपको अपने हृदयों में आसीन कर सकें। वा अथवा यदि इस शरीर में हम आपको न भी प्राप्त कर सकें तो (नानारथम्) = इस शरीर से भिन्न शरीरों में हम आपको पानेवाले बनें। हम आपकी प्राप्ति के मार्ग पर चलते हुए इस जन्म में मार्ग का पूरा आक्रमण न कर सकें तो अगले जन्म में इसी यात्रा को करते हुए आप तक पहुँचनेवाले बनें। मार्गभ्रष्ट न हों। आपके दिये हुए (अश्वाः) = ये इन्द्रियाश्व (हि विभवः) = निश्चय से हमें आप तक पहुँचाने में समर्थ हैं। हम भटकेंगे नहीं तो अवश्य आपको प्राप्त करेंगे ही। [२] (पत्नीवत:) = पत्नियोंवाले (त्रिंशतम्) - तीस (त्रीन् च) और तीन, अर्थात् तेतीस (देवान्) = देवों को (अनुष्वधम्) = आत्मतत्त्व के धारण का लक्ष्य करके (आवह) = प्राप्त कराइए। और (मादयस्व) = हमें इस जीवन में वास्तविक हर्ष को दीजिए। देवों की शक्ति ही देवपत्नी कहलाती है। हम शक्ति सहित देवों का धारण करें । यही प्रभुप्राप्ति का मार्ग है। देवों के धारण से ही महादेव का धारण होता है। उस प्रभु के धारण में ही आनन्द है।
भावार्थ
भावार्थ– देवों को धारण करते हुए हम इसी जीवन में व अगले जीवन में प्रभु को प्राप्त करनेवाले बनें। इसी में आनन्द है।
विषय
विद्वान् का कर्तव्य।
भावार्थ
हे (अग्ने) अग्रणी नायक ! विद्वन् ! तू (एभिः) उन उक्त वीरों के साथ (रथं) एक समान रथ वाला होकर (वा) और (नाना रथं) नाना रथों सहित (अर्वाङ्) आगे (याहि) बढ़। वे (अश्वाः) अश्वों और अश्वारोहियों के समान (विभवः) विशेष रूप से सामर्थ्यवान् एवं किरणों के समान व्यापने वाले हों । हे नायक ! तू उन (देवान्) कामनावान्, विजयशील, तेजस्वी (पत्नीवतः) पालन करने वाली शक्ति से युक्त (त्रिंशतं त्रीन् च) ३३ प्रधान पुरुषों को (अनु स्वधम्) उनके अपने देह को धारण करने योग्य अन्न और वेतन देकर (आवह) धारण कर और (मादयस्व) उनको सन्तुष्ट कर । इन ३३ देवों के वर्णन का स्पष्टीकरण देखो। ऋ० ११३८॥११॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ५ विराट् त्रिष्टुप। २, ७ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। १० भुरिक् त्रिष्टुप् । ६, ११ भुरिक् पङ्क्तिः। ९ स्वराट् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसा अग्नी पृथ्वी इत्यादी तेहतीस दिव्य पदार्थांना धारण करतो व व्यापक बनून त्यांचे आपल्यासारखे रूप बनवितो तसे विद्वान विज्ञानाने सर्वांना जाणून व इतरांना उपदेश करून आनंद देतात. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
With these devas, come hither to us, Agni, Spirit of light and fire, knowledge and power and the ecstasy of life, come by one chariot or many. Exalted and omnipresent and expansive are your beams of light which transport your chariot over the quarters of space.$Bring along the thirty-three devas, divinities of nature and spirit, all bountiful, with all their virtues and attributes and rejoice in the beauty of life with us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Again the ongoing theme of enlightened persons is stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned leader ! shining with knowledge like the fire, come here up and down on your chariot with the rays of the Agni (electricity/energy) which bring the thirty three divine substances along with their protective powers and gladden them with proper food.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Agni (fire energy electricity/sun) upholds thirty-three substances like the earth, air water etc. and while pervading makes them like itself. In the same manner, it is the duty of the enlightened persons to know the nature and properties of all objects through various sciences and thereafter instruct others about them.
Foot Notes
(अग्ने ) अग्निवत् ज्ञानेन प्रकाशमय । = Shining with knowledge like the fire. (अश्वा:) किरणा: । असोवा आदित्योऽश्वः ( Stph 7, 3, 2, 10 ) । तस्मादश्वा आदित्यकिरण इति स्पष्टम् । Regarding 33 Devas there is reference in Shatapath Brahmans 4, 5, 7,2, Aitareya Brahmana 2, 18, 37, 11, 3, 21 in words like अष्टो वसवः । एकादश रुद्राः द्वादशादित्या: इमे एव द्यावा पृथिवी त्रयास्त्रिश्यों यास्त्रिशद् वै देवाः प्रजापतिश्चतुस्त्रिश: । (Stph 4, 5, 7, 2)
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