ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 2
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अवा॑सृजन्त॒ जिव्र॑यो॒ न दे॒वा भुवः॑ स॒म्राळि॑न्द्र स॒त्ययो॑निः। अह॒न्नहिं॑ परि॒शया॑न॒मर्णः॒ प्र व॑र्त॒नीर॑रदो वि॒श्वधे॑नाः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । अ॒सृ॒ज॒न्त॒ । जिव्र॑यः । न । दे॒वाः । भुवः॑ । स॒म्ऽराट् । इ॒न्द्र॒ । स॒त्यऽयो॑निः । अह॑न् । अहि॑म् । प॒रि॒ऽशया॑नम् । अर्णः॑ । प्र । व॒र्त॒नीः । अ॒र॒दः॒ । वि॒श्वऽधे॑नाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अवासृजन्त जिव्रयो न देवा भुवः सम्राळिन्द्र सत्ययोनिः। अहन्नहिं परिशयानमर्णः प्र वर्तनीररदो विश्वधेनाः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठअव। असृजन्त। जिव्रयः। न। देवाः। भुवः। सम्ऽराट्। इन्द्र। सत्यऽयोनिः। अहन्। अहिम्। परिऽशयानम्। अर्णः। प्र। वर्तनीः। अरदः। विश्वऽधेनाः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मेघदृष्टान्तेन राजगुणानाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! भवान् भुवः सम्राट् सत्ययोनिर्यथा सूर्य्यः परिशयानमहिमहन्नर्णो वर्त्तनीः प्रारदस्तथैव शत्रून् हत्वा विराजस्व ये विश्वधेना जिव्रयो न देवास्त्वामवाऽसृजन्त तांस्त्वं सङ्गच्छस्व ॥२॥
पदार्थः
(अव) (असृजन्त) सृजन्ते (जिव्रयः) दृढजीवनाः (न) इव (देवाः) चन्द्रादयो दिव्याः पदार्था इव विद्वांसः (भुवः) पृथिव्या मध्ये (सम्राट्) यः सम्यग्राजते चक्रवर्त्ती (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त (सत्ययोनिः) सत्यमविनाशि योनिः कारणङ्गृहं वा यस्य (अहन्) हन्ति (अहिम्) मेघम् (परिशयानम्) योऽन्तरिक्षे सर्वतः शेते तम् (अर्णः) उदकम् (प्र) (वर्त्तनीः) मार्गान् (अरदः) विलिखति (विश्वधेनाः) विश्वाः सर्वा धेना वाचो येषान्ते ॥२॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे राजंस्त्वं सत्याचारः सन्नाप्तसहायेन चक्रवर्त्ती सार्वभौमो भव यथा सूर्य्यो मेघं हत्वा जगत् सुखयति तथा दस्यून् विनाश्य प्रजा आनन्दय ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब मेघ दृष्टान्त से राजगुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्ययुक्त ! आप (भुवः) पृथिवी के मध्य में (सम्राट्) उत्तम प्रकार प्रकाशमान चक्रवर्त्ती (सत्ययोनिः) नहीं नाश होनेवाला कारण वा स्थान जिसका ऐसा सूर्य्य जैसे (परिशयानम्) अन्तरिक्ष में सब ओर से शयन करनेवाले (अहिम्) मेघ का (अहन्) नाश करता है (अर्णः) जल (वर्त्तनीः) मार्गों को (प्र, अरदः) अर्थात् करोदता है, वैसे ही शत्रुओं का नाश करके विराजमान हूजिये जो (विश्वधेनाः) समस्त वाणियोंवाले (जिव्रयः) दृढजीवनों के (न) समान (देवाः) चन्द्र आदि दिव्य पदार्थों के सदृश विद्वान् जन आपको (अव, असृजन्त) उत्पन्न करते हैं, उनका तुम संग करो ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमावाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे राजन् ! आप सत्य आचरण करनेवाले हुए यथार्थ वक्ताओं के सहाय से चक्रवर्त्ती सार्वभौम हूजिये और जैसे सूर्य्य मेघ का नाश करके संसार को सुख देता है, वैसे चोर डाकुओं का नाश करके प्रजाओं को आनन्द दीजिये ॥२॥
विषय
प्रभु द्वारा देवों को सत्यमार्ग पर ले चलना
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! गतमन्त्र के अनुसार जब देव आपका सम्भजन करते हैं, तो वे (जिब्रयः न) = जिस प्रकार आयुष्य में बड़े हैं, उसी प्रकार (देवाः) = देववृत्तिवाले ये पुरुष (अवासृजन्त) = विषयों से पृथक् किये जाते हैं। प्रभु इन बड़ी उमरवाले दिव्यवृत्तिवाले पुरुषों को विषयों के आक्रमण से बचाते हैं। आचार्य [दयानन्द] ने यहाँ 'जिव्रय' का अर्थ 'दृढ़ जीवना:' दृढ़ जीवनवाले ऐसा किया है। प्रभु इन दृढ़ जीवनवाले देवपुरुषों को विषयवासनाओं से आक्रान्त नहीं होने देते। हे इन्द्र शत्रुविद्रावक प्रभो! आप ही सम्राट् भुव: इन 'जिव्रि देवों' के सम्राट् होते हैं, आप ही इनके जीवन को दीप्त करते हैं। (सत्ययोनि:) = आप ही सत्य के उत्पत्ति स्थान हैं। आप ही के द्वारा इनके जीवन में सत्य की उत्पत्ति होती है। [२] आप ही (अर्णः) = ज्ञान-जल के (परिशयानम्) = चारों ओर रहनेवाले ज्ञानजल को आवृत कर लेनेवाले इस (अहिम्) = वासनारूप वृत्त को (अहन्) = नष्ट करते हैं और आप ही (विश्वधेना:) = सब के प्रीणित करनेवाले (वर्तनी:) = मार्गों को (प्र अरदः) = विलेखित करते हैं [chalk out]। वासनाओं को विनष्ट करके आप ही इन्हें उत्तम मार्गों पर ले चलते हैं।
भावार्थ
भावार्थ– देववृत्ति के पुरुष प्रभु का उपासन करते हैं। प्रभु इन्हें विषयों से पृथक् करते हैं। इनके अन्दर सत्य को उत्पन्न करते हैं। वासना को विनष्ट करके इन्हें सर्वभूतहित के मार्ग पर चलाते हैं।
विषय
सूर्य मेघ के दृष्टान्त से विद्वानों, वीरों का प्रयाण और राजा का शासन । विघ्नकारी शत्रु का विनाश ।
भावार्थ
(जिव्रयः देवाः न) जीवन देने वाले सूर्य किरण जब (अव असृजन्त) नीचे भूतल पर आते हैं तब (सम्राट् सत्ययोनिः) देदीप्यमान सूर्य मेघ का उत्पादक होता है और वह (परिशयानम् अहिम् अहम्) फैले हुए मेघ को आघात करता है (अर्णः) जल (विश्वधेनाः वर्त्तनीः अरदः) सबको तृप्त करने वाले जल मार्गों को बना लेता है उसी प्रकार (जिव्रयः) विजयशील (देवाः) तेजस्वी पुरुष (अव असृजन्त) प्रयाण करें, और (सत्ययोनिः) सत्य न्याय का आश्रय रूप राजा (भुवः) इस भूमि का (सम्राट्) तेजस्वी महाराज हो । हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (परिशयानम्) सर्वत्र फैले (अहिम्) सामने से आघात करने वाले, विनकारी शत्रु को (अहन्) विनाश करे । और (अर्णः) जल के समान शीतल स्वभाव होकर तू (विश्वधेनाः) समस्त जगत को आनन्द से तृप्त करने वाले (वर्त्तनीः) सुखदायक मार्गो, न्याय-शासनों को (प्र अरदः) अच्छी प्रकार बना ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ विराट् त्रिष्टुप् । २, ६ निचृत्त्रिष्टुप ३, ५, ८ त्रिष्टुप्। ४, ६ भुरिक् पंक्तिः। ७, १० पंक्तिः । ११ निचृतपंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा ! तू सत्याचरणी बनून विद्वान लोकांच्या साह्याने चक्रवती सार्वभौम राजा हो व जसा सूर्य मेघाचा नाश करून जगाला सुख देतो, तसे चोर व दस्यूंचा नाश करून प्रजेला आनंदित कर. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of the world, men of age, experience and wisdom, firm in their values and conduct of life, as also the brilliant nobles and divines of the world, create and consecrate the ruler of the earth dedicated to truth as the very being and purpose of his existence. And like the sun, light of the world dedicated to his eternal task and nature, breaking the cloud sleeping over the locked up vapours, and releasing the streams of water to flow and feed the world, the ruler destroys the demons of darkness and their strongholds to make the waters of life to flow and give new energy and freshness of life to the people.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Comparing with clouds, the attributes of a king are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! you possess great wealth. The sun destroys the cloud slumbering in the firmament for the release of the channels of water. Likewise, you are the abode of truth and sovereign of the world. You shine well having destroyed your enemies, and keep an association with mature persons because they are the masters of noble speech, and have turned you virtuous.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Here is a smile in the mantra. O king ! being a man of truthful character a conduct, you become a sovereign with the help of the absolutely truthful enlightened persons. As the sun destroys the cloud and gladdens the world, so you smash the gangs of thieves robbers and other wicked persons and make your subjects full of bliss.
Foot Notes
(जिव्रयः) दृढजीवनाः । = Aged men of firm life. (विश्वधेनाः ) विश्वाः सर्वा धेना वाचो येषान्ते । धेना इति वाङ्नाम (NG 1, 12 ) = The masters of all noble speech. (अर्णः ) उदकम् । अर्ण इति उदकनाम (NG 1, 11 ) = Water. (वर्त्तनी:) मार्गान् । = Paths, Channels.
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