ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 3
अतृ॑प्णुवन्तं॒ विय॑तमबु॒ध्यमबु॑ध्यमानं सुषुपा॒णमि॑न्द्र। स॒प्त प्रति॑ प्र॒वत॑ आ॒शया॑न॒महिं॒ वज्रे॑ण॒ वि रि॑णा अप॒र्वन् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठअतृ॑प्णुवन्तम् । विऽय॑तम् । अ॒बु॒ध्यम् । अबु॑ध्यमानम् । सु॒सु॒पा॒णम् । इ॒न्द्र॒ । स॒प्त । प्रति॑ । प्र॒ऽवतः॑ । आ॒शया॑नम् । अहि॑म् । वज्रे॑ण । वि । रि॒णाः॒ । अ॒प॒र्वन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अतृप्णुवन्तं वियतमबुध्यमबुध्यमानं सुषुपाणमिन्द्र। सप्त प्रति प्रवत आशयानमहिं वज्रेण वि रिणा अपर्वन् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठअतृप्णुवन्तम्। विऽयतम्। अबुध्यम्। अबुध्यमानम्। सुसुपानम्। इन्द्र। सप्त। प्रति। प्रऽवतः। आऽशयानम्। अहिम्। वज्रेण। वि। रिणाः। अपर्वन् ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! त्वं यथा सूर्य्यो वज्रेणाऽऽशयानमहिं हत्वा सप्त प्रवतो गमयति तथैवाऽपर्वन्नतृप्णुवन्तं सुषुपाणं वियतमबुध्यमबुध्यमानमधार्मिकञ्जनं दण्डेन प्रति वि रिणाः ॥३॥
पदार्थः
(अतृप्णुवन्तम्) भोगेष्वतृप्तम् (वियतम्) अजितेन्द्रियम् (अबुध्यम्) बुद्धिरहितम् (अबुध्यमानम्) उपदेशेनाऽप्यजानन्तम् (सुषुपाणम्) शोभनम्पानं यस्य तम् (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (सप्त) (प्रति) (प्रवतः) अधोमार्गान् (आशयानम्) (अहिम्) मेघम् (वज्रेण) (वि) (रिणाः) हिंस्याः (अपर्वन्) अपर्वणि पर्वरहिते समये ॥३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यः किरणैर्मेघञ्छिन्नङ्कृत्वा भूमौ निपात्य विविधेषु मार्गेषु वाहयति तथैव विद्ययाऽविद्यां हत्वा दण्डेनाधार्मिकान् कारगृहे निपात्य बहुशाखां राजनीतिं सर्वत्र प्रचालयेत् ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्ययुक्त ! आप जैसे सूर्य (वज्रेण) वज्र से (आशयानम्) सब ओर से सोते हुए (अहिम्) मेघ का नाश करके (सप्त) सात (प्रवतः) नीच के मार्गों को प्राप्त कराता है, वैसे ही (अपर्वन्) पर्व से रहित समय में (अतृप्णुवन्तम्) भोगों में नहीं तृप्त (सुषुपाणम्) उत्तम पानयुक्त (वियतम्) नहीं जितेन्द्रिय (अबुध्यम्) बुद्धि से रहित (अबुध्यमानम्) उपदेश से भी नहीं जानते हुए अधार्मिक जन की दण्ड से (प्रति, वि, रिणाः) विशेष हिंसा करें ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य किरणों से मेघ को काट के और पृथिवी पर गिरा के नाना प्रकार के मार्गों में बहाता है, वैसे ही विद्या से अविद्या का नाश करके दण्ड से अधार्मिक पुरुषों को कारगृह अर्थात् जेलखाने में छोड़ के बहुत शाखायुक्त नीति का सर्वत्र प्रचार करे ॥३॥
विषय
काम का संहार
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो! आप (सप्त) = सात (प्रवतः) = प्रति निम्नमार्गों में (आशयानम्) = निवास करनेवाले (अहिम्) = इस वासनात्मक वृत्त को (वज्रेण) = क्रियाशीलता रूप वज्र द्वारा (अपर्वन्) = अपर्व रूप में [Without a joint] (विरिणा:) = नष्ट कर देते हैं। इस वासना को इस रूप में नष्ट कर देते हैं कि इसका एक भी पर्व [जोड़] बचता नहीं। यह वासना ही तो सातों मर्यादाओं को तोड़कर हमें निम्नमार्ग की ओर ले जानेवाली है। 'सप्त मर्यादाः कवयस्ततक्षुः' । शरीर में प्रतितित (स्थापित) सात ऋषि इन मर्यादाओं का पालन करते हैं। आहि वृत्र वासना इनका विनाश करती है। प्रभुकृपा से क्रियाशील बनकर हम इन वासनाओं को विनष्ट करते हैं । [२] यह (अहि अतृप्णुवन्तम्) = कभी न तृप्त होनेवाला है 'न जातु कामः कामानापभोगेन शाम्यति' । (वियतम्) = सब संयमों का तोड़नेवाला- उच्छृङ्खल है। (अबुध्यम्) = इसको समझना बड़ा कठिन है, 'मनसि-ज' है न जाने कब इसका आक्रमण हो जाता है। (अबुध्यमानम्) = ज्ञान को विनष्ट करनेवाला है 'ज्ञानिनो नित्यवैरिणा'। (सुषुपाणम्) = सुला-सा देनेवाला है चेतना को विनष्ट करनेवाला है। इसको नष्ट करके प्रभु हमारा कल्याण करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- अत्यन्त प्रबल इस काम को प्रभु ही हमें क्रियाशीलता रूप वज्र देकर विनष्ट करते हैं ।
विषय
शत्रु पर आक्रमण का आदेश
भावार्थ
सूर्य जिस प्रकार (वज्रेण) तेज से (आशयानम् अहिम्) व्यापक मेघ को छिन्न भिन्न करता है उसी प्रकार हे राजन् ! (अपर्वन्) 'पर्व' अर्थात् पालन और पूर्ण बल से रहित अवसर में (सप्त प्रवतः प्रति) अधीनस्थ, नीचे के सातों प्रकृतियों को (आशयानम्) व्यापे हुए, सातों पर अधिकार किये हुए या सातों के प्रति प्रमाद से सोते हुए और (अतृप्णुवन्तम्) विषय विलासों से तृप्त न होने वाले अति विषय विलासी, (वियतम्) विशृंखल अजितेन्द्रिय, (अबुध्यम्) अज्ञानी, (अबुध्यमानं) चेताने पर भी न चेतने वाले, (सु-सु-पानम्) खूब मदिरादि पान में मत्त वा (सु-सुपानम्) निरन्तर सोने वाले असावधान, शत्रु को हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (वज्रेण) शस्त्रास्त्र बल से (वि रिणाः) विविध प्रकार से नाश कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ विराट् त्रिष्टुप् । २, ६ निचृत्त्रिष्टुप ३, ५, ८ त्रिष्टुप्। ४, ६ भुरिक् पंक्तिः। ७, १० पंक्तिः । ११ निचृतपंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य किरणांद्वारे मेघांना छिन्नभिन्न करून पृथ्वीवर वर्षाव करून नाना मार्गांनी प्रवाहित करतो तसेच विद्येने अविद्येचा नाश करून, दंड देऊन अधार्मिक पुरुषांना तुरुंगात घालावे व नीतीचा सर्वत्र प्रचार करावा. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of light, power and excellence, ruler of the world, with a stroke of the thunderbolt destroy without relent the serpentine demon, Vrtra, insatiable, uncontrollable, unawakened, incorrigible, inebriated, blocking up and sleeping over seven streams of the onward flow of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a king are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! you are endowed with abundant wealth. The sun destroys the slumbering clouds and sends it down to seven law regions (very low on earth) with its rays. Like wise, you should punish an unrighteous enemy. who is not satisfied with worldly enjoyments (is insatiable). Out of proper season, he takes drinks of various kinds, loses self-control with its kick, is not intelligent and does not mend his ways through the sermons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the sun pierces the clouds with its rays, and makes it rain down on earth and flow in various channels, in the same manner, a king should dispel ignorance through knowledge. He should remove wrong persons in the faith and work out polities with details.
Translator's Notes
The seven downward paths or low regions require further investigation and research.
Foot Notes
(वियतम् ) अजितेन्द्रियम् । = Not self-controlled. (प्रवतः ) अधोमार्गान् । = Downward paths. Low regions. (विरिणाः) हिंस्याः । = Punishable.
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