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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    प्राग्रुवो॑ नभ॒न्वो॒३॒॑ न वक्वा॑ ध्व॒स्रा अ॑पिन्वद्युव॒तीर्ऋ॑त॒ज्ञाः। धन्वा॒न्यज्राँ॑ अपृणक्तृषा॒णाँ अधो॒गिन्द्रः॑ स्त॒र्यो॒३॒॑ दंसु॑पत्नीः ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । अ॒ग्रुवः॑ । न॒भ॒न्वः॑ । न । वक्वाः॑ । ध्व॒स्राः । अ॒पि॒न्व॒त् । यु॒व॒तीः । ऋ॒त॒ऽज्ञाः । धन्वा॑नि । अज्रा॑न् । अ॒पृ॒ण॒क् । तृ॒षा॒णान् । अधो॑क् । इन्द्रः॑ । स्त॒र्यः॑ । दम्ऽसु॑पत्नीः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राग्रुवो नभन्वो३ न वक्वा ध्वस्रा अपिन्वद्युवतीर्ऋतज्ञाः। धन्वान्यज्राँ अपृणक्तृषाणाँ अधोगिन्द्रः स्तर्यो३ दंसुपत्नीः ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। अग्रुवः। नभन्वः। न। वक्वाः। ध्वस्राः। अपिन्वत्। युवतीः। ऋतऽज्ञाः। धन्वानि। अज्रान्। अपृणक्। तृषाणान्। अधोक्। इन्द्रः। स्तर्यः। दम्ऽसुपत्नीः ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ प्रजार्थं राजोपदेशविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! य इन्द्रो वक्वा ध्वस्रा नभन्वोऽग्रुवो न ऋतज्ञा युवतीः प्रापिन्वद् धन्वान्यज्रान् तृषाणानपृणग् याः स्तर्य्यो दंसुपत्नीः स्युस्ता नाधोक् स एव युष्माकं राजा भवतु ॥७॥

    पदार्थः

    (प्र) (अग्रुवः) या अग्रङ्गच्छन्ति ता नद्यः। अग्रुव इति नदीनामसु पठितम्। (निघं०१.१३) (नभन्वः) अरीणां हिंसका वीराः (न) (वक्वाः) वक्ताः (ध्वस्राः) ध्वंसिकाः (अपिन्वत्) सेवेत सिञ्चेत वा (युवतीः) प्राप्तयौवनाः स्त्रियः (ऋतज्ञाः) या ऋतञ्जानन्ति ताः (धन्वानि) स्थलप्रदेशान् (अज्रान्) येऽजन्ति नित्यङ्गच्छन्ति तान् (अपृणत्) तर्पयेत् (तृषाणान्) पिपासितान् (अधोक्) प्रायात् (इन्द्रः) (स्तर्यः) आच्छादिकाः (दंसुपत्नीः) दंसूनां कर्मकर्त्तॄणाम्पत्न्यः ॥७॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । यस्य राज्ञो नदीवत् शत्रुहिंसिका अन्नपानादितृप्ताः स्वविवराच्छादिकाः पतिव्रताः स्त्रिय इव राजभक्ताः सेनाः स्युस्स एव विजयम्प्राप्तुमर्हेत् ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब प्रजाओं के निमित्त राज-उपदेश को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (इन्द्रः) राजा (वक्वाः) टेढ़ी (ध्वस्राः) विध्वंस करनेवाली सेनाओं को और (नभन्वः) शत्रुओं के नाश करनेवाले वीर पुरुष जैसे (अग्रुवः) आगे चलनेवाली नदियों को (न) वैसे (ऋतज्ञाः) सत्य को जाननेवाली (युवतीः) युवती स्त्रियों को (प्र, अपिन्वत्) अच्छे प्रकार सेवे वा सींचे (धन्वानि) और स्थलप्रदेशों को अर्थात् जहाँ-तहाँ मार्गस्थानों को (अज्रान्) तथा नित्य चलनेवाले (तृषाणान्) पियासे मनुष्यादि प्राणियों को (अपृणक्) तृप्त करे वा जो (स्तर्य्यः) आच्छादन करनेवाली (दंसुपत्नीः) कर्म्म करनेवालों की स्त्रियाँ हों, उनके समान (अधोक्) पूर्ण करे अर्थात् उनके समान परिपूर्ण सेना रक्खे, वही आप लोगों का राजा होवे ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जिस राजा की नदी के सदृश और शत्रुओं के नाश करनेवाली, अन्न और पान आदि से तृप्त और अपने विवर के ढाँपनेवाली पतिव्रता स्त्रियों के सदृश राजभक्त सेना होवे, वही विजय प्राप्त होने योग्य है ॥७॥

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    विषय

    शत्रुहिंसिका सेनाओं के समान 'वेदवाणियाँ'

    पदार्थ

    [१] (नभन्वः) = शत्रुओं का संहार करनेवाली (वक्वाः न) = सेनाओं के समान (ध्वस्त्रा:) = सब वे प्रभु बुराइयों का ध्वंस करनेवाली (युवती:) = अच्छाइयों का हमारे साथ मिश्रण करनेवाली, (ऋतज्ञाः) = ऋत के ज्ञानवाली या ऋत को प्रादुर्भूत करनेवाली [जन्] (अग्रुव:) = इन ज्ञाननदियों को (इन्द्रः प्र अपिन्वत्) = प्रपूरित करते हैं। [२] इन ज्ञाननदियों के प्रवाहों द्वारा (धन्वानि) = मरुस्थलों को, (तृषाणान् अज्रान्) = प्यासे खेतों को, (अपृणक्) = [अ पूरयत्] पूरित करते हैं। हमारे वे जीवन, जो कि उत्तम सद्गुणों के बीजों के प्रादुर्भाव से रहित थे, उन्हें सद्गुणों के अंकुरित करने के द्वारा शोभायमान कर देते हैं। इन (दंसुपत्नी:) = दमनशील पुरुष की उत्तम रक्षिका (स्तर्य:) = निवृत्त प्रसवा गौ के समान हुई हुई वेदवाणीरूप गौओं को (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष ही (अधोक्) = दोहता है। जितेन्द्रिय पुरुष ही इन ज्ञानवाणियों को समझ पाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ—ये वेदवाणियाँ शत्रुहिंसिका सेनाओं के समान हैं। ये हमारे निर्गुण जीवनों को सगुण बना देती हैं। इन वेदवाणी रूप गौओं का दोहन जितेन्द्रिय पुरुष ही कर पाता है।

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    विषय

    नदियों को मेघवत् प्रजाओं को समृद्ध करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) मेघ वा सूर्य जिस प्रकार वृष्टि द्वारा (प्राग्रुवः) प्रबल वेग से जाने वाली (नभन्वः) आकाश से आने वाली वा करारे तोड़ने वाली, (वक्वा) वक्रगति से जाने वाली (ध्वस्त्राः) नगरादि का ध्वंस करने वाली, (ऋतज्ञाः) जलोत्पादक नदियों को (अपिन्वत्) सींचता और पूर्ण करता है। उसी प्रकार वह राजा अग्रुवः आगे बढ़ने वाली (नभन्वः) शत्रुओं को मारने वाली (वक्वा) व्यूहादि से वक्रगति चलने वाली, (ध्वस्त्राः) शत्रुओं के किलों को तोड़ने वाली, (ऋतज्ञाः) सत्य प्रतिज्ञा वाली (युवतीः) स्त्रियों के तुल्य है उनको (अपिन्वत्) पूर्ण करे। इसी प्रकार (इन्द्रः) पुरुष ऐश्वर्यवान् होकर (अग्रुवः) विवाह के अवसर पर आगे २ चलने वाली, (नभन्वः) पुरुष को अपने प्रेम सम्बन्ध में बांधने वाली, (वक्वा) सुन्दर वचन बोलने वाली अथवा (वक्वा) वक्र, सुन्दर गति वाली, (ध्वस्त्राः) खेद नाश करने वाली अथवा (ध्वस्त्राः = अध्वस्त्रा) सन्मार्ग से चलने वाली (ऋतज्ञाः) सत्य प्रतिज्ञा वाली (युवतीः) स्त्रियों को (प्र अपिन्वत्) वस्त्र, भूषण अन्नादि से पुष्ट करे और वीर्यादि से निषिक्त करे। वह (धन्वानि) मरु वा सूखे स्थल देशों को मेघवत् (ऋषाणान् अज्रान्) पियासे मार्गगामी पथिकों को (अपृणक्) तृप्त करे । और (दं-सु-पत्नीः) राष्ट्र को दमन करने वाले या इन्द्रिय दमनशील वा कार्यकर्त्ता लोगों की पत्नियों को (स्तर्यः) गौओं के समान (अधोक्) पूर्ण करे और (दंसु पत्नीः) दान्त स्वामी को पालन करने वाली भूमियों को गौओं के तुल्य दुहे, उनसे कर आदि प्राप्त करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ विराट् त्रिष्टुप् । २, ६ निचृत्त्रिष्टुप ३, ५, ८ त्रिष्टुप्। ४, ६ भुरिक् पंक्तिः। ७, १० पंक्तिः । ११ निचृतपंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्या राजाची नदीप्रमाणे पुढे जाणारी व शत्रूंचा नाश करणारी, अन्न व पान इत्यादीने तृप्त, आपली त्रुटी झाकणाऱ्या पतिव्रता स्त्रियांप्रमाणे राजभक्त सेना असेल तर तीच विजय प्राप्त करण्यायोग्य आहे. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Like the winding streams of rushing waters, let Indra, ruler of the world, develop the fatal armour as the destructive and defensive force. Let him enlist young and intelligent women dedicated to truth and progress. Let him plan and provide irrigation projects for the desert lands to restore their fertility. Similarly let him develop the cattle wealth and take care of the wives of the warriors and make them play a creative role in development.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a king towards his people are further detailed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Let that man be your king, who serves (supports) the curved in shape (disabled or handicapped or invalids) and destroys the armies. The brave persons destroy the enemies, floods their areas with the waters of the rivers, and respect the women who know the Vedas. He satisfies the thirst of those who go to desert areas (provides drinking water facilities) and does not make inroads on the wives of the workers and covers this drawbacks of the king's family.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That king alone achieves victory whose armies are like the rivers, and destroys the enemies. Satisfied with the articles of eating and drinking and remaining loyal like the chaste women, they cover the holes (drawbacks) of the kings' family.

    Foot Notes

    (अग्रुवः) या अग्रङ् गच्छन्ति ता नद्यः अग्रुव इति नदीनाम (NG 1,13) (नभन्वः ) अरीणां हिंसका वीरा: = Brave men who are destroyers of enemies. (धन्वानि ) स्थलप्रदेशान् = Dry places or deserts. (दंसुपत्नी:). दंसूनां कर्मकर्तृणाम्पत्न्यः = Wives of the workers.

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