ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 6
त्वं म॒हीम॒वनिं॑ वि॒श्वधे॑नां तु॒र्वीत॑ये व॒य्या॑य॒ क्षर॑न्तीम्। अर॑मयो॒ नम॒सैज॒दर्णः॑ सुतर॒णाँ अ॑कृणोरिन्द्र॒ सिन्धू॑न् ॥६॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । म॒हीम् । अ॒वनि॑म् । वि॒श्वऽधे॑नाम् । तु॒र्वीत॑ये । व॒य्या॑य । क्षर॑न्तीम् । अर॑मयः । नम॑सा । एज॑त् । अर्णः॑ । सु॒ऽत॒र॒णान् । अ॒कृ॒णोः॒ । इ॒न्द्र॒ । सिन्धू॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं महीमवनिं विश्वधेनां तुर्वीतये वय्याय क्षरन्तीम्। अरमयो नमसैजदर्णः सुतरणाँ अकृणोरिन्द्र सिन्धून् ॥६॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। महीम्। अवनिम्। विश्वऽधेनाम्। तुर्वीतये। वय्याय। क्षरन्तीम्। अरमयः। नमसा। एजत्। अर्णः। सुऽतरणान्। अकृणोः। इन्द्र। सिन्धून् ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजगुणानाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! त्वं तुर्वीतये वय्याय विश्वधेनां क्षरन्तीमवनिम्महीम्प्राप्याऽस्मान्नमसाऽरमयो यत्राऽर्ण एजत् तान् सिन्धून्त्सुतरणानकृणोः ॥६॥
पदार्थः
(त्वम्) (महीम्) पृथिवीम् (अवनिम्) रक्षिकाम् (विश्वधेनाम्) समग्रवाचम् (तुर्वीतये) शत्रूणां हिंसकाय (वय्याय) प्राप्तव्याय सुखाय (क्षरन्तीम्) प्रापयन्तीम् (अरमयः) रमय (नमसा) (एजत्) कम्पते (अर्णः) उदकम् (सुतरणान्) सुखं तरणं येषान्तान् (अकृणोः) कुर्याः (इन्द्र) राजन् ! (सिन्धून्) नदान् ॥६॥
भावार्थः
हे राजन् ! भवान् यदि राज्यम्प्राप्य स्वयमेवाऽऽनन्द्याऽस्मान्नाऽऽनन्दयेत्तर्हि तवाऽऽनन्दः क्षिपन्नश्येद्भवान् सर्वेषां सुखाय नदीनदतडागसमुद्रादीनान्तरणाय नौकादीन्निर्माय धनाढ्यान् सततं सम्पादयतु ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजगुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) राजन् ! (त्वम्) आप (तुर्वीतये) शत्रुओं के नाश करनेवाले के और (वय्याय) प्राप्त होने योग्य सुख के लिये (विश्वधेनाम्) सम्पूर्ण वाणी जिसके लिये उस (क्षरन्तीम्) प्राप्त कराती हुई (अवनिम्) रक्षा करनेवाली (महीम्) पृथिवी को प्राप्त होकर हम लोगों को (नमसा) अन्न आदि से (अरमयः) रमाओ और जिनमें (अर्णः) जल (एजत्) कम्पता है, उन (सिन्धून्) नदों को (सुतरणान्) सुखपूर्वक तरना जिनका ऐसे (अकृणोः) करो ॥६॥
भावार्थ
हे राजन् ! आप जो राज्य को प्राप्त हो, आप ही आनन्दित हो हम लोगों को नहीं आनन्द देवें तो आपका आनन्द शीघ्र नष्ट हो और आप सब लोगों के सुख के लिये नदी, नद, तड़ाग और समुद्र आदिकों के पार उतरने के लिये नौका आदि बना के धनाढ्य निरन्तर करिये ॥६॥
विषय
तुर्वीति व वय्य के लिए
पदार्थ
[१] (त्वम्) = हे प्रभो! आप इस (महीम्) = अतिशयेन महत्त्वपूर्ण (अवनिम्) = रक्षा करनेवाली (विश्वधेनाम्) = सब का प्रीणन करनेवाली वेदवाणी को (नमसा) = नमन के साथ (अरमयः) = रमणयुक्त करते हैं। उस वेदवाणी को, जो कि (तुर्वीतये) = त्वरा से शत्रुओं का असन [क्षेपण] करनेवालों के लिए तथा (वय्याय) = कर्मतन्तु का विस्तार करनेवाले के लिए (एजत् अर्णः क्षरन्तीम्) = वासनाओं को कम्पित करके दूर करनेवाले ज्ञानजल को क्षरित करती है । वस्तुतः इस तुर्वीति और वय्य को प्रभुकृपा से ही ज्ञान का यह जल प्राप्त होता है । [२] हे इन्द्र! आप इस तुर्वीति और वय्य के लिए (सिन्धून्) = ज्ञानसमुद्रों को सुतरणान् खूब तैरने योग्य अगाध ज्ञान-बल युक्त कृधि करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम त्वरा से वासनाओं को परे फेंकनेवाले तुर्वीति बनें। निरन्तर कर्मतन्तु का विस्तार करनेवाले वय्य बनें । प्रभु हमें वेदवाणी द्वारा ज्ञान-जल प्राप्त कराएँगे ।
विषय
भूमि माता की सेवा
भावार्थ
हे (इन्द्र) शत्रु हनन करने वाले राजन् ! तू (महीम्) बड़ी भारी (विश्वधेनाम्) सबको आनन्द-रस से तृप्त करने वाली (अवनिं) ज्ञान और रक्षा को देने वाली और (तुर्वीतये) शत्रुओं को हिंसा करने वाले और (वय्याय) रक्षा करने योग्य दोनों के लिये (क्षरन्तीम्) अन्न रस आदि गोमाता के समान क्षरण करती हुई, देती हुई वाणी और भूमि को (नमसा) विनय से और (नमसा) दुष्टों को नमाने वाले दण्ड से (अरमयः) प्रसन्न कर और जहां (अर्णः) जल (एजत्) चले उन (सिन्धून्) वेग से चलने वाले महानदों को और उनके सह वेगगामी सैन्यों को भी (सुतरणान्) सुख से पार करने योग्य (अकृणोः) बना।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ विराट् त्रिष्टुप् । २, ६ निचृत्त्रिष्टुप ३, ५, ८ त्रिष्टुप्। ४, ६ भुरिक् पंक्तिः। ७, १० पंक्तिः । ११ निचृतपंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! तू राज्य प्राप्त करून स्वतः आनंदित होऊन आम्हाला आनंद दिला नाहीस, तर तुझा आनंद लवकर नष्ट होईल. सर्व लोकांच्या सुखासाठी नदी, नद, तलाव व समुद्र इत्यादी पार करण्यासाठी नौका इत्यादी बनवून त्यांना निरंतर धनाढ्य कर. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord ruler of the world, with thanks and homage to nature and her maker, serve the earth, great protective mother of her children, universal sustainer of life overflowing with nourishment for the defender of humanity and destroyer of enmity for the sake of peace and well being of all. Fill the earth with food and plenty, make her a lovely place for living, let the streams ripple and flow, make the seas roll, inviting all to surf and swim and navigate, and cross the storms of existence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a king are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! having won vast tracts of land, where several kinds of speakers live for the attainment of happiness and destruction of enemies, make us delighted with humility. Let our flotilla of boats and ships be able to cross the great rivers and oceans easily for the happiness and convenience of all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king ! if you do not gladden us after receiving the rulership of the State and make happy only yourself, your joy will soon fade away. You should make all people rich by making arrangements for the build-up of boats and steamers to cross the rivers, streams and oceans.
Translator's Notes
Sayanacharya has taken तुर्वीतये and वय्याय as Proper Nouns and interpreted them thus saying तुर्वीतिनाम्ने राज्ञे-वय्या नाम्ने च and Prof. Wilson, Griffith and other western scholars have followed it inadvertently. Fundamentally, they took the wrong lines. Griffith has added in the foot-note Turveeti has been mentioned frequently who had been protected by Indra, and Vayya is said to have been his father and companion. Rishi Dayananda Sarasvati's interpretation is correct and significant as shown in the purport.
Foot Notes
(विश्त्रघेनाम् ) समग्रवाचम् । धेना इति वाङ्नाम (NG 1.10) = Containing or making us hear all kinds of speeches. (तुर्वीतये ) शत्रुणां हिंसकाय | = For the destroyer of enemies. (वय्याय) प्राप्तव्याय सुखाय। = For the happiness to be attained.
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