ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 25/ मन्त्र 5
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न तं जि॑नन्ति ब॒हवो॒ न द॒भ्रा उ॒र्व॑स्मा॒ अदि॑तिः॒ शर्म॑ यंसत्। प्रि॒यः सु॒कृत्प्रि॒य इन्द्रे॑ मना॒युः प्रि॒यः सु॑प्रा॒वीः प्रि॒यो अ॑स्य सो॒मी ॥५॥
स्वर सहित पद पाठन । तम् । जि॒न॒न्ति॒ । ब॒हवः॑ । न । द॒भ्राः । उ॒रु । अ॒स्मै॒ । अदि॑तिः । शर्म॑ । यं॒स॒त् । प्रि॒यः । सु॒ऽकृत् । प्रि॒यः । इन्द्रे॑ । म॒ना॒युः । प्रि॒यः । सु॒प्र॒ऽअ॒वीः । प्रि॒यः । अ॒स्य॒ । सो॒मी ॥
स्वर रहित मन्त्र
न तं जिनन्ति बहवो न दभ्रा उर्वस्मा अदितिः शर्म यंसत्। प्रियः सुकृत्प्रिय इन्द्रे मनायुः प्रियः सुप्रावीः प्रियो अस्य सोमी ॥५॥
स्वर रहित पद पाठन। तम्। जिनन्ति। बहवः। न। दभ्राः। उरु। अस्मै। अदितिः। शर्म। यंसत्। प्रियः। सुऽकृत्। प्रियः। इन्द्रे। मनायुः। प्रियः। सुप्रऽअवीः। प्रियः। अस्य। सोमी ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 25; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! य इन्द्रे प्रियः सुकृज्जनेषु प्रियः प्रियेषु मनायुर्धर्म्येण प्रियो विद्यासु सुप्रावीर्विद्वत्सु प्रियोऽस्य जगतो मध्ये सोमी वर्त्तते तं शत्रवो न जिनन्ति बहवो दभ्रा न हिंसन्त्यस्मा अदितिरुरु शर्म यंसत् ॥५॥
पदार्थः
(न) (तम्) (जिनन्ति) जयन्ति। अत्र विकरणव्यत्ययः। (बहवः) अनेके (न) (दभ्राः) हिंसकाः (उरु) बहु (अस्मै) (अदितिः) माता (शर्म) सुखम् (यंसत्) ददाति (प्रियः) योऽन्यान् प्रीणाति सः (सुकृत्) सुष्ठु सत्यं कर्म्म करोति सः (प्रियः) प्रीतिकरः (इन्द्रे) परमैश्वर्य्ये (मनायुः) मन इवाचरति (प्रियः) हर्षशोकरहितः (सुप्रावीः) सुष्ठु शुभगुणप्राप्तः (प्रियः) कमनीयः (अस्य) (सोमी) सोमो बहुविधमैश्वर्य्यं विद्यते यस्य सः ॥५॥
भावार्थः
येऽजातशत्रवः परमेश्वरोपासकाः सर्वप्रियसाधका जना भवन्ति तान् कोऽपि शत्रुर्जेतुं न शक्नोति यथा मातरं श्रेष्ठं गृहं वा प्राप्य मनुष्यः सुखयति तथैव सर्वाणि सुखानि प्राप्य सततं मोदते ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (इन्द्रे) अत्यन्त ऐश्वर्य्य होने पर (प्रियः) अन्यों को प्रसन्न करने (सुकृत्) सत्य कर्म्म करने, जनों में (प्रियः) प्रीति करने और प्रियों में (मनायुः) मन के सदृश आचरण करनेवाला धर्म्मयुक्त कर्म्म से (प्रियः) आनन्द और शोक से रहित विद्याओं में (सुप्रावीः) अच्छे प्रकार उत्तम गुणों को प्राप्त विद्वानों में (प्रियः) सुन्दर और (अस्य) इस जगत् के मध्य में (सोमी) अनेक प्रकार के ऐश्वर्य्य से युक्त है (तम्) उसको शत्रु लोग (न) नहीं (जिनन्ति) जीतते हैं (बहवः) अनेक (दभ्राः) नाश करनेवाले (न) नहीं नाश करते हैं (अस्मै) इसके लिये (अदितिः) माता (उरु) बहुत (शर्म्म) सुख को (यंसत्) देती है ॥५॥
भावार्थ
जो शत्रुरहित परमेश्वर की उपासना करने और सब के प्रिय साधनेवाले जन होते हैं, उनको कोई भी शत्रु जीत नहीं सकता है और जैसे माता वा श्रेष्ठ गृह को प्राप्त होकर मनुष्य सुख का आचरण करता है, वैसे ही सब सुखों को प्राप्त होकर निरन्तर आनन्दित होता है ॥५॥
विषय
प्रभु का प्रिय कौन ?
पदार्थ
[१] गतमन्त्र के अनुसार प्रभुप्राप्ति के लिए सोम का सवन करनेवाले (तम्) = उस पुरुष को (न दभ्राः) = न कम और न (बहवः) = नां ही बहुत शत्रु (जिनन्ति) = हिंसित करनेवाले होते हैं। (अस्मै) = इस पुरुष के लिए (अदितिः) = स्वास्थ्य (उरु शर्म) = विशाल कल्याण को (यंसत्) = देता है। पूर्ण स्वस्थ होने से यह पुरुष अत्यन्त सुखी होता है। (२) (सुकृत्) = शोभन कर्मों को करनेवाला पुरुष (प्रियः) = इसे प्रिय होता है। (इन्द्रे) = उस प्रभु में (मनायुः) = विचारपूर्वक गति करनेवाला पुरुष (प्रियः) = मित्र होता है। (सुप्रावी:) = उत्तमता से प्रकर्षेण अपना रक्षण करनेवाला (प्रियः) = इस प्रभु को प्रिय होता है और सोमी सोम का रक्षण करनेवाला पुरुष प्रभु को प्रियः प्रिय होता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम 'सुकृत्, मनायु, सुप्रावी व सोमी' बनकर प्रभु के प्रिय बनें ।
विषय
सर्वोपरि शक्ति राजा ।
भावार्थ
(दभ्राः न) अल्प वीर्य के (बहवः) बहुत से भी जिस प्रकार बलवान् पुरुष को नहीं पराजय करते उसी प्रकार (बहवः) बहुत से (दभ्राः) हिंसक शत्रु भी (तं न जिनन्ति) उसको नहीं जीत सकते, (अस्मा) उसको (अदितिः) सूर्य के तुल्य गुरु (उरु) बहुत अधिक (शर्म यंसत्) सुख शरण प्रदान करे । (अस्य) उसका (सुकृत्) उत्तम कर्म करने और उत्तम आचरण करनेवाला (प्रियः) प्रिय होता है (इन्द्रे) अज्ञाननाशक गुरु के अधीन रहकर (मनायुः) ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा वाला शिष्य (अस्य प्रियः) उसको प्रिय होता है । (सु प्रावीः) उत्तम रीति से वीर्य रक्षा करने वाला जितेन्द्रिय (सोमी) वीर्यवान् शिष्य (अस्य प्रियः) उसका प्रिय होता है । (२) उस पुरुष को बहुत से शत्रु भी नाश नहीं कर सकते जिस को अखण्ड शक्ति प्रजा वा राजा शरण देता है । सदाचारी, ज्ञान का और वीर्य का उत्तम रक्षक और ऐश्वर्यवान् पुरुष उस राजा वा प्रभु को प्रिय हो । इति त्रयोदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ निचृत् पंक्तिः । २,८ स्वराट् पंक्तिः । ४, ६ भुरिक् पंक्तिः । ३, ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे अजातशत्रू, परमेश्वराचे उपासक, सर्वांचे प्रिय करणारे लोक असतात त्यांना कोणी शत्रू जिंकू शकत नाही. जशी माता किंवा उत्तम घर प्राप्त करून मनुष्य सुखाचे आचरण करतो, तसेच तो सर्व सुख प्राप्त करून सतत आनंदाने राहतो. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Neither many nor few, nor even the fiercest, can overpower him who acts in the service of Indra, governing power and presence of the universe. Indeed mother earth, in fact mother nature of imperishable wealth, blesses him with abundant peace and joy in a happy home, for, to Indra, the one who does good is dear, the lover of Divinity is dear, the follower of the path of rectitude is dear, and the creator of comfort, joy and enlightenment for life is dear to this lord.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The performance of duties is described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! enemies cannot conquer him nor other malevolent persons can harm him, who does noble deeds, is dear to God, and who is endeared among men on account of his good service to the people, who is thoughtful among the dear ones, and who is desired and loved by all. The answer is that one who is highly learned and virtuous, free from pleasure and grief and dear to the enlightened men and endowed with various kinds of wealth. Mother (God) bestows upon him much happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who are true devotees of God benefactors of or doers of good to all, and are popular without malice can not be conquered by enemies. As a man gets delight by being in the presence of the mother or good home, same way, such a man is ever delighted enjoying all kinds of happiness.
Foot Notes
(दभ्राः) हिंसकाः । दभ्नोति वधकर्मा (NG 2, 19 ) । = Violent, malevolent. (अदितिः) माता । = Mother. (सोमी) सोमो: बहुविधमैश्वर्यं विद्यते यस्य सः। = Prosperous, endowed with various kinds of wealth. (प्रियः) योऽन्यान् प्रीणाति स: । 2. प्रीतिकर: 3. हर्षशोकरहितः 4 कमनीयः । = He who pleases or satisfies all, he who loves others, who is free from pleasure and grief. अदिति: अदीना देवमात इति निरुक्ते (NG 4, 4, 23) अदितिद्यौरदितिरन्तरिक्ष मदितिर्माता स पिता स पुत्रः । ( Rig 1, 5, 16, 10) इति प्रामाण्यात् अदिति: माता।
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