ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 25/ मन्त्र 6
सु॒प्रा॒व्यः॑ प्राशु॒षाळे॒ष वी॒रः सुष्वेः॑ प॒क्तिं कृ॑णुते॒ केव॒लेन्द्रः॑। नासु॑ष्वेरा॒पिर्न सखा॒ न जा॒मिर्दु॑ष्प्रा॒व्यो॑ऽवह॒न्तेदवा॑चः ॥६॥
स्वर सहित पद पाठसु॒प्र॒ऽअ॒व्यः॑ । प्रा॒शु॒षाट् । ए॒षः । वी॒रः । सुस्वेः॑ । प॒क्तिम् । कृ॒णु॒ते॒ । केव॑ला । इन्द्रः॑ । न । असु॑स्वेः । आ॒पिः । न । सखा॑ । न । जा॒मिः । दुः॒प्र॒ऽअ॒व्यः॑ । अ॒व॒ऽह॒न्ता । इत् । अवा॑चः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुप्राव्यः प्राशुषाळेष वीरः सुष्वेः पक्तिं कृणुते केवलेन्द्रः। नासुष्वेरापिर्न सखा न जामिर्दुष्प्राव्योऽवहन्तेदवाचः ॥६॥
स्वर रहित पद पाठसुप्रऽअव्यः। प्राशुषाट्। एषः। वीरः। सुस्वेः। पक्तिम्। कृणुते। केवला। इन्द्रः। न। असुस्वेः। आपिः। न। सखा। न। जामिः। दुःप्रऽअव्यः। अवहन्ता। इत्। अवाचः ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 25; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजामात्यादिगुणानाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यः सुप्राव्यः प्राशुषाडेष वीर इन्द्रः सुष्वेः केवला पक्तिं कृणुते योऽसुष्वेरापिर्न सखा न जामिर्दुष्प्राव्योऽवाचोऽवहन्तेदेव विरोधं न कृणुते स एव सर्वस्य सुखदाता जायते ॥६॥
पदार्थः
(सुप्राव्यः) सुष्ठु रक्षितुं योग्यः (प्राशुषाट्) यः प्राशून् वेगवतश्शत्रून् सहते (एषः) वर्त्तमानः (वीरः) बलिष्ठः (सुष्वेः) सुष्ठु निष्पन्नस्याऽन्नस्य (पक्तिम्) पाकम् (कृणुते) करोति (केवला) केवलाम् (इन्द्रः) ऐश्वर्य्यवान् (न) (असुष्वेः) अलसस्याऽनिष्पादकस्य (आपिः) यः सर्वानाप्नोति (न) इव (सखा) सुहृत् (न) (जामिः) बन्धुः (दुष्प्राव्यः) दुःखेन प्रावितुं योग्यः (अवहन्ता) विरुद्धस्य हननकर्त्ता (इत्) एव (अवाचः) दुष्टवचनस्य ॥६॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । ये राजपुरुषाः सुसंस्कृतान्नं भुक्त्वा मित्रवद् बन्धुवद्वर्त्तित्वा दुःशीलान् घ्नन्ति न ते दारिद्र्यं पराजयञ्च प्राप्नुवन्ति ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राजा अमात्यादिकों के गुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (सुप्राव्यः) उत्तम प्रकार रक्षा करने योग्य (प्राशुषाट्) वेगयुक्त शत्रुओं को सहनेवाला (एषः) यह (वीरः) बलिष्ठ (इन्द्रः) ऐश्वर्य्ययुक्त जन (सुष्वेः) उत्तम प्रकार उत्पन्न अन्न के (केवला) केवल (पक्तिम्) पाक को (कृणुते) करता है और जो (असुष्वेः) आलस्य भरे हुए अर्थात् नहीं उत्पन्न करनेवाले के सम्बन्ध में (आपिः) सब को प्राप्त होनेवाले के (न) सदृश वा (सखा) मित्र के (न) सदृश (जामिः) बन्धु (दुष्प्राव्यः) दुःख से रक्षा करने योग्य और (अवाचः) दुष्ट वचनवाले के (अवहन्ता) विरुद्ध काम का हनन करनेवाला (इत्) ही विरोध को (न) नहीं करता है, वही सब का सुखदाता होता है ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो राजपुरुष उत्तम प्रकार संस्कारयुक्त अन्न का भोग तथा मित्र और बन्धुओं के सदृश वर्त्ताव करके दुष्ट स्वभाववालों का नाश करते, वे दारिद्र्य और पराजय को नहीं प्राप्त होते हैं ॥६॥
विषय
सुष्वि व अशुष्वि
पदार्थ
[१] (प्राशु-षाड्) = प्रकर्षेण शीघ्र ही शत्रुओं का अभिभव करनेवाला (एषः) = यह (वीरः) = शत्रुओं को कम्पित करनेवाला (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (सुप्राव्यः) = उत्तमता से प्रकर्षण गतिवाले (सुष्वे:) = उत्तम सोम का सवन करनेवाले पुरुष की (केवला) = असाधारण अवस्था [के] आनन्द में [बल] संचरण करानेवाले (पक्तिम्) = ज्ञान के परिपाक को (कृणुते) = करता है। प्रभु हमारे ज्ञान को परिपक्व करते हैं। वस्तुत: इस ज्ञान के परिपाक से ही हम प्रकृष्ट गतिवाले होते हैं और सोम का सवन करनेवाले बनते हैं। [२] (असुष्वेः) = सोम का सवन न करनेवाले का वे प्रभु (आपिः न) = मित्र नहीं होते। (न सखा) = इस अयजमान के वे प्रभु सखा नहीं होते। (न जामि:) = इसके प्रभु बन्धु नहीं होते। (दुष्प्राव्यः) = अशुभ तीव्र गतिवाले दुरुपगमनवाले (अवाचः) = प्रभु का स्तवन करनेवाले के प्रभु अवहन्ता इत् नाश ही करनेवाले होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ – उपासक के प्रभु मित्र हैं। न उपासक के विनष्ट करनेवाले हैं।
विषय
वह दुष्टों का कुछ नहीं लगता । अदाता कंजूस कदर्य को राजा प्रेम नहीं करता ।
भावार्थ
राजा (एषः) वह (सुप्राव्यः) उत्तम रीति से प्रजा को पालन करने में कुशल, (प्राशुषाट्) शीघ्र गामी शत्रुओं को पराजय करने वाला, (वीर) शूरवीर, (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् होकर (सुष्वे) उत्तम रीति से अन्नादि ऐश्वर्य उत्पन्न करने वाले प्रजाजन के हित के लिये (केवला) अकेला (पक्तिं) सूर्य के तुल्य अन्नादि का परिपाक, शत्रुओं का परिताप (कृणुते) करता है । वह (असुष्वेः) ऐश्वर्य अन्नादि उत्पन्न करने वाले निकम्मे मनुष्य का (न आपिः) न बन्धु है, (न सखा) न मित्र है, (न जामिः) न भाई है । वह (अवाचः) अयोग्य निन्दित वाणी बोलने वाले पुरुष का (अव-हन्ता) नाशकारी होकर (दुष्प्राव्यः) दुःख से प्राप्त करने योग्य है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ निचृत् पंक्तिः । २,८ स्वराट् पंक्तिः । ४, ६ भुरिक् पंक्तिः । ३, ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे पुरुष उत्तम प्रकारे संस्कारयुक्त अन्नाचे भोजन करतात व मित्र आणि बंधूप्रमाणे आचरण करतात, दुष्ट स्वभाव असणाऱ्यांचा नाश करतात ते दरिद्री व पराजित होत नाहीत. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, leader and ruler, instant destroyer of enmity, is openly accessible to the person who creates and produces good things and thus contributes positively to the peace, progress and happiness of life, and he fully protects and promotes such people and raises them to maturity as the sun ripens grain. But to the person who is uncreative, and malignant scandalizer, he is not accessible, not a friend, or a brother, or protector, in fact he is awfully opposed to such negatives.$(Creativity and a positive, contributive attitude to life is a value, while uncreativeness and a negative, destructive attitude is a dangerous disvalue. The former is to be protected and promoted, but the latter has to be opposed and eliminated.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now the attributes of the kings and ministers are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! this brave Indra (opulent king) is well worthy of protection, is capable to subdue the powerful enemies, and eats only the well-cooked good food. He is neither a friend in state dealings nor easily approachable. To the criminals, he does not give protection and slays the antagonistic condemnable and wicked persons of ignoble words.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The officers of the State who take well-cooked food, and deal with right persons like friends and relations, destroy the wicked persons. Such officers do not attract poverty, i.e. duly rewarded and are not defeated.
Foot Notes
(सुष्वे:) सुष्ठु निष्पन्नस्यान्नस्य। = Of well cooked good food. (असुष्वे) अलसस्यानिष्पादकस्य ! = Of a lazy person not producing anything useful for the State. (जामि:) बन्धु । जामि अतिरेकं नाम । समाना जातिर्यस्य:वोपजनः (NG 4, 3, 20)। = Brotherhood or friendship.
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