ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 25/ मन्त्र 7
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न रे॒वता॑ प॒णिना॑ स॒ख्यमिन्द्रोऽसु॑न्वता सुत॒पाः सं गृ॑णीते। आस्य॒ वेदः॑ खि॒दति॒ हन्ति॑ न॒ग्नं वि सुष्व॑ये प॒क्तये॒ केव॑लो भूत् ॥७॥
स्वर सहित पद पाठन । रे॒वता॑ । प॒णिना॑ । स॒ख्यम् । इन्द्रः॑ । असु॑न्वता । सु॒त॒ऽपाः । सम् । गृ॒णी॒ते॒ । आ । अ॒स्य॒ । वेदः॑ । खि॒दति॑ । हन्ति॑ । न॒ग्नम् । वि । सुस्व॑ये । प॒क्तये॑ । केव॑लः । भूत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
न रेवता पणिना सख्यमिन्द्रोऽसुन्वता सुतपाः सं गृणीते। आस्य वेदः खिदति हन्ति नग्नं वि सुष्वये पक्तये केवलो भूत् ॥७॥
स्वर रहित पद पाठन। रेवता। पणिना। सख्यम्। इन्द्रः। असुन्वता। सुतऽपाः। सम्। गृणीते। आ। अस्य। वेदः। खिदति। हन्ति। नग्नम्। वि। सुस्वये। पक्तये। केवलः। भूत् ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 25; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
यः सुतपा इन्द्रो रेवता पणिनाऽसुन्वता सह सख्यं न करोति सर्वेभ्यः सत्यं न्यायं सङ्गृणीते यः केवलः सन् सुष्वये पक्तये भूद्यो नग्नं विहन्त्यस्य वेदः कदाचिन्नाखिदति ॥७॥
पदार्थः
(न) (रेवता) प्रशस्तधनवता (पणिना) व्यवहर्त्रा वणिग्जनादिना (सख्यम्) मित्रभावम् (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् राजा (असुन्वता) अपुरुषार्थिना (सुतपाः) सुष्ठु धर्म्मात्मा रागद्वेषरहितः (सम्) (गृणीते) उपदिशति (आ) (अस्य) राज्ञः (वेदः) द्रव्यम् (खिदति) दैन्यं प्राप्नोति (हन्ति) (नग्नम्) निर्लज्जम् (वि) (सुष्वये) सुष्ठु निष्पादकाय (पक्तये) पाककर्त्रे (केवलः) असहायः (भूत्) भवति ॥७॥
भावार्थः
यो राजा धनादिलोभेन धनिनामुपरि प्रीतो दरिद्रान् प्रत्यप्रसन्नो न भवति, यो दुष्टान्त्सम्यग्दण्डयित्वा श्रेष्ठान् सततं रक्षति नैवाऽस्य राष्ट्रं कदाचित् खेदं प्राप्नोति ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जो (सुतपाः) उत्तम प्रकार धर्म्मात्मा और राग अर्थात् विषयों में प्रीति और प्राणियों में द्वेष से रहित (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्य्यवाला राजा (रेवता) श्रेष्ठ धनवाले (पणिना) व्यवहारी वैश्य जन आदि और (असुन्वता) नहीं पुरुषार्थ करनेवाले जन के साथ (सख्यम्) मित्रपने को (न) नहीं करता और सब को सत्य न्याय का (सम्, गृणीते) अच्छे प्रकार उपदेश देता है और जो (केवलः) सहायरहित हुआ (सुष्वये) उत्तम प्रकार उत्पन्न करनेवाले (पक्तये) पाककर्त्ता के लिये (भूत्) होता है और जो (नग्नम्) निर्लज्ज का (वि, हन्ति) उत्तम प्रकार नाश करता है (अस्य) इस राजा का (वेदः) द्रव्य कभी नहीं (आ, खिदति) दीनता अर्थात् नाश को प्राप्त होता है ॥७॥
भावार्थ
जो राजा धन आदि के लोभ से धनियों के ऊपर प्रसन्न और दरिद्रों के प्रति अप्रसन्न नहीं होता है और जो दुष्टों को उत्तम प्रकार दण्ड देकर श्रेष्ठों की निरन्तर रक्षा करता है, नहीं इस का राज्य कभी खेद को प्राप्त होता है ॥७॥
विषय
'सुष्वि व पक्ति' नकि 'देवान् पणि'
पदार्थ
[१] (सुतपा:) = अभियुत सोम का रक्षण करनेवाला (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (रेवता) = धनवान् (असुन्वता) = अयज्ञशील (पणिना) = लुब्ध वणिक् वृत्तिवाले पुरुष के साथ (सख्यम्) = मित्रता को (न संगृणीते) = नहीं स्वीकार करता [गृ=agrce] - इसकी मित्रता को प्रभु अच्छा नहीं समझते। [२] (अस्य) = इस असुन्वन् वणिक् के (वेदः) = धन को (आखिदति) = नष्ट कर देते हैं। (नग्नं हन्ति) = [न ग्ना] स्तुतिवाणी से रहित पुरुष को प्रभु विनष्ट करते हैं। वे प्रभु (सुष्वये) = सोम का सम्पादन करनेवाले यज्ञशील पक्तये-ज्ञान का परिपाक करनेवाले पुरुष के लिए (केवल:) = आनन्द में संचरित करनेवाले विभूत् विशेष रूप से होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम सुष्वि व पक्ति बनें। केवल धनार्जन में फँसे हुए अयज्ञशील न बन जाएँ । यही प्रभु की मित्रता की प्राप्ति का मार्ग है।
विषय
उस इन्द्र राजा के लिये सब की पुकार । (
भावार्थ
(रेवता) धनवान् (असुन्वता) राज्य के निमित्त ऐश्वर्य उत्पन्न न करने वाले (पणिना) व्यापारी के साथ (सुतपाः) ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र का पालक (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् राजा (सख्यं) मित्रभाव की (न संगृणीते) प्रतिज्ञा नहीं करता । (अस्य) ऐसे लोभी धनी के (वेदः) धन को वह (आ खिदति) छीन लेता है, ऐसे (नग्नं) स्तुति-वाणी से रहित या वाणी पर स्थिर न रहने वाले असत्यवादी निर्लज्ज को (हन्ति) दण्ड देता है । (सुष्वये) राजा के ऐश्वर्य की वृद्धि करने वाले, प्रजाजन के हित के लिये वह राजा (केवलः) अकेला ही, (पक्तये) उत्तम अन्नादि समृद्धि के लिये और शत्रु सन्ताप के लिये (वि भूत्) विविध प्रकार से समर्थ होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ निचृत् पंक्तिः । २,८ स्वराट् पंक्तिः । ४, ६ भुरिक् पंक्तिः । ३, ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो राजा धन इत्यादीच्या लोभाने धनिकांवर प्रसन्न व दरिद्री लोकांवर अप्रसन्न होत नाही व दुष्टांना उत्तम प्रकारे दंड देऊन श्रेष्ठांचे निरंतर रक्षण करतो, त्या राज्यात कधी दुःख उत्पन्न होत नाही. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Not with the miserly man of wealth does Indra bargain any friendship since he is the master creator of peace and joy and lover of honour and excellence. He does not acknowledge, much less approve of the wealth of the ungenerous. In fact, he exposes the wealth of the hoarder until, exposed and ashamed, he is reduced to nullity, because, basically and exclusively he is for the creative and generous who produce and mature the wealth of the nation to the state of honour and dignity.$merits
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The qualities of the king and ministers are underlined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The prosperous king who is very righteous and free from attachment and malice does not establish friendship with a lazy wealthy businessman. He teaches all to administer true justice. He takes sides only of a man who produces much for the state (with honest means. Ed.) and prepares good foodstuff. He slays a shameless wicked and debaucherous person. The wealth of such a noble king is not lost (and coffers are full. Ed.)
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The king of the state should be above approach. He neither favors a rich nor hurts the poor. He punishes well the wicked and protects good persons constantly, and therefore never suffers.
Foot Notes
(पणिना) व्यवहर्त्ता वणिग्जनादिना । = With a trader. (असुन्वत्रा) अपुरुषार्थिना । = Not industrious, lazy. (वेदः) द्रव्यम् । वेद इति धननाथ (NG 2, 10) = Wealth.
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