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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 41/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अश्व्य॑स्य॒ त्मना॒ रथ्य॑स्य पु॒ष्टेर्नित्य॑स्य रा॒यः पत॑यः स्याम। ता च॑क्रा॒णा ऊ॒तिभि॒र्नव्य॑सीभिरस्म॒त्रा रायो॑ नि॒युतः॑ सचन्ताम् ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्व्य॑स्य । त्मना॑ । रथ्य॑स्य । पु॒ष्टेः । नित्य॑स्य । रा॒यः । पत॑यः । स्या॒म॒ । ता । च॒क्रा॒णौ । ऊ॒तिऽभिः॑ । नव्य॑सीभिः । अ॒स्म॒ऽत्रा । रायः॑ । नि॒ऽयुतः॑ । स॒च॒न्ता॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्व्यस्य त्मना रथ्यस्य पुष्टेर्नित्यस्य रायः पतयः स्याम। ता चक्राणा ऊतिभिर्नव्यसीभिरस्मत्रा रायो नियुतः सचन्ताम् ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्व्यस्य। त्मना। रथ्यस्य। पुष्टेः। नित्यस्य। रायः। पतयः। स्याम। ता। चक्राणौ। ऊतिऽभिः। नव्यसीभिः। अस्मऽत्रा। रायः। निऽयुतः। सचन्ताम् ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 41; मन्त्र » 10
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ प्रजाविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा ता चक्राणौ नव्यसीभिरूतिभिरस्मत्रा रायः सम्बन्धं प्राप्नुयातां नियुतश्च सचन्तां तथा वयं त्मना स्वस्याश्व्यस्य रथ्यस्य पुष्टेर्नित्यस्य रायः पतयः स्याम ॥१०॥

    पदार्थः

    (अश्व्यस्य) अश्वेष्वाशुगामिषु भवस्य (त्मना) आत्मना (रथ्यस्य) रथेषु रमणीयेषु साधोः (पुष्टेः) (नित्यस्य) (रायः) धनस्य (पतयः) स्वामिनः (स्याम) (ता) तौ (चक्राणौ) कुर्वन्तौ (ऊतिभिः) रक्षादिभिः (नव्यसीभिः) (अस्मत्रा) अस्मासु वर्त्तमानस्य (रायः) (नियुतः) निश्चययुक्ताः (सचन्ताम्) सम्बध्नन्तु ॥१०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा युक्ताः पुरुषाः सर्वैश्वर्य्यमाप्नुवन्ति तथैव वयं सर्वाऽऽनन्दं प्राप्नुयामेतीच्छा कार्य्या ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब प्रजा विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (ता) वे (चक्राणौ) करते हुए दो जन (नव्यसीभिः) नवीन (ऊतिभिः) रक्षा आदि कर्मों से (अस्मत्रा) हम लोगों में वर्त्तमान (रायः) धन के सम्बन्ध को प्राप्त होवें और (नियुतः) निश्चययुक्त पदार्थ (सचन्ताम्) सम्बद्ध होवें, वैसे हम लोग (त्मना) आत्मा से अपने (अश्व्यस्य) शीघ्र चलनेवालों में उत्पन्न हुए (रथ्यस्य) रमण करने योग्य वाहनों में श्रेष्ठ (पुष्टेः) पुष्टि के सम्बन्ध में (नित्यस्य) नित्य वर्त्तमान (रायः) धन के (पतयः) स्वामी (स्थाम) होवें ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे युक्त अर्थात् कार्य में लगे हुए पुरुष सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य को प्राप्त होते हैं, वैसे हम लोग सम्पूर्ण आनन्द को प्राप्त होवें, ऐसी इच्छा करें ॥१०॥

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    विषय

    अश्व्य व रथ्य धन

    पदार्थ

    [१] हम (त्मना) = स्वयं, अर्थात् अपने पुरुषार्थ से (रायः) = धन के (पतयः) = स्वामी (स्याम) = हों उस धन के, जो कि (नित्यस्य) = अस्थिर नहीं है, (अश्व्यस्य) = उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाला है तथा (रथ्यस्य) = उत्तम शरीर रूप रथवाला है तथा (पुष्टे:) = हमारा उचित पोषण करनेवाला है। धन वही हमें धन्य बनानेवाला है, जिसके द्वारा इन्द्रियाँ सशक्त बनी रहें, शरीर दृढ़ बना रहे तथा परिवार के सभी व्यक्तियों का जिसके द्वारा उचित पोषण होता रहे। [२] (ता) = वे इन्द्र और वरुण (नव्यसीभिः ऊतिभिः) = स्तुत्य रक्षणों द्वारा (चक्राणा) = हमारे लिए सब कार्यों को सिद्ध करनेवाले हों। उनकी कृपा से (अस्मत्रा) = हमारे जीवन में (राय:) = सब ऐश्वर्य तथा नियुतः उत्तम इन्द्रियाश्व सचन्ताम् = समवेत हों। हमें ऐश्वर्य तथा उत्तम इन्द्रियाश्व प्राप्त हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ– इन्द्र व वरुण की कृपा से हमें वे धन प्राप्त हों, जो कि इन्द्रियों व शरीर को उत्तम बनाएँ-हमारा ठीक से पोषण करें।

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    विषय

    अर्थपति ज्ञानपति, इन्द्र वरुण ।

    भावार्थ

    हम लोग (अश्व्यस्य) अश्वों से युक्त (रथ्यस्य) रथों से युक्त (पुष्टेः) पोषक (नित्यस्य रायः) नित्य, चिरस्थायी, धन के (त्मना) स्वयं अपने सामर्थ्य से (पतयः) पालक, स्वामी, (स्याम) होवें। (ता) वे दोनों स्त्री पुरुष (नव्यसीभिः) नये से नये (ऊतिभिः) रक्षा साधनों से (चक्राणा) काम करने वाले हों । और (अस्मत्रा) हमें (नियुतः रायः) लक्षों धन (सचन्ताम्) प्राप्त हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषि। इन्द्रावरुणौ देवते॥ छन्द:– १, ५, ६, ११ त्रिष्टुप्। २, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप् । ७ पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे कार्यमग्न असलेले पुरुष संपूर्ण ऐश्वर्य प्राप्त करतात तसे आम्हाला संपूर्ण आनंद प्राप्त व्हावा अशी माणसांनी इच्छा करावी. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May we, with our mind and soul, be masters of the lasting wealth of horses and chariots, of achievement and further progress, of health and nourishment, and may those two, Indra and Varuna, ruler and administrator, teacher and preacher, ever active with their latest modes of protection, promotion and progress join us and share our health.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the subjects are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! while doing good deeds, they (the king and his ministers or the teachers and preachers) come in contact with our wealth, with new protective powers. Being full of determination, they attain prosperity. In the same manner, Jel us become masters of undecaying riches comprising speedy horses, vehicles and nourishments.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should aspire to have all bliss as industrious men of self-control acquire all kinds of wealth or prosperity.

    Foot Notes

    (नियुतः) निश्चययुक्ताः । = Full of determination. (सचन्ताम् ) संबन्धन्तु। = May be united with or attain.

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