ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 41/ मन्त्र 3
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्रावरुणौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्रा॑ ह॒ रत्नं॒ वरु॑णा॒ धेष्ठे॒त्था नृभ्यः॑ शशमा॒नेभ्य॒स्ता। यदी॒ सखा॑या स॒ख्याय॒ सोमैः॑ सु॒तेभिः॑ सुप्र॒यसा॑ मा॒दयै॑ते ॥३॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑ । ह॒ । रत्न॑म् । वरु॑णा । धेष्ठा॑ । इ॒त्था । नृऽभ्यः॑ । श॒श॒मा॒नेभ्यः॑ । ता । यदि॑ । सखा॑या । स॒ख्याय॑ । सोमैः॑ । सु॒तेभिः॑ । सु॒ऽप्र॒यसा॑ । मा॒दयै॑ते॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रा ह रत्नं वरुणा धेष्ठेत्था नृभ्यः शशमानेभ्यस्ता। यदी सखाया सख्याय सोमैः सुतेभिः सुप्रयसा मादयैते ॥३॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रा। ह। रत्नम्। वरुणा। धेष्ठा। इत्था। नृऽभ्यः। शशमानेभ्यः। ता। यदि। सखाया। सख्याय। सोमैः। सुतेभिः। सुऽप्रयसा। मादयैते। इति ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 41; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे धेष्ठा इन्द्रावरुणा ! यदि युवाभ्यां शशमानेभ्यो नृभ्यो ह रत्नं दत्तं तर्हि ता सखाया भवन्तौ सख्याय सुप्रयसा सुतेभिस्सोमैर्मादयैत इत्था युवामप्यानन्दितौ भवेथाम् ॥३॥
पदार्थः
(इन्द्रा) राजन् (ह) किल (रत्नम्) रमणीयं धनम् (वरुणा) शुभगुणयुक्तप्रधान (धेष्ठा) धातारौ (इत्था) एवं प्रकारेण (नृभ्यः) मनुष्येभ्यः (शशमानेभ्यः) प्रशंसमानेभ्यः (ता) तौ (यदि) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (सखाया) परस्परं सुहृदौ (सख्याय) सख्युर्भावाय (सोमैः) ऐश्वर्यैः (सुतेभिः) निष्पादितैः (सुप्रयसा) सुष्ठु प्रयत्नेन (मादयैते) सुखयेताम् ॥३॥
भावार्थः
ये राजामात्याः शुभगुणानां जनानां धनादिना सत्कारं कुर्वन्ति त एवैश्वर्य्यं प्राप्य सदा मोदन्ते ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (धेष्ठा) धाता जनो (इन्द्रा) राजन् (वरुणा) और उत्तम गुणों से युक्त प्रधान ! (यदी) यदि जिन तुम दोनों ने (शशमानेभ्यः) प्रशंसा करते हुए (नृभ्यः) मनुष्यों के लिये (ह) ही (रत्नम्) सुन्दर धन दिया तो (ता) वे (सखाया) परस्पर मित्र आप दोनों (सख्याय) मित्रपन के लिये (सुप्रयसा) श्रेष्ठ प्रयत्न से (सुतेभिः) उत्पन्न किये गये (सोमैः) ऐश्वर्य्यों से (मादयैते) सुख को प्राप्त हों (इत्था) इस प्रकार से आप दोनों निश्चय आनन्दित हों ॥३॥
भावार्थ
जो राजा और मन्त्रीजन उत्तम गुणवाले मनुष्यों का धन आदि से सत्कार करते हैं, वे ही ऐश्वर्य्य को प्राप्त होकर सदा आनन्दित होते हैं ॥३॥
विषय
श्रेष्ठ रत्नों की प्राप्ति
पदार्थ
[१] हे (ता इन्द्रावरुणा) = प्रसिद्ध परमैश्वर्यशाली पापनिवारक देवो! आप (शशमानेभ्यः) = प्लुतगति से कर्म करनेवाले [शश प्लुत गतौ] और इन कर्मों द्वारा ही प्रभु का शंसन करनेवाले [शंसमानेभ्यः] (नृभ्यः) = लोगों के लिए (इत्था) = सचमुच (रत्नं धेष्ठा) = रमणीय धनों को धारण करते हो। [२] यह आप तब करते हो, (यद्) = जब कि (ई) = निश्चय से (सखाया) = मित्रभूत आप (सुतेभिः सोमैः) = उत्पन्न हुए हुए सोमों से तथा (सुप्रयसा) = उत्तम सात्त्विक अन्नों के सेवन से (सख्याय) = मित्रता के लिए (मादयैते) = प्रसन्न होते हो । इन्द्र और वरुण हमारे मित्र तभी बनते हैं, जब कि हम सात्त्विक अन्नों का सेवन करते हुए सोम का रक्षण करते हैं। यह सोमरक्षण ही हमें 'इन्द्र-वरुण' के जैसा बनने में समर्थ करता है। तभी हम रमणीय रत्नों के भागी होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - [क] हम सात्त्विक अन्नों का सेवन करें, [ख] सोम का शरीर में ही व्यापन करें, [ग] सदा कर्मशील बने रहें। यही मार्ग है 'इन्द्र व वरुण' के प्रिय बनने का ।
विषय
इन्द्र वरुण, स्त्री पुरुष, दिन रात्रि, प्राणापान ।
भावार्थ
हे (इन्द्रा वरुणा) पूर्वोक्त इन्द्र और वरुण ! ऐश्वर्यवन् ! और एक दूसरे को प्रेम से स्वीकार करने वाले स्त्री पुरुषो ! राजा प्रजा (सखाया) एक जनो ! (ता) वे आप दोनों ! (शशमानेभ्यः नृभ्यः) उत्तम ज्ञान का अनुशासन या उपदेश करने वाले विद्वान् पुरुषों और प्रधान नायकों को (रत्नं) उत्तम रत्न, रमण करने योग्य ज्ञान अन्न आदि का (धेष्ठा) देने वाले होओ। (यदि) जब कि साथ ही आप दोनों (सखाया) दूसरे के मित्र रहते हुए (सोमैः) उत्पन्न किये हुए (सुतेभिः) पुत्रों सहित, और उत्पन्न किये ऐश्वर्यों सहित (सुप्रयसा) उत्तम प्रयत्न और उत्तम अन्नादि से (मादयैते) स्वयं आनन्द लाभ करो और औरों को भी सुखी करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषि। इन्द्रावरुणौ देवते॥ छन्द:– १, ५, ६, ११ त्रिष्टुप्। २, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप् । ७ पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे राजा व मंत्रीगण उत्तमगुणयुक्त माणसांचा धन इत्यादींनी सत्कार करतात तेच ऐश्वर्य प्राप्त करून सदैव आनंदित राहतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra and Varuna, ruler and the elected people in power, if they hold and govern the jewel wealth of the nation in trust for the people, and the people would then appreciate, approve and admire them, then this way, they, both friends in agreement, for friendship of the people, would be happy and rejoice with the honour and prosperity of the law created with the honest effort of all in unison.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the ruler and his Council of the Ministers are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king and virtuous prime minister ! you are upholders and sustainers of all. You bestow gems and other valuable articles upon the admirers, and good virtuous and learned persons. They being friendly to each another, enjoy bliss with the wealth earned with labor. Thus, you may also enjoy bliss.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The kings and ministers always enjoy happiness on having acquired wealth, and honor virtuous persons with money and other things.
Foot Notes
(धेष्ठा ) धातारौ । (२) दुधान् -धारणपोषणयोः (मु०)। = Upholders and sustainers of all. (सोमैः) ऐश्वर्यैः । (सोमैः) पु-प्रसर्वश्वर्ययो: । अत्रैश्वर्यार्थे ग्रहणम् । = With wealth. (शशमानेभ्यः) प्रशंसमानेभ्यः शशमान: अर्चतिकर्मा (NG 3, 14), प्रशंसाऽप्यनार्थकम् । = Admirers.
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