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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 41/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    ता वां॒ धियोऽव॑से वाज॒यन्ती॑रा॒जिं न ज॑ग्मुर्युव॒यूः सु॑दानू। श्रि॒ये न गाव॒ उप॒ सोम॑मस्थु॒रिन्द्रं॒ गिरो॒ वरु॑णं मे मनी॒षाः ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताः । वा॒म् । धियः॑ । अव॑से । वा॒ज॒ऽयन्तीः॑ । आ॒जिम् । न । ज॒मुः॒ । यु॒व॒ऽयूः । सु॒दा॒नू॒ इति॑ सुऽदानू । श्रि॒ये । न । गावः॑ । उप॑ । सोम॑म् । अ॒स्थुः॒ । इन्द्र॑म् । गिरः॑ । वरु॑णम् । मे॒ । म॒नी॒षाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता वां धियोऽवसे वाजयन्तीराजिं न जग्मुर्युवयूः सुदानू। श्रिये न गाव उप सोममस्थुरिन्द्रं गिरो वरुणं मे मनीषाः ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ताः। वाम्। धियः। अवसे। वाजऽयन्तीः। आजिम्। न। जग्मुः। युवऽयूः। सुदानू इति सुऽदानू। श्रिये। न। गावः। उप। सोमम्। अस्थुः। इन्द्रम्। गिरः। वरुणम्। मे। मनीषाः ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 41; मन्त्र » 8
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा मे गिरो मनीषाश्च श्रिये गावो न सोममिन्द्रं वरुणमुपास्थुस्तथैव या वां धियोऽवसे वाजयन्तीराजिं न सुदानू युवयूः प्रजा जग्मुस्ता युवां सततं पालयत ॥८॥

    पदार्थः

    (ताः) (वाम्) युवयोः (धियः) प्रज्ञाः कर्माणि वा (अवसे) रक्षणाद्याय (वाजयन्तीः) ज्ञापयन्त्यः (आजिम्) सङ्ग्रामम् (न) इव (जग्मुः) प्राप्नुयुः (युवयूः) युवां कामयमानाः (सुदानू) सुष्ठु दातारौ (श्रिये) धनाय (न) इव (गावः) पृथिव्यो धेनवो वा (उप) (सोमम्) ऐश्वर्य्यम् (अस्थुः) प्राप्नुवन्तु (इन्द्रम्) परमसुखकारकम् (गिरः) सुशिक्षिता वाण्यः (वरुणम्) श्रेष्ठं जनम् (मे) मम (मनीषाः) प्रज्ञाः ॥८॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । यथा विदुष्यो मातरः स्वापत्यानि सुशिक्ष्य सम्पाल्य विद्यायुक्तानि कृत्वा सुखयन्ति तथैव राजा प्रजाः प्रति वर्त्तेत ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (मे) मेरी (गिरः) उत्तम प्रकार शिक्षित वाणियाँ और (मनीषाः) बुद्धियाँ (श्रिये) धन के लिये (गावः) पृथिवी वा गौओं के (न) सदृश (सोमम्) ऐश्वर्य्य (इन्द्रम्) अत्यन्त सुख करनेवाले (वरुणम्) श्रेष्ठ जन के (उप, अस्थुः) समीप प्राप्त होवें, वैसे ही जो (वाम्) आप दोनों की (धियः) बुद्धियाँ वा कर्म (अवसे) रक्षण आदि के लिये (वाजयन्तीः) जनाती हुई (आजिम्) संग्राम के (न) सदृश (सुदानू) उत्तम प्रकार दाता जनों को और (युवयूः) आप दोनों की कामना करते हुए प्रजाजनों को (जग्मुः) प्राप्त होवें (ता) उनका आप दोनों निरन्तर पालन करो ॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जैसे विद्यावाली माता अपने सन्तानों को उत्तम प्रकार शिक्षा दे पालन कर और विद्या से युक्त करके सुखी करती है, वैसे ही राजा प्रजा के प्रति वर्त्ताव करे ॥८॥

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    विषय

    इन्द्र व वरुण का स्तवन

    पदार्थ

    [१] हे (सुदानू) = शोभन ज्ञानों के देनेवाले इन्द्र और वरुण ! (वाजयन्ती:) = शक्ति की कामनावाली (युवयू:) = आप को प्राप्त करने की कामनावाली (ताः धियः) = वे स्तुतियाँ (अवसे) = रक्षण के लिए (वां जग्मुः) = आपके प्रति प्राप्त होती हैं। इस प्रकार प्राप्त होती हैं, (व) = जैसे कि (आजिम्) = युद्ध को सेनाएँ प्राप्त हुआ करती हैं। जीवन भी एक संग्राम है। इसमें विजय प्राप्ति के लिए अपने को सशक्त बनाने की कामनावाली प्रजाएँ इन्द्र और वरुण का स्तवन करती हैं। [२] (न) = जैसे गाव:- ये वेदवाणियाँ श्रिये शोभा के लिए सोमम्-सोमरक्षण करनेवाले विनीत विद्यार्थी को उप अस्थुः समीपता से प्राप्त होती हैं। इसी प्रकार मे गिरः = मेरी ये ज्ञानवाणियाँ तथा मनीषा:- मननपूर्वक की जाने वाली स्तुतियाँ इन्द्रं वरुणम् इन्द्र व वरुण का उपासन करती हैं। इन्द्र व वरुण का उपासन करती हुई ये मेरी शोभा की वृद्धि के लिए होती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- इन्द्र व वरुण की उपासना से ज्ञानवृद्धि को प्राप्त करके हम जीवन को शोभा सम्पन्न बनाएँ ।

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    विषय

    माता पितावत् उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्यवन् ! हे वरण योग्य श्रेष्ठ पुरुषो ! जिस प्रकार सेनाएं (आजिं न जग्मुः) संग्राम को लक्ष्य करके आगे बढ़ती हैं उसी प्रकार हे (सुदानू) उत्तम दानशील पुरुषो ! (वां) आप दोनों की (धियः) बुद्धियें और क्रियाएं (युवयूः) और आप दोनों को प्रेम से चाहने वाली (धियः) आप दोनों की पोषक प्रजाएं भी (अवसे) रक्षा के लिये (वाजयन्तीः) अन्नादि ऐश्वर्य से युक्त होकर (आजिं जग्मुः) शत्रुओं को उखाड़ फेंकने वाले और सब ओर विजयशील पुरुष को प्राप्त हों । और जिस प्रकार (गावः सोमम् श्रिये न) गो-दुग्ध अधिक कान्ति उत्पन्न करने के लिये सोम आदि औषधि को प्राप्त करते हैं उसी प्रकार (गावः) भूमियें और गो-पशु आदि सम्प्रदाएं (श्रिये) अधिक ऐश्वर्य वृद्धि के लिये (सोमम् उप आस्थुः) ऐश्वर्यवान् वा अभिषिक्त राजा को प्राप्त हों । और (गावः) ज्ञान वाणियें (सोमम्) सोम्य ब्रह्मचारी शिष्य को उसकी तेज सम्पत्ति बढ़ाने के लिये प्राप्त हों । (मे) मेरी (गिरः) वाणियें और (मे मनीषाः) बुद्धियां भी (इन्द्रं वरुणं उप अस्थुः) ऐश्वर्यवान् और सर्व दुःखहारी राजा और प्रभु को प्राप्त हों, उसकी उपासना, स्तुति करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषि। इन्द्रावरुणौ देवते॥ छन्द:– १, ५, ६, ११ त्रिष्टुप्। २, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप् । ७ पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी विदुषी माता आपल्या संतानांना उत्तम प्रकारचे शिक्षण देऊन पालन करून विद्येने युक्त करून सुखी करते, तसेच राजाने प्रजेबरोबर वागावे. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra and Varuna, benevolent energy and inspiration of nature and Divinity, all senses, mind and intelligence in search of efficiency and refinement in the business of life flow to you for the sake of protection and promotion. So may my mind, senses, vision and voices of exploration and celebration turn to Indra and Varuna for light and inspiration and abide by them for beauty and delicacy like the earth and other planets relating to the moon for the sweetness and beauty of their products.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the rulers are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! as my well-restrained or refined speeches, intellects or actions impress a noble person that gives great happiness and leads to prosperity, like the cows or lands for wealthy, in the same manner, your intellects give good knowledge for protection in the battle. Desiring your company, let them come because good and liberal donors nourish them constantly.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As highly learned mothers train their children well by nourishing them well and make them happy with education, so a king should behave with all his uncompartially subjects. (He should not be only like a father, but also like a mother to them.)

    Foot Notes

    (वाजयन्ती:) ज्ञापयन्त्यः । = Enlightening, giving knowledge. (आजिम्) सङ्ग्रामम् आजी इति संग्रामनाम (NG 2, 17 ) । = Battle. (गावः) पृथिव्यो धेनवो वा । गौरिति पृथिवीनाम (NG 1, 1)। = Lands or cows.

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