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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 41/ मन्त्र 11
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ नो॑ बृहन्ता बृह॒तीभि॑रू॒ती इन्द्र॑ या॒तं व॑रुण॒ वाज॑सातौ। यद्दि॒द्यवः॒ पृत॑नासु प्र॒क्रीळा॒न्तस्य॑ वां स्याम सनि॒तार॑ आ॒जेः ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । बृ॒ह॒न्ता॒ । बृ॒ह॒तीभिः॑ । ऊ॒ती । इन्द्र॑ । या॒तम् । व॒रु॒ण॒ । वाज॑ऽसातौ । यत् । दि॒द्यवः॑ । पृत॑नासु । प्र॒ऽक्रीळा॑न् । तस्य॑ । वाम् । स्या॒म॒ । स॒नि॒तारः॑ । ओ॒जः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो बृहन्ता बृहतीभिरूती इन्द्र यातं वरुण वाजसातौ। यद्दिद्यवः पृतनासु प्रक्रीळान्तस्य वां स्याम सनितार आजेः ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। नः। बृहन्ता। बृहतीभिः। ऊती। इन्द्र। यातम्। वरुण। वाजऽसातौ। यत्। दिद्यवः। पृतनासु। प्रऽकीळान्। तस्य। वाम्। स्याम। सनितारः। आजेः ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 41; मन्त्र » 11
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजप्रजाविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र वरुण ! बृहन्ता युवां बृहतीभिरूती वाजसातौ न आ यातम्। यद्ये दिद्यवस्तस्याजेः सनितारो वयं पृतनासु प्रक्रीळान् प्राप्य वां क्रीडां प्राप्ताः स्याम तानस्मान् युवां सत्कुर्य्यातम् ॥११॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (नः) अस्मान् (बृहन्ता) सद्गुणैर्महान्तौ (बृहतीभिः) महतीभिः (ऊती) रक्षाभिः। अत्र सुपां सुलुगिति भिसो लुक्। (इन्द्र) दुष्टदलक राजन् (यातम्) प्राप्नुतम् (वरुण) सेनेश (वाजसातौ) सङ्ग्रामे (यत्) ये (दिद्यवः) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमानास्तेजस्विनः (पृतनासु) सेनासु (प्रक्रीळान्) प्रकृष्टान् विहारान् (तस्य) (वाम्) युवाभ्याम् (स्याम) (सनितारः) विभक्तारः (आजेः) सङ्ग्रामस्य ॥११॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! यथा वयं भवतः प्रति प्रीत्या वर्त्तेमहि तथैव भवताप्यस्मासु वर्त्तितव्यमिति ॥११॥ अत्राध्यापकोपदेशकराजप्रजामात्यकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥११॥ इत्येकचत्वारिंशत्तमं सूक्तं षोडशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजप्रजाविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) दुष्टों के दलन करनेवाले राजन् और (वरुण) सेना के ईश ! (बृहन्ता) श्रेष्ठ गुणों से बड़े आप दोनों (बृहतीभिः) बड़ी (ऊती) रक्षा आदिकों से (वाजसातौ) सङ्ग्राम में (नः) हम लोगों को (आ) सब ओर से (यातम्) प्राप्त हूजिये (यत्) जो (दिद्यवः) विद्या और विनय से प्रकाशमान तेजस्वी (तस्य) उस (आजेः) सङ्ग्राम के (सनितारः) विभाग करनेवाले हम (पृतनासु) सेनाओं में (प्रक्रीळान्) उत्तम क्रीड़ा अर्थात् विहारों को प्राप्त होकर (वाम्) आप दोनों से विहार को प्राप्त हुए (स्याम) होवें, उन हम लोगों का आप दोनों सत्कार करें ॥११॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! जैसे हम लोग आपके प्रति प्रीति से वर्त्ताव करें, वैसा ही आपको भी चाहिये कि हम लोगों में वर्त्ताव करें ॥११॥ इस सूक्त में अध्यापक, उपदेशक, राजा, प्रजा और मन्त्री के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछिले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥११॥ यह इकतालीसवाँ सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    क्रियाशीलता व व्रतबन्धन

    पदार्थ

    [१] हे (बृहन्ता) = अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त (इन्द्र वरुण) = इन्द्र और वरुण! आप (वाजसातौ) = इस जीवनसंग्राम में (बृहतीभिः) = हमारी वृद्धि को कारणभूत (ऊती) = रक्षणों के साथ (न:) = हमें (आयातम्) = प्राप्त होओ। इन्द्र और वरुण की कृपा से ही हमने इस जीवनसंग्राम में विजयी बनना है । [२] (यद्) = जब (दिद्यवः) = दीप्त (अस्त्र पृतनासु) = शत्रु-सैन्यों पर (प्रक्रीडान्) = खेलनेवाले हों, (तस्य) = उस (वाम्) = आपके (आजे:) = संग्राम के (सनितार:) = सेवन करनेवाले (स्याम) = हों। हमारे जीवन के अध्यात्म संग्राम में काम क्रोध आदि शत्रु इन्द्र के वज्र से प्रहृत हों तथा वरुण के पाशों से जकड़े जाएँ। 'इन्द्र के वज्र' का भाव यह है कि हम जितेन्द्रिय बनकर सदा क्रियाशील बने रहें । 'वरुण के पाशों' का भाव यह है कि हम पापों के निवारण के लिए अपने को व्रतों के बन्धन में बाँधनेवाले हों। ऐसा होने पर ही हम अध्यात्म-संग्राम में विजयी बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम इन्द्र के उपासक बनकर जितेन्द्रिय व क्रियाशील हों। वरुण के उपासक बनकर व्रतों के बन्धन में अपने को बाँधकर निष्पाप बनें । इस प्रकार इन्द्र व वरुण का उपासक 'त्रसदस्यु' बनता है, जिससे दास्यव वृत्तियाँ भयभीत होकर दूर भागती हैं। यह 'पौरुकुत्स्य' होता है, अत्यन्त ही बुराई का संहार करनेवाला यह प्रार्थना करता है कि

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    विषय

    अर्थपति ज्ञानपति, इन्द्र वरुण ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र वरुण) ऐश्वर्यवन् ! हे सर्वश्रेष्ठ ! हे शत्रुहन्तः हे शत्रुवारक ! आप दोनों (बृहन्ता) बड़े शक्तिशाली हो । आप दोनों (वाजसातौ) संग्राम, अन्न और ऐश्वर्य के लाभ वा विभाग के अवसर में (नः आयातम्) हमें प्राप्त होओ । (यत्) जब (दिद्यवः) चमचमाते शस्त्र और शस्त्रधारी सैनिक लोग एवं विद्याविनय-सम्पन्न जन (पृतनासु) सेनाओं और मनुष्यों के बीच (प्रकीळान्) नाना उत्कृष्ट युद्ध क्रीड़ाएं करें तब (तस्य वां आजेः) आप दोनों के उस संग्राम के हम (सनितारः) भागी (स्यास) होवें । इति षोडशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषि। इन्द्रावरुणौ देवते॥ छन्द:– १, ५, ६, ११ त्रिष्टुप्। २, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप् । ७ पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा! जसे आम्ही तुझ्याशी प्रेमाने वागतो तसे तूही आमच्याशी वाग. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra ruler, and Varuna, administrator and commander, great and majestic, come to us with the best of protection, promotion, progress and welfare and join our battle of life so that, participating in the struggles of that battle joining and shining together with you, we may play our game with the best of capacities.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the rulers and their subjects are further explained.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O foe-destroying king and Commander-in-Chief of the army! you are great. Come to us in battles with your great protection. You should give due respect to us who shine with knowledge and humility, and take part in the battles, taking interest in good games and sports.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king! as we treat you lovingly, so you should also treat us with love.

    Foot Notes

    (वरुण) सेनेश । = Commander-in-Chief of the army. (दिद्यवः) विद्या विनयाभ्यां प्रकाशमानास्तेजस्विनः । दिवु-क्रीडा विजिगीषाव्यवहारदयुतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु (दि०) । अत्र दयुत्यर्थग्रहणम् । = Shining with knowledge and humility and full of splendor. (वाजसातौ) सङ्ग्रामे । वाजसातविति संग्रामनाम (NG 2, 16 ) । वरुण: वृञ्-वारणे वारयति दुष्टान् शत्रूनिति वरुण: सेनेश: = Annihilator of wickeds in the battlefield.

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