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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 41/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रा॑ ह॒ यो वरु॑णा च॒क्र आ॒पी दे॒वौ मर्तः॑ स॒ख्याय॒ प्रय॑स्वान्। स ह॑न्ति वृ॒त्रा स॑मि॒थेषु॒ शत्रू॒नवो॑भिर्वा म॒हद्भिः॒ स प्र शृ॑ण्वे ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑ । ह॒ । यः । वरु॑णा । च॒क्रे । आ॒पी इति॑ । दे॒वौ । मर्तः॑ । स॒ख्याय॑ । प्रय॑स्वान् । सः । ह॒न्ति॒ । वृ॒त्रा । स॒म्ऽइ॒थेषु॑ । शत्रू॑न् । अवः॑ऽभिः । वा॒ । म॒हत्ऽभिः॑ । सः । प्र । शृ॒ण्वे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रा ह यो वरुणा चक्र आपी देवौ मर्तः सख्याय प्रयस्वान्। स हन्ति वृत्रा समिथेषु शत्रूनवोभिर्वा महद्भिः स प्र शृण्वे ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रा। ह। यः। वरुणा। चक्रे। आपी इति। देवौ। मर्तः। सख्याय। प्रयस्वान्। सः। हन्ति। वृत्रा। सम्ऽइथेषु। शत्रून्। अवःऽभिः। वा। महत्ऽभिः। सः। प्र। शृण्वे ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 41; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजामात्यविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्रा वरुणापी देवौ ! युवयोर्यः प्रयस्वान् मर्त्तः सख्याय प्र चक्रे स हाऽवोभिस्स वा महद्भिः समिथेषु वृत्रा शत्रून् हन्ति तमहं कीर्तिमन्तं शृण्वे ॥२॥

    पदार्थः

    (इन्द्रा) इन्द्र (ह) किल (यः) (वरुणा) श्रेष्ठः (चक्रे) (आपी) सकलविद्यां प्राप्तौ (देवौ) विद्वांसौ (मर्त्तः) मनुष्यः (सख्याय) सख्युर्भावाय (प्रयस्वान्) प्रयत्नवान् (सः) (हन्ति) (वृत्रा) वृत्राणि शत्रुसैन्यानि (समिथेषु) सङ्ग्रामेषु (शत्रून्) (अवोभिः) रक्षणादिभिः (वा) (महद्भिः) महाशयैः (सः) (प्र) (शृण्वे) ॥२॥

    भावार्थः

    हे न्यायशीलौ राजामात्यौ ! ये भवत्सत्कर्त्तारः शत्रूणां जेतारो महाशयास्सन्धयो भवत्सख्यप्रिया विजयिनो भवेयुस्तान् सत्कृत्य रक्षेतम् ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजा और अमात्य विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्रा) अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त (वरुणा) उत्तम (आपी) सम्पूर्ण विद्याओं को प्राप्त (देवौ) विद्वान् जनो ! आप लोगों के मध्य में (यः) (प्रयस्वान्) प्रयत्न करनेवाला (मर्त्तः) मनुष्य (सख्याय) मित्रपन के लिये (प्र, चक्रे) उत्तमता करता है (सः, ह) वही (अवोभिः) रक्षण आदिकों के साथ (वा) वा (सः) वह (महद्भिः) महाशयों के साथ (समिथेषु) संग्रामों में (वृत्रा) शत्रुओं की सेनाओं और (शत्रून्) शत्रुओं का (हन्ति) नाश करता है, उसको मैं यशस्वी (शृण्वे) सुनता हूँ ॥२॥

    भावार्थ

    हे न्याय करनेवाले राजा और मन्त्रीजनो ! जो आप लोगों के सत्कार करने और शत्रुओं के जीतनेवाले महाशय अर्थात् गम्भीर अभिप्रायवाले, मेलयुक्त, आप लोगों की मित्रता में प्रीतिकर्त्ता, विजयी होवें उनका सत्कार करके रक्षा करो ॥२॥

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    विषय

    इन्द्र व वरुण के साथ मैत्री

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र में वर्णित 'नमस्वान् क्रतुमान् स्तोम' द्वारा (ह) = निश्चय से (यः) = जो (मर्तः) = मनुष्य (इन्द्रावरुणा देवौ) = परमैश्वर्यशाली पाप-निवारक देव को (आपी चक्रे) = मित्र बनाता है और जो (संख्याय) = इनकी मित्रता के लिए (प्रयस्वान्) = उद्योगवाला होता है। (सः) = वह (वृत्रा हन्ति) = ज्ञान की आवरणभूत सब वासनाओं को विनष्ट करनेवाला होता है। प्रभु की मित्रता में वासनारूप शत्रुओं का विनाश हो ही जाता है। महादेव के सामने कामदेव का क्या काम ? [२] यह इन्द्र और वरुण को अपना मित्र बनानेवाला व्यक्ति (समिथेषु) = संग्रामों में (शत्रून् हन्ति) = काम-क्रोध लोभ आदि शत्रुओं को विनष्ट करता है। (वा) = और (महद्भिः अवोभिः) = महान् रक्षणों से (सः) = वह (प्रशृण्वे) = प्रसिद्ध होता है यह बड़े बड़े प्रलोभनों में भी अपना रक्षण कर पाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम इन्द्र व वरुण के मित्र बनने का प्रयत्न करें। यह मैत्री ही हमें विजयी बनाएगी।

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    विषय

    विनीत शिष्य के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र-वरुणा) पूर्व कहे प्रकार के इन्द्र और वरुण ! ऐश्वर्ययुक्त एवं वरण करने योग्य और एक दूसरे का वरण करने वाले जनो ! हे (देवौ) ज्ञान के प्रकाश, विद्या एवं सत्संग के अभिलाषी जनो ! आप दोनों को (यः) जो (मर्त्तः) मनुष्य, (सख्याय) मित्र भाव की वृद्धि के लिये (प्रयस्वान्) अति उत्तम रीति से यत्नवान् होकर आप दोनों को (आपी चक्रे) एक दूसरे को प्राप्त करने वाला बन्धु बनाता है (सः) वह (समिथेषु शत्रून्) संग्रामों में शत्रुओं और परस्पर मिलने के अवसरों में (वृत्रा) विघ्नों को (हन्ति) विनाश करता है और (सः) वही (महद्भिः अवोभिः) बड़े २ रक्षाकारी साधनों, ज्ञानों, और अन्नादि तृप्तिकारक उपायों से (प्र शृण्वे) खूब प्रसिद्ध हो जाता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषि। इन्द्रावरुणौ देवते॥ छन्द:– १, ५, ६, ११ त्रिष्टुप्। २, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप् । ७ पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे न्यायी राजा व अमात्यांनो ! जे तुमचा सत्कार करणारे, शत्रूंना जिंकणारे, श्रेष्ठ पुरुषांशी मेळ घालणारे तुमच्याशी मैत्री करणारे व विजयी असतात त्यांचा सत्कार करून त्यांचे रक्षण करा. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra and Varuna, lord of power and of justice, abounding in strength and grace, generous and refulgent, the man who tries in honest action to win your friendship destroys darkness and evil and wins over enemies in battles with great weapons of defence and protection.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a king and his ministers are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O noble and wealthy king and prime minister, you are ever-industrious man and try to cultivate your friendship with those who are well-versed in various sciences. They (friends) slay his foes in battles with your protective powers and with the help of great warriors. I listen to him (king) as a renowned person.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O just king and prime minister! you should honor and protect the persons who respect you, conquer the enemies, are liberal minded, lovers of peace and desirous of cultivating friendship with you and are victorious.

    Foot Notes

    (प्रयस्वान्) प्रयत्नवान् | = Industrious (वृत्रा ) वृत्राणि शत्रुसैन्यानि । = The armies of enemies. (समिथेषु) सङ्ग्रामेषु । = In battles.

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