ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 42/ मन्त्र 10
ऋषिः - त्रसदस्युः पौरुकुत्स्यः
देवता - इन्द्रावरुणौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
रा॒या व॒यं स॑स॒वांसो॑ मदेम ह॒व्येन॑ दे॒वा यव॑सेन॒ गावः॑। तां धे॒नुमि॑न्द्रावरुणा यु॒वं नो॑ वि॒श्वाहा॑ धत्त॒मन॑पस्फुरन्तीम् ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठरा॒याः । व॒यम् । स॒स॒ऽवांसः॑ । म॒दे॒म॒ । ह॒व्येन॑ । दे॒वाः । यव॑सेन । गावः॑ । ताम् । धे॒नुम् । इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णा॒ । यु॒वम् । नः॒ । वि॒श्वाहा॑ । ध॒त्त॒म् । अन॑पऽस्फुरन्तीम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
राया वयं ससवांसो मदेम हव्येन देवा यवसेन गावः। तां धेनुमिन्द्रावरुणा युवं नो विश्वाहा धत्तमनपस्फुरन्तीम् ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठराया। वयम्। ससऽवांसः। मदेम। हव्येन। देवाः। यवसेन। गावः। ताम्। धेनुम्। इन्द्रावरुणा। युवम्। नः। विश्वाहा। धत्तम्। अनपऽस्फुरन्तीम् ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 42; मन्त्र » 10
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्विषयमाह ॥
अन्वयः
हव्येन देवा यवसेन गावो राया वयं ससवांसो मदेम। हे इन्द्रावरुणा ! युवं विश्वाहानपस्फुरन्तीं तां धेनुं नो धत्तम् ॥१०॥
पदार्थः
(राया) धनेन (वयम्) (ससवांसः) सुशयाना इव (मदेम) (हव्येन) दातुमादातुमर्हेण (देवाः) विद्वांसः (यवसेन) बुसादिनेव (गावः) (ताम्) (धेनुम्) सर्वकामदोग्ध्रीं वाचम् (इन्द्रावरुणा) अध्यापकोपदेशकौ (युवम्) युवाम् (नः) अस्मभ्यम् (विश्वाहा) सर्वाणि दिनानि (धत्तम्) (अनपस्फुरन्तीम्) दृढां निश्चलां प्रज्ञां सम्पादयन्तीम् ॥१०॥
भावार्थः
हे विद्वांसोऽस्मासु तादृशीं सर्वशास्त्रोक्तपदार्थविषयां वाचं स्थापयत येन वयं सदैवाऽऽनन्दिताः स्यामेति ॥१०॥ अत्र राजेश्वरोपासनाविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥१०॥ इति द्विचत्वारिंशत्तमं सूक्तमष्टादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब विद्वद्विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
(हव्येन) देने और ग्रहण करने योग्य वस्तु से (देवाः) विद्वान् जन (यवसेन) भूसा आदि से जैसे (गावः) गौवें वैसे (राया) धन से (वयम्) हम लोग (ससवांसः) उत्तम प्रकार शयन करते हुए से (मदेम) आनन्द करें। और हे (इन्द्रावरुणा) अध्यापक और उपदेशको ! (युवम्) आप दोनों (विश्वाहा) सब दिन (अनपस्फुरन्तीम्) दृढ़ निश्चल बुद्धि को उत्पन्न करती और (ताम्, धेनुम्) सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करती हुई उस वाणी को (नः) हम लोगों के लिये (धत्तम्) धारण कीजिये ॥१०॥
भावार्थ
हे विद्वानो ! हम लोगों में वैसी सम्पूर्ण शास्त्रों में कहे पदार्थविषयक वाणी को स्थित करो, जिससे हम लोग सदा ही आनन्दित होवें ॥१०॥ इस सूक्त में राजा, ईश्वर, ईश्वरोपासना और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछिले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥१०॥ यह बयालीसवाँ सूक्त और अठारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
यज्ञों द्वारा धन का संविभाग
पदार्थ
[१] (वयम्) = हम (राया) = धन के द्वारा (ससवांसः) = संविभाग करते हुए, अर्थात् सबके साथ मिलकर धन का उपभोग करते हुए (मदेम) = आनन्द का अनुभव करें। हमारे धनों में से (हव्येन) = हव्य द्वारा (देवा:) = सब वायु आदि देव अपने भाग को प्राप्त करें तथा (यवसेन) = घास आदि द्वारा (गाव:) = गौवें भी-पशु भी अपना भाग प्राप्त करनेवाले हों। हम 'ब्रह्मयज्ञ' द्वारा राष्ट्र के सब बच्चों के लिए धन का संविभाग करें। 'पितृयज्ञ' द्वारा अपने बड़ों के लिए तथा 'अतिथियज्ञ' द्वारा विद्वानों के लिए धन का संविभाग करते हुए, देवयज्ञ तथा बलिवैश्व देव यज्ञ भी अवश्य करें। [२] हे (इन्द्रावरुणा) = जितेन्द्रियता व निष्पापता के देवो! (युवम्) = आप (नः) = हमारे लिए (विश्वाहा) = सदा (ताम्) = उस (अनपस्फुरन्तीम्) = अविहिंसित (धेनुम्) = वेदवाणी रूप गौ को (धत्तम्) = धारण करो। वेदज्ञान प्राप्त करने के लिए जितेन्द्रियता व निष्पापता सहायक हैं।
भावार्थ
भावार्थ– धन को हम यज्ञों के द्वारा बाँटकर उपयुक्त करें। जितेन्द्रिय व निष्पाप बनकर वेदवाणी रूप गौ को प्राप्त करनेवाले हों । इस सूक्त के अनुसार यज्ञ करनेवाले व्यक्ति 'त्रसदस्यु पौरुकुत्स्य' कहलाते हैं। अगले सूक्त में 'सौहोत्र' कहलाते हैं। ये अत्यन्त सुखों का सेचन करनेवाले होने से 'पुरुमीढ' हैं और अपनी भी आहुति दे डालने से 'अजमीढ' हैं [अजो ego]। ये कहते हैं -
विषय
अध्यात्म व्याख्या ।
भावार्थ
(गावः यवसेन) गौ आदि पशु बुस आदि से जिस प्रकार खूब प्रसन्न और तृप्त होते हैं । उसी प्रकार (वयं) हम लोग (देवाः) दानशील, तेजस्वी, विद्वान् पुरुष (हव्येन) दान देने वा लेने योग्य ज्ञान वा धन आदि से (राया) ऐश्वर्य से (ससवांसः) सुखपूर्वक रहते हुए (मदेम) सुखी हों । हे उक्त दोनों विद्वान् जनो ! (युवं) आप दोनों (विश्व-हा) सर्वदा, (इन्द्रा वरुणा) इन्द्र और वरुण (अनपस्फुरन्तीम्) न तड़पती गौ के समान कष्टों से पीड़ित न होती हुई (तां धेनुम्) उस सर्वैश्वर्य-दुघा, प्रजा, भूमि और उत्तम दृढ़ निश्चय प्रज्ञा को देने वाली वाणी को (धत्तम्) धारण पोषण करो और अन्यों को प्रदान करो। इत्यष्टादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रसदस्युः पौरुकुत्स्य ऋषिः॥ १-६ आत्मा। ७–१० इन्द्रावरुणौ देवते॥ छन्द:– १, २, ३, ४, ६, ९ निचृत्त्रिष्टुप। ७ विराट् त्रिष्टुप्। ८ भुरिक् त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्। ५ निचृत् पंक्तिः॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे विद्वानांनो! आमच्यामध्ये संपूर्ण शास्त्रोक्त पदार्थविषयाची अशी वाणी स्थापित करा, ज्यामुळे आम्ही सदैव आनंदित राहावे. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let us rejoice with the wealth of peace and refreshment with energy while we sleep, just as the devas, divine powers of nature, are replenished with spirit and joy by the offer of yajnic homage, and cows rejoice with grass. That vibrating energy of life, Indra and Varuna, you bear and bring for us day and night without break. Reveal that language of enlightenment, all calm and undisturbed.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the enlightened persons are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O enlightened persons ! may we be ever happy by obtaining wealth which is to be given (to the needy) and taken (from the rich) be free from anxiety (lit. meaning the sleeping persons, who are delighted like the cows by getting grass at the pastures). O noble teachers and preachers! grant us always a refined speech. fulfilling our noble desires and making our intellect determined.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Let the enlightened persons cultivate in us that speech which is capable to be grasped and able to express the teaching of all shastras so that we may always enjoy bliss.
Foot Notes
(धेनुम् ) सर्वकामदोग्ध्रीं वाचम् । धेनुरिति वाङ्नाम (NG 1, 11) धूअ -पाने (भ्वा० ) स्फुर -स्फुरणे ( तुदा० ) = Speech fulfilling all noble desires. (इन्द्रावरुणा ) अध्यापकोप्रदेशकौ । =Teachers and preachers. (अनवस्फुरन्तीम् ) दृढां निश्चलां प्रज्ञां सम्पादयन्तीम् । = Making firm intellect and determined.
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