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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 42/ मन्त्र 2
    ऋषिः - त्रसदस्युः पौरुकुत्स्यः देवता - आत्मा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒हं राजा॒ वरु॑णो॒ मह्यं॒ तान्य॑सु॒र्या॑णि प्रथ॒मा धा॑रयन्त। क्रतुं॑ सचन्ते॒ वरु॑णस्य दे॒वा राजा॑मि कृ॒ष्टेरु॑प॒मस्य॑ व॒व्रेः ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । राजा॑ । वरु॑णः । मह्य॑म् । तानि॑ । अ॒सु॒र्या॑णि । प्र॒थ॒मा । धा॒र॒य॒न्त॒ । क्रतु॑म् । स॒च॒न्ते॒ । वरु॑णस्य । दे॒वाः । राजा॑मि । कृ॒ष्टेः । उ॒प॒मस्य॑ । व॒व्रेः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहं राजा वरुणो मह्यं तान्यसुर्याणि प्रथमा धारयन्त। क्रतुं सचन्ते वरुणस्य देवा राजामि कृष्टेरुपमस्य वव्रेः ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम्। राजा। वरुणः। मह्यम्। तानि। असुर्याणि। प्रथमा। धारयन्त। क्रतुम्। सचन्ते। वरुणस्य। देवाः। राजामि। कृष्टेः। उपऽमस्यः। वव्रेः ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 42; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा यो वरुणो राजाऽहं वरुणस्य वव्रेः कृष्टेरुपमस्य जगतो मध्ये राजामि तस्मै मह्यं देवाः प्रीणन्ति यानि प्रथमाऽसुर्य्याणि तानि धारयन्त क्रतुं सचन्ते तथा यूयमप्याचरत ॥२॥

    पदार्थः

    (अहम्) जगदीश्वरः (राजा) प्रकाशमानः (वरुणः) सर्वोत्तमप्रबन्धकर्त्ता (मह्यम्) (तानि) (असुर्य्याणि) असुराणां मेघादीनामिमानि चिह्नानि (प्रथमा) आदिमानि (धारयन्त) धरन्ति (क्रतुम्) प्रज्ञाम् (सचन्ते) प्राप्नुवन्ति (वरुणस्य) सम्बन्धस्योत्तमस्य (देवाः) विद्वांसः (राजामि) प्रकाशे (कृष्टेः) मनुष्यस्य (उपमस्य) उपमायुक्तस्य (वव्रेः) स्वीकर्त्तव्यस्य ॥२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सर्वत्र व्याप्तं बुद्धिधनप्रदं जगतः स्वामिनं मां परमात्मानं भजन्ते ते सर्वाणि भजन्ते ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ईश्वरविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे जो (वरुणः) सम्पूर्ण उत्तम प्रबन्धों का कर्त्ता (राजा) प्रकाशमान (अहम्) मैं जगदीश्वर (वरुणस्य) उत्तम सम्बन्ध में और (वव्रेः) स्वीकार करने योग्य (कृष्टेः) मनुष्य के सम्बन्ध में तथा (उपमस्य) उपमायुक्त जगत् के बीच में (राजामि) प्रकाशित होता हूँ उस (मह्यम्) मेरे लिये (देवाः) विद्वान् जन तृप्त होते हैं तथा जो (प्रथमा) आदि से वर्त्तमान (असुर्य्याणि) मेघादिकों के चिह्न (तानि) उनको (धारयन्त) धारण करते हैं और (क्रतुम्) बुद्धि को (सचन्ते) प्राप्त होते हैं, वैसे तुम लोग भी आचरण करो ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सर्वत्र व्याप्त, बुद्धि और धन के देनेवाले जगत् के स्वामी मुझ परमात्मा को भजते हैं, वे सब सुखों को भजते हैं ॥२॥

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    विषय

    आसुरभावों का विनाशक बल

    पदार्थ

    [१] वरुण की उपासना करता हुआ (अहम्) = मैं स्वयं भी (राजा) = राजा (वरुणः) = देदीप्यमान वरुण बन जाता हूँ। (मह्यम्) = मेरे लिए सब (देवा:) = देव (तानि) = उन (प्रथमा) = मुख्य (असुर्याणि) = असुरों के विघातक बलों को (धारयन्त) = धारण करते हैं। इन बलों को प्राप्त करके मैं आसुरभावों का विनाश करके देव बन जाता हूँ। [२] (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (वरुणस्य क्रतुम्) = वरुण की प्रज्ञा व शक्ति को (सचन्ते) = प्राप्त करते हैं। मैं भी (कृष्टेः) = श्रमशील (उपमस्य) = उपासक के (वव्रे:) = रूप का (राजामि) = राजा बनता हूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु की उपासना से असुरविघातक बलों को प्राप्त करके मैं प्रभु जैसा ही बनता हूँ।

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    विषय

    राजा वरुण, परमेश्वर का वर्णन, उसका वैभव ।

    भावार्थ

    (अहं वरुणः) मैं सबसे श्रेष्ठ, सबके द्वारा प्रधान वरे जाने योग्य, प्रजा के सब दुःखों और शत्रुओं को वारण करने और सब में ऐश्वर्य का उचित विभाग करने वाला (राजा) राजा होऊं । (मह्यम्) मेरे लिये ही (देवाः) सब मनुष्य प्रजाएं कर देने वाले और विजयोत्सुक, एवं विद्वान् लोग (तानि) उन २ नाना प्रकार के (असुर्याणि) जीवन देने और प्राण शक्ति में रमनेवाले बलवान् पुरुषों के योग्य (प्रथमा) श्रेष्ठ २ धनैश्वर्यों, बलों और ज्ञानों को (अधारयन्त) धारण करें। वे (वरुणस्य ऋतुं सचन्ते) अपने वृत राजा के कार्य और मति के साथ सहमति करके रहें । मैं (उपमस्य वः) समीपस्थ प्रिय वरणशील (कृष्टेः) शत्रुपीड़क, भूमि कृषक दोनों प्रकार की प्रजा का (राजामि) राजा बनूं । (२) परमेश्वर सर्वश्रेष्ठ होने से वरुण है । उसके ही बलों को सब सूर्य अग्नि आदि धारण करते हैं । वह सब रूपवान् देहावृत जीवों के बीच शोभता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रसदस्युः पौरुकुत्स्य ऋषिः॥ १-६ आत्मा। ७–१० इन्द्रावरुणौ देवते॥ छन्द:– १, २, ३, ४, ६, ९ निचृत्त्रिष्टुप। ७ विराट् त्रिष्टुप्। ८ भुरिक् त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्। ५ निचृत् पंक्तिः॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे सर्वव्यापक, बुद्धिधन प्रदाता, जगाचा स्वामी (मला) परमात्म्याला भजतात तो सर्वांना भजतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I am Varuna, ruling spirit of the world, best and highest. For me do the first manifestations of the spirit in nature hold the wealth and power of existence. They are the divine immortals who comprise and conduct the creative yajna, the spirit in body form. I rule the world of humanity, the phenomenal forms and all that is hidden in potentiality.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of God are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! I am the best Ruler shining on account of my virtues. I rule over this world which is good, acceptable and lived by men and other beings. All the enlightened persons are devoted to Me, upholding clouds and other things they are manifestations of my power, and thus attain good intellect. So you should also emulate.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The persons should worship only one God. He is Omnipresent, Giver of intellect and wealth and is the Lord of the world and enjoys all happiness.

    Foot Notes

    (वरुणः ) सर्वोत्तमप्रबन्धकर्ता । = The best Ruler or Ordainer of the world. (कृष्टे:) मनुष्यस्य । कृष्टय इति मनुष्यनाम (NG 2, 3)। = Of a man (असुर्य्याणि) असुराणां मेधादिनामिमानि चिह्नानि असुर इति मेघनाम (NG 1, 10)। = Clouds and other symbols or manifestations of power.

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