ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 42/ मन्त्र 8
ऋषिः - त्रसदस्युः पौरुकुत्स्यः
देवता - इन्द्रावरुणौ
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒स्माक॒मत्र॑ पि॒तर॒स्त आ॑सन्त्स॒प्त ऋष॑यो दौर्ग॒हे ब॒ध्यमा॑ने। त आय॑जन्त त्र॒सद॑स्युमस्या॒ इन्द्रं॒ न वृ॑त्र॒तुर॑मर्धदे॒वम् ॥८॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्माक॑म् । अत्र॑ । पि॒तरः॑ । ते । आ॒स॒न् । स॒प्त । ऋष॑यः । दौः॒ऽग॒हे । ब॒ध्यमा॑ने । ते । आ । अ॒य॒ज॒न्त॒ । त्र॒सद॑स्युम् । अ॒स्याः॒ । इन्द्र॑म् । न । वृ॒त्र॒ऽतुर॑म् । अ॒र्ध॒ऽदे॒वम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्माकमत्र पितरस्त आसन्त्सप्त ऋषयो दौर्गहे बध्यमाने। त आयजन्त त्रसदस्युमस्या इन्द्रं न वृत्रतुरमर्धदेवम् ॥८॥
स्वर रहित पद पाठअस्माकम्। अत्र। पितरः। ते। आसन्। सप्त। ऋषयः। दौःऽगहे। बध्यमाने। ते। आ। अयजन्त। त्रसदस्युम्। अस्याः। इन्द्रम्। न। वृत्रऽतुरम्। अर्धऽदेवम् ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 42; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे जगदीश्वर ! भवत्कृपया येऽत्रास्माकं सप्त ऋषयः पितर आसँस्ते दौर्गहे बध्यमाने वृत्रतुरमर्द्धदेवमिन्द्रं नास्याः सृष्टेर्मध्ये त्रसदस्युमायजन्त तेऽस्माकं सुखकराः सन्तु ॥८॥
पदार्थः
(अस्माकम्) (अत्र) अस्मिन् जगति (पितरः) पालकाः (ते) (आसन्) सन्ति (सप्त) षडृतवो वायुश्च सप्तमः (ऋषयः) प्राप्ताः (दौर्गहे) दुर्गहने (बध्यमाने) ताड्यमाने (ते) (आ) (अयजन्त) समन्तात् सङ्गच्छन्ते (त्रसदस्युम्) त्रस्यन्ति दस्यवो यस्मात्तम् (अस्याः) सृष्टेर्मध्ये (इन्द्रम्) सूर्य्यम् (न) इव (वृत्रतुरम्) यो वृत्रं मेघं धनं वा त्वरयति तम् (अर्द्धदेवम्) देवस्यार्द्धस्य जगतो देवं वा ॥८॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! येन जगदीश्वरेण सर्वेषां रक्षणायर्त्वादयः पदार्था निर्मिता तमुपास्य दुर्जयं दुःखं विजयध्वम् ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे जगदीश्वर आपकी कृपा से (अत्र) जो इस संसार में (अस्माकम्) हम लोगों के (सप्त) छः ऋतु और सातवाँ वायु (ऋषयः) प्राप्त हुए (पितरः) पालन करनेवाले (आसन्) हैं (ते) वे (दौर्गहे) अत्यन्त गहन (बध्यमाने) ताड़ना दिये जाते हुए में (वृत्रतुरम्) जो मेघ वा धन की शीघ्रता कराता है उस (अर्द्धदेवम्) देव के आधे जगत् के देव को (इन्द्रम्) सूर्य्य के (न) सदृश तथा (अस्याः) इस सृष्टि के मध्य में (त्रसदस्युम्) दुष्ट डाकू जिससे डरते हैं, उसको (आ, अयजन्त) सब प्रकार मिलते हैं (ते) वे हमारे सुख के करनेवाले हों ॥८॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिस जगदीश्वर ने सब के रक्षण के लिये ऋतु आदि पदार्थ रचे, उसकी उपासना करके दुःख से जीतने योग्य दुःख को जीतो ॥८॥
विषय
मन का बन्धन
पदार्थ
[१] मन का ग्रहण करना बड़ा कठिन है सो यह 'दौर्गह' है । इस (दौर्गहे) = दुर्ग्रहणीय मन के (बध्यमाने) = बाँधे जाने पर इस मन को वश में कर लेने पर (अत्र) = इस जीवन में (अस्माकम्) = हमारे ते वे सप्त ऋषय: शरीरस्थ सात ऋषि [कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्] दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें व मुख (पितरः) = पालक (आसन्) = हो जाते हैं। मन के वशीभूत न होने पर ये इन्द्रियाँ विषयों में फँस जाती हैं। इसके वशीभूत हो जाने पर ये ही ज्ञान को प्राप्त कराती हुई हमारा रक्षण करनेवाली होती हैं। [२] (न) = अब [संप्रत्यर्थे] (ते) = वे सप्त ऋषि (त्रसदस्युम्) = जिससे दास्यववृत्तियाँ भयभीत होती हैं, उस पुरुष को (अस्याः) = इस देह द्वारा (इन्द्रम्) = उस प्रभु के साथ (आयजन्त) = मेल कराते हैं, जो कि (वृत्रतुरम्) = वासना को विनष्ट करनेवाले हैं और (अर्धदेवम्) = देवों के समीप वर्तमान हैं [अर्धे समीपे] । मन वश में न था तो यह हमें भटकानेवाला था । वशीभूत हुआ तो यह हमें प्रभु को प्राप्त करानेवाला बन गया।
भावार्थ
भावार्थ - मन के वशीभूत होते ही इन्द्रियाँ हमारा रक्षण करनेवाली होती हैं और प्रभु से हमारा मेल कराने का साधन बनती हैं ।
विषय
त्रसदस्यु का रहस्य ।
भावार्थ
(दौर्गहे) शत्रु जिसको बड़ी कठिनता से विजय कर सके ऐसे किले या राष्ट्र के (बध्यमाने) बंध जाने, प्रबंध द्वारा सुव्यवस्थित करने पर (सप्त ऋषयः) देह में शिरस्थ प्राणों के तुल्य सात प्रकार के (ते ऋषयः) वे आप्त विद्वान् पुरुष ही (अत्र) इस राष्ट्र में (अस्माकम्) हमारे (पितरः) पालक (आसन्) होते हैं । (ते) वे ही (त्रसदस्युम्) दस्युओं को भयभीत करने वाले और भयभीत शत्रुओं को उखाड़ देने वाले (अस्याः इन्द्रं न) इस भूमि के तेजस्वी (वृत्रतुरम्) विघ्नकारी गणों के नाशक (अर्धदेवम्) राष्ट्र के समृद्ध अंश की कामना वाले वा सबके बराबर राष्ट्र का आधा अंश लेने हारे बलवान् पुरुष को (आ अयजन्त) आदर पूर्वक प्राप्त करते हैं । (२) अध्यात्म में—दौर्गह देह है । उसमें जीव बद्ध है उसके सातों शिरस्थ प्राण ऋषि हैं । वे ही आत्मा की उपासना स्वामिवत् करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रसदस्युः पौरुकुत्स्य ऋषिः॥ १-६ आत्मा। ७–१० इन्द्रावरुणौ देवते॥ छन्द:– १, २, ३, ४, ६, ९ निचृत्त्रिष्टुप। ७ विराट् त्रिष्टुप्। ८ भुरिक् त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्। ५ निचृत् पंक्तिः॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! ज्या जगदीश्वराने सर्वांचे रक्षण करण्यासाठी ऋतू इत्यादी पदार्थ निर्माण केले त्याची उपासना करून जिंकण्यायोग्य दुःख जिंका. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When the seven sages, senses, pranic energies and flowing streams, which are our feeding and sustaining powers like father and mother, are locked up in darkness then, as they join Indra, so they join the sun (wakefulness), who is superior to the darkness of Vrtra and presides over half of this world with his light (until light and life is restored).
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The Communion with God is further described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God! by Your Grace, six seasons and winds are with us as our protectors or sustainers. When there is a distress, we suitably perform Yajnas (non-violent sacrifices) for the benefit of kingdom. The malevolent persons are frightened from a king like the sun, an illuminator of the half world at a time. May they give happiness to us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should over come the fierce trouble by adoring God, Who has created the seasons and other things for our protection or sustenance.
Foot Notes
(सप्त ) षड़तवो वायुश्च सप्तमः । ऋतवो वै पिता । (Stph. 2, 6, 1, 32 ) ऋतवः पिता । ( कौषीतकी प्रा. 5, 7 ) षड्वा ऋतवः पिता (Stph. 13, 1, 1, 20) = Six seasons and seventh is the wind (ऋषयः) प्राप्ताः । ऋषी गतौ (भ्वा० ) गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र तृतीयार्थमादाय प्राप्ताः इति व्याख्या । = Obtained. (इन्द्रम् ) सूर्य इव । अथ यः स इन्द्रोऽसौ स आदित्यः (Stph 8,5, 3, 2) स य: स आकाश: इन्द्र एव स: ( Jaiminoypanishad Brahmana 1, 2, 8, 2 ) = Like or resembling the sun.
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