ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 42/ मन्त्र 9
ऋषिः - त्रसदस्युः पौरुकुत्स्यः
देवता - इन्द्रावरुणौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
पु॒रु॒कुत्सा॑नी॒ हि वा॒मदा॑शद्ध॒व्येभि॑रिन्द्रावरुणा॒ नमो॑भिः। अथा॒ राजा॑नं त्र॒सद॑स्युमस्या वृत्र॒हणं॑ ददथुरर्धदे॒वम् ॥९॥
स्वर सहित पद पाठपु॒रु॒ऽकुत्सा॑नी । हि । वा॒म् । अदा॑शत् । ह॒व्येभिः॑ । इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णा॒ । नमः॑ऽभिः । अथ॑ । राजा॑नम् । त्र॒सद॑स्युम् । अ॒स्याः॒ । वृ॒त्र॒ऽहन॑म् । द॒द॒थुः॒ । अ॒र्ध॒ऽदे॒वम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरुकुत्सानी हि वामदाशद्धव्येभिरिन्द्रावरुणा नमोभिः। अथा राजानं त्रसदस्युमस्या वृत्रहणं ददथुरर्धदेवम् ॥९॥
स्वर रहित पद पाठपुरुऽकुत्सानी। हि। वाम्। अदाशत्। हव्येभिः। इन्द्रावरुणा। नमःऽभिः। अथ। राजानम्। त्रसदस्युम्। अस्याः। वृत्रऽहनम्। ददथुः। अर्धऽदेवम् ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 42; मन्त्र » 9
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्रावरुणा ! या पुरुकुत्सानी हव्येभिर्नमोभिर्युवां सुखमदाशदथास्या वृत्रहणमर्द्धदेवमिव त्रसदस्युं राजानं वां ददथुस्तां तौ हि वयं विजानीमः ॥९॥
पदार्थः
(पुरुकुत्सानी) पुरूणि कुत्सानि यस्यां सा (हि) यतः (वाम्) युवाम् (अदाशत्) ददाति (हव्येभिः) आदातुमर्हैः (इन्द्रावरुणा) वायुविद्युताविव (नमोभिः) अन्नादिभिः (अथा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (राजानम्) (त्रसदस्युम्) त्रस्यन्ति दस्यवो यस्मात्तम् (अस्याः) पृथिव्याः (वृत्रहणम्) यो वृत्रं मेघं हन्ति तम् (ददथुः) दद्यातम् (अर्द्धदेवम्) अर्द्धं जगत् प्रकाशकं सूर्य्यम् ॥९॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यस्य कृपया सकला पृथिवी शस्याढ्या जाता सूर्य्यश्च तं सततमुपाध्वम् ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्रावरुणा) वायु और बिजुली के सदृश वर्त्तमान ! जो (पुरुकुत्सानी) बहुत निन्दित कर्मों से विशिष्ट (हव्येभिः) ग्रहण करने योग्य (नमोभिः) अन्नादिकों से आप दोनों को सुख (अदाशत्) देती है (अथा) इसके अनन्तर (अस्याः) इस पृथिवी के (वृत्रहणम्) मेघ को नाश करने और (अर्द्धदेवम्) आधे जगत् को प्रकाश करनेवाले सूर्य्य के सदृश (त्रसदस्युम्) जिससे दुष्ट डाकू जन डरते हैं उस (राजानम्) राजा को (वाम्) आप दोनों (ददथुः) दीजिये उसको और उनको (हि) जिससे हम लोग जानें ॥९॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिसकी कृपा से सम्पूर्ण पृथिवी धान्य से युक्त हुई और सूर्य्य प्रकट हुआ, उसकी निरन्तर उपासना करो ॥९॥
विषय
पुरुकुत्सानी
पदार्थ
[१] हे (इन्द्रावरुणा) = परमैश्वर्यशाली पापनिवारक प्रभो! (पुरुकुत्सानी) = अपना पालन व पूरण करने के लिए वासनाओं के संहार करने की वृत्ति [पृ पालन पूरणयोः, कुथ हिंसायाम्] (हि) = निश्चय से (हव्येभिः) = दानपूर्वक अदन की वृत्ति से यज्ञशीलता से तथा (नमोभिः) = नम्रता से (वाम्) = आपके प्रति (अदाशत्) = अपना अर्पण करती है। जिस समय मनुष्य में वासनाओं के संहार करने की वृत्ति उत्पन्न होती है, उस समय त्याग की भावना [हव्य] व नम्रता से [नमस्] युक्त होकर प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाला बनता है। [२] (अथा) = अब (राजानम्) = जीवन को दीप्त बनानेवाले (त्रसदस्युम्) = दास्यव-भावों को अपने से दूर करनेवाले इस 'त्रसदस्यु' को (अस्याः) = इस देह के द्वारा (वृत्रहणम्) = वासनाओं के विनाशक (अर्धदेवम्) = सब देवों के समीप वर्तमान उस प्रभु को (ददथुः) = देते हो, अर्थात् इन्द्र और वरुण-जितेन्द्रियता व निष्पापता इसे प्रभु के समीप प्राप्त कराती हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे में वासनाओं को दूर करने की वृत्ति हो। इस वृत्ति को धारण करके हम 'इन्द्र व वरुण' के उपासक बनें। जितेन्द्रियता व निष्पापता को धारण करें। यही प्रभुप्राप्ति का मार्ग हैं ।
विषय
अध्यात्म व्याख्या ।
भावार्थ
हे (इन्द्रा वरुणा) इन्द्र ऐश्वर्यवन् ! हे वरुण, सर्वश्रेष्ठ ! सब संकटों और शत्रुओं के वारण करने हारे ! (पुरुकुत्सानी) बहुत से वज्रधर सैनिकों को ले जाने वाली बड़ी भारी सेना (हध्येभिः) स्वीकार करने योग्य नमस्कार आदि आदर वचनों और अन्नों द्वारा (वाम् अदाशत्) आप दोनों को आदर प्रदान करती है । (अथ) उसके बाद आप दोनों भी (त्रसदस्युं) दुष्ट शत्रुओं को भयकारी (वृत्रहणं) विघ्नकारियों के नाशक (अर्ध-देवम्) आधे जगत् के प्रकाशक सूर्यवत् तेजस्वी, वा समृद्ध राष्ट्र के इच्छुक (राजानम्) सर्वप्रकाशक राजा को (अस्या) इस भूमि के शासनार्थ पति रूप से (ददथुः) प्रदान करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रसदस्युः पौरुकुत्स्य ऋषिः॥ १-६ आत्मा। ७–१० इन्द्रावरुणौ देवते॥ छन्द:– १, २, ३, ४, ६, ९ निचृत्त्रिष्टुप। ७ विराट् त्रिष्टुप्। ८ भुरिक् त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्। ५ निचृत् पंक्तिः॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! ज्याच्या कृपेने संपूर्ण पृथ्वी अन्नधान्याने युक्त झालेली आहे व सूर्य प्रकट झालेला आहे त्याची सतत उपासना करा. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Indra and Varuna, the abundant power of the thunderbolt, light and showers offer you the homage of yajnic inputs of food for consumption and holistic expansion of creative nourishment. And thence, further, you give it on to this earth’s ruler, destroyer of darkness and evil, who presides over half the world (and rises in majesty with the break of dawn).
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The Communion with God is elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers ! you are benevolent like the air and energy. The earth has many a misery destroying powers and it gives you happiness through the food and other acceptable substances. You roam over the earth for protection, like a good king, who is full of splendor like the sun. The wicked persons are afraid of them and is illuminator of half of the sun world at a time. Let us know you well along with the treasures of earth.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! always have communion with that one God by whose Grace the earth becomes fertile and the sun gives light and heat.
Foot Notes
( पुरुकुत्सानी ) पुरूणि कुत्सानि यस्यां सा । कुत्स इति वज्रनाम (NG 2, 20)। अत्र दु:ख निवारकशक्ते: ग्रहणं प्रतीयते । = Which has many powers of destroying the miseries. From the purport it is clear that the word is used here for भूमि or earth. (नमोभिः ) अन्नादिभि: । नम इति अन्ननाम (NG 2, 7)। = With food and other substances. (हव्येभि:) आदातुमहै: । = Acceptable substances.
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