ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
ऋ॒तावा॑नं॒ विचे॑तसं॒ पश्य॑न्तो॒ द्यामि॑व॒ स्तृभिः॑। विश्वे॑षामध्व॒राणां॑ हस्क॒र्तारं॒ दमे॑दमे ॥३॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तऽवा॑नम् । विऽचे॑तसम् । पश्य॑न्तः । द्याम्ऽइ॑व । स्तृऽभिः॑ । विश्वे॑षाम् । अ॒ध्व॒राणा॑म् । ह॒स्क॒र्तार॑म् । दमे॑ऽदमे ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतावानं विचेतसं पश्यन्तो द्यामिव स्तृभिः। विश्वेषामध्वराणां हस्कर्तारं दमेदमे ॥३॥
स्वर रहित पद पाठऋतऽवानम्। विऽचेतसम्। पश्यन्तः। द्याम्ऽइव। स्तृऽभिः। विश्वेषाम्। अध्वराणाम्। हस्कर्तारम्। दमेऽदमे॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
ये मनुष्या विश्वेषामध्वराणां स्तृभिर्द्यामिव दमेदमे हस्कर्त्तारं विचेतसमृतावानं पश्यन्तो जगृभिरे ते सुशोभन्ते ॥३॥
पदार्थः
(ऋतावानम्) ऋतं सत्यं विद्यते यस्मिँस्तम् (विचेतसम्) विगतं चेतो यस्मात्तम् (पश्यन्तः) (द्यामिव) सूर्यमिव (स्तृभिः) नक्षत्रैः (विश्वेषाम्) सर्वेषाम् (अध्वराणाम्) अहिंसनीयानां यज्ञानाम् (हस्कर्त्तारम्) प्रकाशकर्त्तारम् (दमेदमे) गृहे गृहे ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये चेतनारहितं कारणयुक्तं प्रतिगृहं प्रकाशयन्तं जानन्ति ते सूर्य्यप्रकाशे चन्द्रादीनीव जगति प्रकाशन्ते ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जो मनुष्य लोग (विश्वेषाम्) सम्पूर्ण (अध्वराणाम्) नहीं हिंसा करने योग्य यज्ञों के (स्तृभिः) नक्षत्रों से (द्यामिव) सूर्य्य के सदृश (दमेदमे) घर-घर में (हस्कर्त्तारम्) प्रकाश करनेवाले (विचेतसम्) जिससे विगतचित्त होता (ऋतावानम्) जिसमें सत्य विद्यमान उसको (पश्यन्तः) देखते हुए ग्रहण करे हुए हैं, वे उत्तम प्रकार शोभित होते हैं ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो लोग चेतनारहित कारण से युक्त प्रत्येक गृह के प्रवेश करनेवाले को जानते हैं, वे सूर्य के प्रकाश में चन्द्र आदिकों के सदृश संसार में प्रकाशित होते हैं ॥३॥
विषय
प्रभु ग्रहण किस रूप में ?
पदार्थ
[१] गतमन्त्र में कहा था कि जब प्रभु का निरन्तर संज्ञान होता है तब ये ज्ञानी भक्त प्रभु का दर्शन करते हैं। प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि वे उसे किस रूप में देखते हैं? (ऋतावानम्) = ऋत का रक्षण करनेवाले के रूप में (पश्यन्त:) = देखते हुए होते हैं। प्रभु के निर्मित संसार में प्रत्येक पिण्ड 'ऋत' पूर्वक गति कर रहा है। नाम मात्र भी वहाँ गलती नहीं, सब पिण्ड ठीक समय व ठीक स्थान पर गति में हैं। (विचेतसम्) = हृदयस्थरूपेण वे सभी को विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करा रहे हैं। पवित्र हृदय लोग उस ज्ञान का ग्रहण करते हैं, दूसरे नहीं। उस प्रभु को ये इस प्रकार देखते हैं, इव जैसे कि (द्याम्) = द्युलोक को (स्तृभिः) = नक्षत्रों से । नक्षत्र जहाँ दीप्त हो रहे हैं वही द्युलोक है। इसी प्रकार ये सूर्य चन्द्र-तारे जिसके द्वारा दीप्त किये जा रहे हैं, वे ही प्रभु हैं। इस प्रकार इन पिण्डों में प्रभु की महिमा को देखते हुए वे प्रभु का दर्शन करते हैं। [२] उस प्रभु का दर्शन करते हैं, जो कि (दमे दमे) = प्रत्येक गृह में (विश्वेषां अध्वराणाम्) = सब यज्ञों के (हस्कर्तारम्) = प्रभासक [प्रकाशक] हैं। प्रभु ही सब यज्ञों का ज्ञान देते हैं, वे ही इन यज्ञों के रक्षक [भोक्ता] व स्वामी [प्रभु] हैं 'अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभु देव च' ।
भावार्थ
भावार्थ– प्रभु प्राकृतिक जगत् में ऋत का रक्षण करते हैं, चेतन जगत् में हृदयस्थरूपेण ज्ञान प्राप्त कराते हैं। पिण्ड- पिण्ड में प्रभु की महिमा दिखती है। वे ही सब यज्ञों के भोक्ता व प्रभु हैं।
विषय
दीपक वा अग्निवत् उसका ग्रहण ।
भावार्थ
उस परमेश्वर को विद्वान् लोग (ऋतावानं) सत्य ज्ञान मूलकारण प्रकृति रूप ‘ऋत’ या अव्यक्त तत्व के स्वामी (विचेतसं) विविध ज्ञानों से युक्त (स्तृभिः द्यामिव) नक्षत्रों से युक्त आकाश के समान, नाना आच्छादक वा व्यापक वा रश्मियों से युक्त सूर्य के समान व्यापक गुणों वा नाना सामर्थों से युक्त (पश्यन्तः) देखते हुए (विश्वेषाम्) समस्त (अध्वराणाम्) अविनाशी जीवों और यज्ञों के (दमे दमे) गृह २ में दीपक वा अग्नि के समान प्रत्येक लोक में प्रकाशक रूप से (जगृभ्रिरे) ज्ञान करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ भुरिक् त्रिष्टुप। ७, १०, ११ त्रिष्टु प्। ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । २ स्वराडुष्णिक् । ३ निचृदनुष्टुप, ४, ६ अनुष्टुप । ५ विराडनुष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे लोक चेतनारहित कारणांनीयुक्त गृहाला प्रकाशित करणाऱ्याला जाणतात, ते सूर्याच्या प्रकाशात चंद्र जसा तसे जगात प्रकाशित होतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When would the mortals in every home adore the universal Agni, watching and realising in yajna the presence of the lord of the order of universal law, commanding the cosmic intelligence of existence and lighting up all the yajnas of the world in evolutionary development with vital fire as he lights up the heavens with stars?
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The Agni is compared with God.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The men who see God as the illuminator of non-violent and in-violable Yajnas and inanimate matter, they are absolutely truthful, resplendent like the sky with stars, and present in every house or place (because of their reputation) and they accept Him as such in their hearts and shine well.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who know that God is the Illuminator of the inanimate material cause of the universe and every house, they shine in the world like the moon or planets in the solar world by the light of the sun.
Foot Notes
(स्तुभिः) नक्षत्रैः | With stars and planets. (हस्कर्त्तारम् ) प्रकाशकर्त्तारम् = Illuminator. (दमे दमे ) गृहे गृहे । दमे इति गृहनाम (NG 3,4) = In every house.
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