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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 7/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    तमीं॒ होता॑रमानु॒षक्चि॑कि॒त्वांसं॒ नि षे॑दिरे। र॒ण्वं पा॑व॒कशो॑चिषं॒ यजि॑ष्ठं स॒प्त धाम॑भिः ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । ई॒म् । होता॑रम् । आ॒नु॒षक् । चि॒कि॒त्वांस॑म् । नि । से॒दि॒रे॒ । र॒ण्वम् । पा॒व॒कऽशो॑चिषम् । यजि॑ष्ठम् । स॒प्त । धाम॑ऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमीं होतारमानुषक्चिकित्वांसं नि षेदिरे। रण्वं पावकशोचिषं यजिष्ठं सप्त धामभिः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। ईम्। होतारम्। आनुषक्। चिकित्वांसम्। नि। सेदिरे। रण्वम्। पावकऽशोचिषम्। यजिष्ठम्। सप्त। धामऽभिः॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 7; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    ये तमग्निमिवानुषग्घोतारं चिकित्वांसं रण्वं सप्त धामभिः पावकशोचिषं यजिष्ठमीं निषेदिरे ते राज्यैश्वर्य्या भवन्ति ॥५॥

    पदार्थः

    (तम्) (ईम्) सर्वतः (होतारम्) ग्रहीतारम् (आनुषक्) आनुकूल्येन (चिकित्वांसम्) विद्वांसम् (नि) (सेदिरे) सीदन्ति (रण्वम्) रमणीयम् (पावकशोचिषम्) पावकस्य शोचिरिव शोचिर्दीप्तिर्यस्य तम् (यजिष्ठम्) अतिशयेन सङ्गन्तारम् (सप्त) सप्तभिः प्राणादिभिः (धामभिः) स्थानैः ॥५॥

    भावार्थः

    ये विपुलं वह्निं सर्वेभ्यः पदार्थेभ्यो निःसारितुं जानन्ति तेऽतिसुखा भवन्ति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो लोग (तम्) उसको अग्नि के सदृश (आनुषक्) अनुकूलता से (होतारम्) ग्रहण करनेवाले (चिकित्वांसम्) विद्वान् (रण्वम्) सुन्दर (सप्त) सात प्राण आदि (धामभिः) स्थानों से (पावकशोचिषम्) अग्नि के तेज के सदृश तेज से युक्त (यजिष्ठम्) अत्यन्त मेल करनेवाले को (ईम्) सब प्रकार से (नि, सेदिरे) प्राप्त होते हैं, वे राज्य और ऐश्वर्य से युक्त होते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    जो लोग बिजुलीरूप अग्नि को सब पदार्थों से निकालना जानते हैं, वे अत्यन्त सुखी होते हैं ॥५॥

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    विषय

    सप्त धामभिः

    पदार्थ

    [१] (ईम्) = निश्चय से (तम्) = उस प्रभु को (आनुषक् निषेदिरे) = निरन्तर उपासित करते हैं। जो कि (होतारम्) = इस सृष्टि यज्ञ के होता हैं, सब कुछ देनेवाले हैं तथा (चिकित्वांसम्) = ज्ञानी हैं। वे प्रभु ही सब जीवों को कर्त्तव्य का ज्ञान देते हैं । [२] (रण्वम्) = वे रमणीय हैं अथवा हृदयस्थरूपेण [रण शब्दे] इस ज्ञान का उच्चारण करनेवाले हैं। (पावक शोचिषम्) = ज्ञानदीप्ति के द्वारा हमें पवित्र करनेवाले हैं। वे प्रभु (सप्त धामभिः) = योग के सात धामों के द्वारा, 'यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान' को तप करने के द्वारा समाधि में (यजिष्ठम्) = संगतिकरण योग्य हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रतिदिन प्रभु का उपासन करें। यम, नियम आदि का पालन करते हुए प्रभु को पानेवाले बनें ।

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    विषय

    परम पावन ।

    भावार्थ

    विद्वान् लोग (तम् ईम् होतारं) उस दानशील (चिकित्वांसम्) ज्ञानवान्, रोग दुःख पीड़ा आदि दूर करने में समर्थ, (एवं) रमणीयस्वरूप, (पावकशोचिषं) अग्नि के समान तेजस्वी, पवित्रकारक तेज से युक्त (यजिष्ठं) अतिदानी, सत्संग योग्य, सर्वमित्र, पुरुष को (सप्तधामभिः) सातों प्रकार के धारण सामर्थ्यों वा प्राणों सहित (निषेदिरे) प्रतिष्ठित करें । उसको गुरु वा स्वामी रूप से प्राप्त कर प्रभु वा विद्वान् स्वयं भी (आनुषक्) उसके अनुकूल होकर उसके समीप स्थिर हो कर विराजें । इति षष्टो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ भुरिक् त्रिष्टुप। ७, १०, ११ त्रिष्टु प्। ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । २ स्वराडुष्णिक् । ३ निचृदनुष्टुप, ४, ६ अनुष्टुप । ५ विराडनुष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक विद्युतरूपी अग्नीला सर्व पदार्थांपासून पृथक करणे जाणतात ते अत्यंत सुखी होतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Fully and appropriately they install, maintain and sit by that Agni, receiver and giver of gifts in yajna, enlightening, bright and happy, drying, maturing and vitalising things like light and fire, most lovable and adorable. They maintain, serve and benefit from it seven ways through five senses, five pranas, and mind and intellect, and worship the power in every home of every community.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The sphere of Agni is further highlighted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The persons who approach agreeably to a learned person, who is accepter of all virtues like Agni He is charming, knower of the nature of Agni (energy) etc. splendid like the purifying fire, drawing energy emerging from seven Pranas and other places and extremely unifying become endowed with the prosperity of the State.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who know how to harness Agni (in the form of electricity) from all the sources in sufficient quantity, enjoy much happiness.

    Foot Notes

    (रणवम् ) रमणीयम् = Charming. (सप्त) सप्तभि: प्राणादिभिः । = from seven Pranas etc. (धामभिः ) स्थानैः । = From places.

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