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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 7/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    तं शश्व॑तीषु मा॒तृषु॒ वन॒ आ वी॒तमश्रि॑तम्। चि॒त्रं सन्तं॒ गुहा॑ हि॒तं सु॒वेदं॑ कूचिद॒र्थिन॑म् ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । शश्व॑तीषु । मा॒तृषु॑ । वने॑ । आ । वी॒तम् । अश्रि॑तम् । चि॒त्रम् । सन्त॑म् । गुहा॑ । हि॒तम् । सु॒ऽवेद॑म् । कू॒चि॒त्ऽअ॒र्थिन॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं शश्वतीषु मातृषु वन आ वीतमश्रितम्। चित्रं सन्तं गुहा हितं सुवेदं कूचिदर्थिनम् ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। शश्वतीषु। मातृषु। वने। आ। वीतम्। अश्रितम्। चित्रम्। सन्तम्। गुहा। हितम्। सुऽवेदम्। कूचित्ऽअर्थिनम्॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 7; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! यूयं शश्वतीषु मातृषु वने सन्तं गुहा हितं सुवेदं कूचिदर्थिनमश्रितमावीतं तं चित्रं विद्युदाख्यमग्निं विदित्वा कार्याणि साध्नुत ॥६॥

    पदार्थः

    (तम्) पावकम् (शश्वतीषु) अनादिभूतासु (मातृषु) आकाशादिषु (वने) किरणे (आ) (वीतम्) व्याप्तम् (अश्रितम्) असेवितम् (चित्रम्) अद्भुतगुणकर्मस्वभावम् (सन्तम्) विद्यमानम् (गुहा) बुद्धौ (हितम्) स्थितम् (सुवेदम्) शोभनो वेदो विज्ञानं यस्य तम् (कूचिदर्थिनम्) क्वचिद् बहवोऽर्था विद्यन्ते यस्मिंस्तम् ॥६॥

    भावार्थः

    ये मनुष्याः सर्वपदार्थेषु पृथक् पृथगेव वर्त्तमानमग्निं तत्त्वतो विजानन्ति ते सर्वाणि कार्याणि साद्धुं शक्नुवन्ति ॥६॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! आप लोग (शश्वतीषु) अनादिकाल से वर्त्तमान (मातृषु) आकाश आदि पदार्थों में और (वने) किरण में (सन्तम्) विद्यमान (गुहा) बुद्धि में (हितम्) स्थित (सुवेदम्) उत्तम विज्ञान जिसका (कूचिदर्थिनम्) जो कहीं बहुत अर्थों से युक्त (अश्रितम्) और नहीं सेवन किया गया (आ, वीतम्) व्याप्त (तम्) उस (चित्रम्) अद्भुत गुण, कर्म, स्वभाववाले बिजुली नामक अग्नि को जान के कार्यों को सिद्ध करो ॥६॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य सर्व पदार्थों में अलग ही अलग वर्त्तमान अग्नि को तत्त्व से जानते हैं, वे सब काम साध सकते हैं ॥६॥

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    विषय

    क्रियाशीलता उपासना

    पदार्थ

    [१] (तम्) = उस प्रभु को [निषेदिरे] = उपासित करते हैं, जो कि (शश्वतीषु) = प्लुत गतिवाले, स्फूर्ति से कार्य करनेवाले (मातृषु) = निर्माण के कार्यों में प्रवृत्त लोगों में बने [वननं वनः] उपासना के होने पर (आवीतम्) = प्राप्त हुए हुए को । प्रभु उन लोगों को प्राप्त होते हैं, जो कि [क] स्फूर्ति से क्रियाओं में प्रवृत्त हैं, आलस्यशून्य हैं । [ख] निर्माण के कार्यों में लगे हुए हैं। [ग] उपासना में प्रवृत्त हैं। [२] उस प्रभु को उपासित करते हैं, जो कि (अश्रितम्) = किसी के आधार से रहनेवाले नहीं, निराधार होते हुए सर्वाधार हैं। (चित्रम्) = ज्ञान को देनेवाले हैं । (सन्तम्) = सत्यस्वरूप हैं। (गुहाहितम्) = बुद्धिरूप गुहा में स्थित हैं। (सुवेदम्) = सब उत्तम वसुओं को प्राप्त करानेवाले हैं [विद् लाभे] (कूचिद् अर्थिनम्) = किसी भी पदार्थ के लिये अभ्यर्थना के योग्य हैं, 'ज्ञान-शक्ति-धन' जो कुछ भी हो सब प्रभु से भोगा जा सकता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु की प्राप्ति उनको होती है जो कि (क) क्रियाशील हों, (ख) निर्माण के कार्यों में प्रवृत्त हों, (ग) उपासनामय जीवनवाले हों।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे सर्व पदार्थांमध्ये पृथक पृथक असलेल्या अग्नीच्या तत्त्वाला जाणतात, ती सर्व कामे सिद्ध करू शकतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That Agni, present in permanent sources, in forests, immanent everywhere, independent and free, wonderful as hidden in a cave, knowledgeable and deeply meaningful, they maintain and serve.

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