ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 7/ मन्त्र 8
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वेर॑ध्व॒रस्य॑ दू॒त्या॑नि वि॒द्वानु॒भे अ॒न्ता रोद॑सी संचिकि॒त्वान्। दू॒त ई॑यसे प्र॒दिव॑ उरा॒णो वि॒दुष्ट॑रो दि॒व आ॒रोध॑नानि ॥८॥
स्वर सहित पद पाठवेः । अ॒ध्व॒रस्य॑ । दू॒त्या॑नि । वि॒द्वान् । उ॒भे इति॑ । अ॒न्तरिति॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । स॒म्ऽचि॒कि॒त्वान् । दू॒तः । ई॒य॒से॒ । प्र॒ऽदिवः॑ । उ॒रा॒णः । वि॒दुःऽत॑रः । दि॒वः । आ॒ऽरोध॑नानि ॥
स्वर रहित मन्त्र
वेरध्वरस्य दूत्यानि विद्वानुभे अन्ता रोदसी संचिकित्वान्। दूत ईयसे प्रदिव उराणो विदुष्टरो दिव आरोधनानि ॥८॥
स्वर रहित पद पाठवेः। अध्वरस्य। दूत्यानि। विद्वान्। उभे इति। अन्तरिति। रोदसी इति। सम्ऽचिकित्वान्। दूतः। ईयसे। प्रऽदिवः। उराणः। विदुःऽतरः। दिवः। आऽरोधनानि॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 7; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! संचिकित्वान् विद्वान् विदुष्टरस्संस्त्वं यो वेरध्वरस्य दूत्यान्यन्तरुभे रोदसी दूतः प्रदिव उराणो गच्छति तं विज्ञाय दिव आरोधनानीयसे तस्मात् सुखं प्राप्नोषि ॥८॥
पदार्थः
(वेः) व्याप्तस्य (अध्वरस्य) अहिंसनीयस्य (दूत्यानि) दूतवत् कर्माणि (विद्वान्) (उभे) (अन्तः) मध्ये (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (संचिकित्वान्) सम्यक् चिकीर्षकः (दूतः) (ईयसे) प्राप्नोषि (प्रदिवः) प्राचीनः (उराणः) बहुकुर्वाणः (विदुष्टरः) अतिशयेन वेत्ता (दिवः) प्रकाशस्य (आरोधनानि) समन्तान्निग्रहणानि ॥८॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! या विद्युत्सर्वस्य शिल्पजनस्य दूतवत्प्रेरिका सनातना सर्वेषु पदार्थेषु व्याप्तास्ति तस्या उत्पत्तिनिरोधाभ्यां बहूनि कार्य्याणि साद्ध्वैश्वर्य्यं प्राप्नुत ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् (सञ्चिकित्वान्) उत्तम प्रकार कार्य करने की इच्छा करनेवाले (विद्वान्) विद्यावान् पुरुष ! (विदुष्टरः) अत्यन्त ज्ञाता हुए आप जो (वेः) व्याप्त (अध्वरस्य) न नष्ट करने योग्य व्यवहार के (दूत्यानि) संदेश पहुँचानेवाले के सदृश कर्म्मों को और (अन्तः) मध्य में (उभे) दोनों (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (दूतः) संदेश पहुँचानेवाला (प्रदिवः) प्राचीन (उराणः) बहुत कार्य करता हुआ जाता है, उसको जानके (दिवः) प्रकाश के (आरोधनानि) सब प्रकार के ग्रहण करने को (ईयसे) प्राप्त होते हो, इससे सुख को प्राप्त होते हो ॥८॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो बिजुली रूप अग्नि सम्पूर्ण शिल्पिजन का दूत के सदृश प्रेरणा करनेवाला, अनादि काल से सिद्ध और सम्पूर्ण पदार्थों में व्याप्त है, उसकी उत्पत्ति और निरोध से बहुत कार्य्यों को सिद्ध करके ऐश्वर्य्य को प्राप्त होओ ॥८॥
विषय
यज्ञ के सन्देशवाहक प्रभु
पदार्थ
[१] वह (विद्वान्) = ज्ञानी प्रभु (अध्वरस्य) = यज्ञ के (दूत्यानि) = दूत कर्मों को (वे:) = [गन्ता] करनेवाला होता है, अर्थात् वे प्रभु सब प्रजाओं के लिये यज्ञों का सन्देश प्राप्त कराते हैं 'सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः, अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्ट कामधुक्' । वे प्रभु (उभे रोदसी) = दोनों द्यावापृथिवी के (अन्तः) = बीच में, अन्तरिक्ष में मस्तिष्क व शरीर के मध्य हृदयान्तरिक्ष में (संचिकित्वान्) = सम्यक् निवास करनेवाले होते हैं [कित निवासे] हृदय देश ही प्रभु का 'परम परार्ध' है। इस हृदय देश में, हे प्रभो! आप (दूतः ईयसे) = ज्ञान का सन्देश देते हुए गति करते हैं । [२] (दिवः) = स्वर्गलोक के, प्रकाशमय लोक के (आरोधनानि) आरोहणों को [सीढ़ियों को] (विदुष्टर:) = [विद्वत्तर:] खूब जानते हुए आप (प्रदिवः) = हमारे प्रकृष्ट ज्ञानों को (उराण:) = विशाल करनेवाले हैं। हमारे ज्ञानों को बढ़ाकर आप हमें स्वर्गलोक को प्राप्त करानेवाले हैं। 'प्रदिवः' का भाव 'सनातन काल से' यह भी है । तब वाक्य योजना इस प्रकार होगी कि आप प्राचीनकाल से हमारे हृदयों को विशाल बना रहे हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें हृदयान्तरिक्ष में स्थित होकर यज्ञ का व ज्ञान का सन्देश देते हैं। यह ज्ञान ही हमारे लिये प्रकाशमय लोक का आरोहण बनता है।
विषय
अग्नि, विद्वान्, दूतवत् प्रभु ।
भावार्थ
जिस प्रकार (वेः अध्वरस्य) तेजःप्रकाश से युक्त यज्ञ के (दूत्यानि विद्वान्) ताप से होने योग्य कर्मों को प्राप्त करता हुआ (दूतः) स्वयं अति तप्त अग्नि (उराणः) स्वल्प पदार्थ को भी बहुत व्यपक करता हुआ (दिवः आरोधनानि विदुस्तरः) आकाश के ऊपर २ के स्थानों तक में पहुंचा देता और (उभे रोदसी अन्ता संचिकित्वान्) आकाश और भूमि दोनों के मध्य के रोगों को भी भली प्रकार दूर करने वाला होता है । उसी प्रकार विद्वान् राजा (वेः) व्यापक (अध्वरस्य) न विनाश होने योग्य इस राष्ट्र के (दूत्यानि) दूतों द्वारा करने योग्य कार्यों को (विद्वान्) जानता हुआ और (उभे रोदसी अन्तः) मित्र और अरि दोनों पक्षों के बीच (सं चिकित्वान्) भली प्रकार विवेक करता हुआ (प्रदिवः) सदा ही (उराणः) बहुत बड़े कार्य करता हुआ (विदुस्तरः) अति अधिक ज्ञानवान् होकर (दिवः आरोधनानि) भूमि के वश करने योग्य स्थानों व कार्यों को (दूतः) शत्रुसंतापक होकर (ईयसे) प्राप्त करे । (२) परमेश्वर के पक्ष में—वह इस व्यापक संसार के (दूत्यानि) तापयुक्त अग्नि विद्युत् आदि के समस्त कर्मों को जानता हुआ (उभे रोदसी अन्तः) जड़ चेतन दोनों के बीच स्वयं सम्यग् ज्ञानवान्, (दूतः) सर्वोपास्य, दुष्टों का संतापक, (प्रदिवः) अति पुरातन, नित्य, महान् विश्वकर्मा, परम ज्ञानी होकर (दिवः आरोधनानि) ज्ञान प्रकाश के समस्त लोकों को व्यापता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ भुरिक् त्रिष्टुप। ७, १०, ११ त्रिष्टु प्। ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । २ स्वराडुष्णिक् । ३ निचृदनुष्टुप, ४, ६ अनुष्टुप । ५ विराडनुष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जो विद्युतरूपी अग्नी संपूर्ण कारागिरांना दूताप्रमाणे प्रेरणा करणारा, अनादि कालापासून सिद्ध व संपूर्ण पदार्थांमध्ये व्याप्त असतो, त्याची उत्पत्ती व नियमन करून पुष्कळ कार्य सिद्ध करून ऐश्वर्य प्राप्त करा. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, omnipresent lord of yajna fire, you know the motions and vibrations of yajna rising and pervading in both earth and skies since, being carrier of the fragrance, ancient and all mobile, inviolable and unconquerable, you rise and reach even the heights and caverns of secret heavens.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of Agni is further underlined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! know the properties of Agni (energy) which is potential instrument in all the inviolable dealings stretched between the earth and the firmament, accomplishing various wonderful works, and desiring to do many noble deeds. Highly learned, you are capable to control light from all sides. Hence you attain happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! become prosperous having accomplished many works with the help of energy. It is like a messenger of all artisans, time tested and all-pervading. Accomplish all works by producing and controlling the wonderful energy.
Foot Notes
(प्रदिवः) प्राचीन: । = Ancient. (उराण:) बहुकुर्वाणः । = Doing various works. (सचिकित्वान् ) सम्यक् चिकीर्षकः । = Desiring to do well.
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