ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 2/ मन्त्र 11
ऋषिः - कुमार आत्रेयो वृषो वा जार उभौ वा
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒तं ते॒ स्तोमं॑ तुविजात॒ विप्रो॒ रथं॒ न धीरः॒ स्वपा॑ अतक्षम्। यदीद॑ग्ने॒ प्रति॒ त्वं दे॑व॒ हर्याः॒ स्व॑र्वतीर॒प ए॑ना जयेम ॥११
स्वर सहित पद पाठए॒तम् । ते॒ । स्तोम॑म् । तु॒वि॒ऽजा॒त॒ । विप्रः॑ । रथ॑म् । न । धीरः॑ । सु॒ऽअपाः॑ । अ॒त॒क्ष॒म् । यदि॑ । इत् । अ॒ग्ने॒ । प्रति॑ । त्वम् । दे॒व॒ । हर्याः॑ । स्वः॑ऽवतीः । अ॒पः । ए॒न॒ । ज॒ये॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतं ते स्तोमं तुविजात विप्रो रथं न धीरः स्वपा अतक्षम्। यदीदग्ने प्रति त्वं देव हर्याः स्वर्वतीरप एना जयेम ॥११
स्वर रहित पद पाठएतम्। ते। स्तोमम्। तुविऽजात। विप्रः। रथम्। न। धीरः। सुऽअपाः। अतक्षम्। यदि। इत्। अग्ने। प्रति। त्वम्। देव। हर्याः। स्वःऽवतीः। अपः। एना। जयेम ॥११
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 11
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्गुणानाह ॥
अन्वयः
हे तुविजाताग्ने ! यथाहं ते स्वपा धीरो विप्रो नैतं रथमतक्षं तथा त्वमाचर। हे देव ! यदि त्वं रथं रचयेस्तर्हीत्स्तोमं प्राप्नुयाः। यथा वयमेना हर्याः स्वर्वतीरपः प्रति जयेम तथा त्वमेता जय ॥११
पदार्थः
(एतम्) शुभगुणप्रकाशकम् (ते) तव (स्तोमम्) प्रशंसितव्यवहारम् (तुविजात) बहुषु विद्वत्सु प्रसिद्ध (विप्रः) मेधावी (रथम्) रमणीययानम् (न) इव (धीरः) क्षमादिगुणान्वितो ध्यानकृत् (स्वपाः) सुष्ठुकर्मा (अतक्षम्) निर्ममे (यदि) (इत्) (अग्ने) विद्वन् (प्रति) (त्वम्) (देव) सकलविद्याप्रदातः (हर्याः) कमनीयाः (स्वर्वतीः) प्रशस्तसुखयुक्ताः (अपः) प्राणान् (एना) एनेन (जयेम) ॥११
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा विपश्चितो धर्म्याः कामनाः कृत्वा जयिनो भवन्ति तथैव यूयमप्याचरत ॥११
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वानों के गुणों को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (तुविजात) बहुत विद्वानों में प्रसिद्ध (अग्ने) विद्वन् ! जैसे मैं (ते) आपका (स्वपाः) उत्तम कर्म्म करनेवाला (धीरः) क्षमा आदि गुणों से युक्त और ध्यान करनेवाला (विप्रः) बुद्धिमान् जन के (न) सदृश (एतम्) इस श्रेष्ठ गुणों के प्रकाशक (रथम्) सुन्दर वाहन को (अतक्षम्) बनाता हूँ, वैसे (त्वम्) आचरण कीजिये और हे (देव) सम्पूर्ण विद्या के देनेवाले ! (यदि) जो आप वाहन को रचिये तो (इत्) ही (स्तोमम्) प्रशंसित व्यवहार जिसमें ऐसे सुख को प्राप्त हूजिये और जैसे हम लोग (एना) इससे (हर्याः) कामना करने योग्य अर्थात् सुन्दर (स्वर्वतीः) अच्छे सुखों से युक्त (अपः) प्राणों से युक्त (प्रति, जयेम) प्रति जीतें, वैसे आप इनको जीतिये ॥११
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् जन धर्म्मयुक्त कामनाओं को करके विजयी होते हैं, वैसे ही आप लोग भी आचरण करो ॥११
विषय
शुनःशेप के बन्धन मोचन का रहस्य
भावार्थ
भा०-हे ( तुविजात) बहुतों में प्रसिद्ध, कीर्त्तिमान् प्रभो ! राजन् ! ( सु-अपान ) उत्तम कर्म कुशल, कारीगर जिस प्रकार ( रथं ) उत्तम सुसम्बद्ध रथ बनाता है उसी प्रकार (ते) तेरे लिये ( एतं ) इस ( स्तोमं ) उपदेश युक्त स्तुत्य वचन को मैं ( विप्रः ) विद्वान् ( धीरः ) ध्यानवान् बुद्धिमान् पुरुष ( अतक्षम् ) प्रकट करता हूं । हे - (अग्ने) ज्ञानवन् प्रभो ! हे तेजस्विन् ! राजन् ! हे (देव) देव ! ( यदि इत्) यदि ( त्वं ) तू (प्रति हर्याः ) इसे स्वीकार करे तो हम ( स्वर्वतीः ) नाना सुखों से युक्त ( अपः ) ज्ञानों, कर्मों और आप्त प्रजाओं को भी (एना) इस उत्तम उपदेश द्वारा ( जयेम ) विजय करें | उन पर वश करें और उनके हृदय खीचलें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुमार आत्रेयो वृशो वा जार उभौ वा । २, वृशो जार ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द: – १, ३, ७, ८ त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, १० निचत्रिष्टुप् । ११ विराट् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पक्तिः । ६ भुरिक् पंक्तिः । १२ निचदतिजगती ॥ द्वादशचं सूक्तम् ॥
विषय
स्वर्वतीः अपः जयेम
पदार्थ
[१] हे (तुविजात) = महान् विकासवाले प्रभो! प्रत्येक गुण की चरमसीमा ही तो आप हैं, आप में ज्ञान व शक्ति का निरतिशय विकास हुआ है। मैं (विप्रः) = अपना पूरण करनेवाला (एतम्) = इस (ते स्तोमम्) = आपके स्तवन को (अतक्षम्) = करता हूँ, (न) = जैसे कि एक (धीरः) = धीर [ समझदार ] (स्वपाः) = उत्तम कर्मोंवाला पुरुष (रथम्) = रथ को बनाता है। यह स्तवन ही मेरे लिये जीवन-यात्रा की पूर्ति का साधनरूप रथ बन जाता है । [२] हे (देव) = प्रकाशमय प्रभो ! (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (यदि) = यदि (इत्) = इस स्तोम को [It] (त्वम्) = आप (प्रतिहर्याः) = स्वीकार करें, यह आपके लिये प्रीतिकर हो, तो (एना) = इस स्तोम के द्वारा हम (स्वर्वतीः अपः) = स्वर्ग को प्राप्त करानेवाले कर्मों का (जयेम) = विजय करें। इस स्तवन से आपको आराधित करके आपकी प्रेरणाओं से हम यज्ञादि उत्तम कर्मों को करें, जो कि हमारे घरों स्वर्गतुल्य सुखमय बनाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ– प्रभु-स्तवन करते हुए हम यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त हों, जिनके परिणामस्वरूप हमारे गृह स्वर्ग बनें ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे विद्वान लोक धर्माची इच्छा बाळगून विजय प्राप्त करतात तसे तुम्हीही आचरण करा. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, light and power divine among the strong and wise, I, dedicated to knowledge and service, bold and patient, keen to do good in word and action, structure this song of celebration like a skillful engineer designing and making a chariot for you. O lord refulgent, if you are kind and gracious to accept it, then by the same song we would win sweet and heavenly waters of life, light and energy for the joy of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the enlightened persons are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O famous learned person ! I do good deeds and meditation, endowed with patience, forgiveness and other virtues, and manufacture this beautiful chariot (vehicle). So you should also do. O giver of the knowledge of all sciences! if you build a good chariot, you would receive admirable dealings. We conquer these desirable Pranas (vital airs), endowed with admirable happiness. So you should also do.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! the highly learned persons conquer and they have only righteous desires in mind. So you should also do.
Foot Notes
(स्तोमम् ) प्रशंसित्वय व्यवहारम् । स्तु स्तुतौ. = Admirable. (हर्याः) कमनीया: । हर्य गति कान्त्वो (भ्वा० ) कांन्तिः - कामना । = Desiable. (अपः) प्राणान् । आपो वै प्राणा: (Stph. 3, 8, 2, 4,) प्राणोह्मय: (Jaiminiyopanishad 3, 10, 19 ) = Prānas or vital airs.
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