ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 2/ मन्त्र 9
ऋषिः - कुमार आत्रेयो वृषो वा जार उभौ वा
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वि ज्योति॑षा बृह॒ता भा॑त्य॒ग्निरा॒विर्विश्वा॑नि कृणुते महि॒त्वा। प्रादे॑वीर्मा॒याः स॑हते दु॒रेवाः॒ शिशी॑ते॒ शृङ्गे॒ रक्ष॑से वि॒निक्षे॑ ॥९॥
स्वर सहित पद पाठवि । ज्योति॑षा । बृ॒ह॒ता । भा॒ति॒ । अ॒ग्निः । आ॒विः । विश्वा॑नि । कृ॒णु॒ते॒ । म॒हि॒ऽत्वा । प्र । अदे॑वीः । मा॒याः । स॒ह॒ते॒ । दुः॒ऽएवाः॑ । शिशी॑ते । शृङ्गे॒ इति॑ । रक्ष॑से । वि॒ऽनिक्षे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि ज्योतिषा बृहता भात्यग्निराविर्विश्वानि कृणुते महित्वा। प्रादेवीर्मायाः सहते दुरेवाः शिशीते शृङ्गे रक्षसे विनिक्षे ॥९॥
स्वर रहित पद पाठवि। ज्योतिषा। बृहता। भाति। अग्निः। आविः। विश्वानि। कृणुते। महिऽत्वा। प्र। अदेवीः। मायाः। सहते। दुःऽएवाः। शिशीते। शृङ्गे इति। रक्षसे। विऽनिक्षे ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 9
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यथाग्निर्बृहता ज्योतिषा महित्वा विश्वान्याविष्कृणुते वि भाति प्र सहते शृङ्गे रक्षसे विनिक्षे शिशीते तथा दुरेवा अदेवीर्मायाः सर्वतो निवारयतः ॥९॥
पदार्थः
(वि) विशेषेण (ज्योतिषा) प्रकाशेन (बृहता) महता (भाति) प्रकाशते (अग्निः) सूर्यादिरूपेण पावकः (आविः) प्राकट्ये (विश्वानि) सर्वाणि वस्तूनि (कृणुते) (महित्वा) महत्त्वेन (प्र) (अदेवीः) अशुद्धाः (मायाः) छलादियुक्ता प्रज्ञाः (सहते) (दुरेवाः) दुष्टमेवः प्रापणं कर्म यासां ताः (शिशीते) तेजते (शृङ्गे) (रक्षसे) दुष्टानां विनाशाय (विनिक्षे) विनाशाय ॥९॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्योऽन्धकारं निवार्य प्रकाशं जनयित्वा भयं निवारयति तथैव विद्वांसो गाढमज्ञानं निवार्य विद्यार्कं जनयित्वा सर्वेषामात्मनः प्रकाशयन्तु ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वानो ! जैसे (अग्निः) सूर्य्य आदि रूप से अग्नि (बृहता) बड़े (ज्योतिषा) प्रकाश से (महित्वा) बड़प्पन से (विश्वानि) सम्पूर्ण वस्तुओं को (आविः) प्रकट (कृणुते) करता है (वि) विशेष करके (भाति) प्रकाशित होता है और (प्र) अत्यन्त (सहते) सहन करता है (शृङ्गे) शृङ्ग के निमित्त (रक्षसे) दुष्टों के विनाश के लिये (विनिक्षे) वा अन्य विनाश के लिये (शिशीते) प्रतापयुक्त होता है, वैसे (दुरेवाः) दुष्ट प्राप्त कराने रूप कर्मवाली (अदेवीः) अशुद्ध (मायाः) छल आदि से युक्त बुद्धियों को सब प्रकार से वारण कीजिये ॥९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य अन्धकार का वारण कर और प्रकाश को उत्पन्न करके भय का निवारण करता है, वैसे ही विद्वान् जन घोर अज्ञान का निवारण करके विद्यारूप सूर्य को उत्पन्न करके सब के आत्माओं को प्रकाशित करें ॥९॥
विषय
राजा के नाना कर्त्तव्य
भावार्थ
भा०- ( अग्निं ) अग्नि वा सूर्य जिस प्रकार ( बृहता ज्योतिषा विभाति ) बड़े भारी प्रकाश से चमकता और ( महित्वा ) बड़े भारी सामर्थ्य से (विश्वानि आविः कृणुते ) सब पदार्थों को प्रकट कर देता है उसी प्रकार (अग्निः) अग्रणी नायक और विद्वान् पुरुष ( बृहता ) बड़े भारी ( ज्योतिषा ) ज्ञान और तेज से ( वि भाति) विविध प्रकार से चमके और (महित्वा ) अपने महान् सामर्थ्य से ( विश्वानि ) सब सत्य ज्ञानों और ज्ञातव्य पदार्थों को प्रकाशित करे । वह (महित्वा ) महान् तेजः- प्रभाव से ही ( अदेवी: ) देव, सूर्यवत् तेजस्वी, विद्वान् उत्तम पुरुषों से भिन्न बुरे लोगों की ( दुरेवाः ) दुःखदायक और दुर्गम ( मायाः ) छल कपटादियुक्त अन्धकार से होने वाली दुश्चेष्टाओं को ( सहते ) पराजित करता है, उनको चलने या सफल होने नहीं देता, और वह ( शृङ्गे) प्रकट और अप्रकट अपने दुष्टों के नाशकारी साधनों को ( रक्षसे ) विघ्नकारी पुरुषों के (विनिक्षे ) विनाश करने के लिये ( शिशीते) तीक्ष्ण करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुमार आत्रेयो वृशो वा जार उभौ वा । २, वृशो जार ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द: – १, ३, ७, ८ त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, १० निचत्रिष्टुप् । ११ विराट् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पक्तिः । ६ भुरिक् पंक्तिः । १२ निचदतिजगती ॥ द्वादशचं सूक्तम् ॥
विषय
सद्गुणों का विकास-राक्षसीभावों का विनाश
पदार्थ
[१] आचार्य से ज्ञान को प्राप्त करके (बृहता ज्योतिषा) = महान् ज्ञान ज्योति से विभाति यह विशेषरूप से चमकता है। (अग्निः) = प्रगतिशील होता है। महित्वा ज्ञान की महिमा से (विश्वानि) = सब सद्गुणों को (आविः कृणुते) = अपने में प्रादुर्भूत करता है। [२] (अदेवी:) = अदिव्य, अर्थात् आसुरी (मायाः) = मायाओं को, छलकपट की भावनाओं को (प्रसहते) = प्रकर्षेण कुचल देता है। ये मायाएँ ही तो (दुरेवा:) = दुष्टगमनवाली हैं, उसे कुटिल मार्ग पर ले जानेवाली हैं। यह (रक्षसे विनिक्षे) = राक्षसीभावों के विनाश के लिये (शृंगे शिशीते) = अपराविद्या व पराविद्या, प्रकृतिविद्या व आत्मविद्या रूप-शृंगों को तीव्र करता है। इन ज्ञानों को प्राप्त करके ही वह सब दुर्भावों से ऊपर उठ पाता है।
भावार्थ
भावार्थ- ज्ञान ज्योति से हमारे में सद्गुणों का विकास तथा राक्षसीभावों का विनाश होता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य अंधकाराचे निवारण करून प्रकाश उत्पन्न करतो व भयाचे निवारण करतो तसेच विद्वान लोक गाढ अज्ञानाचे निवारण करून विद्यारूपी सूर्य उत्पन्न करून सर्व आत्म्यांमध्ये प्रकाश करवितात. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni shines and blazes expansively with mighty rising flames of light, and with its lustre and power illuminates and reveals all things of the world. It sharpens and extends its arms of light and power for the destruction of evil and challenges and throws out the strength and wiles and acts of the clever forces of negation and destruction.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the enlightened persons are defined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Agni in the form of the sun (sun-light or knowledge. Ed.) etc. shines with great radiance. It makes all things manifest by its light. It sharpens its horns for the destruction of the Rakshasas or germs of diseases. In the same manner, you should dispel all un-divine deceitful intellects or ideas which lead to evil outcome from all sides.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the sun dispels all darkness and fear by generating light, in the same manner, the enlightened persons should dispel all darkness of ignorance, and illuminate the souls of all by generating the sun of true knowledge.
Foot Notes
(मायाः ) छला दियुक्ताः प्रथाः । मायेति प्रज्ञानाम (NG 3, 9) अत्र दुष्ट प्रजाग्रहणं प्रसङ्गवशात् । = Intellects full of deceit etc. (दुरेवा:) दुष्टम् एव प्रापणं कर्म यासां त्सः । = Leading to wicked or evil actions. (अग्निः ) सूर्यादिरूपेण पावकः इन (ई) गतौ । गते स्त्रिष्वर्थेषु प्राप्त्यर्थं-ग्रहणम् । = Agni in the form of the sun etc.
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