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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कुमार आत्रेयो वृषो वा जार उभौ वा देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    हिर॑ण्यदन्तं॒ शुचि॑वर्णमा॒रात्क्षेत्रा॑दपश्य॒मायु॑धा॒ मिमा॑नम्। द॒दा॒नो अ॑स्मा अ॒मृतं॑ वि॒पृक्व॒त्किं माम॑नि॒न्द्राः कृ॑णवन्ननु॒क्थाः ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हिर॑ण्यऽदन्तम् । शुचि॑ऽवर्णम् । आ॒रात् । क्षेत्रा॑त् । अ॒प॒श्य॒म् । आयु॑धा । मिमा॑नम् । द॒दा॒नः । अ॒स्मै॒ । अ॒मृत॑म् । वि॒पृक्व॑त् । किम् । माम् । अ॒नि॒न्द्राः । कृ॒ण॒व॒न् । अ॒नु॒क्थाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यदन्तं शुचिवर्णमारात्क्षेत्रादपश्यमायुधा मिमानम्। ददानो अस्मा अमृतं विपृक्वत्किं मामनिन्द्राः कृणवन्ननुक्थाः ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यऽदन्तम्। शुचिऽवर्णम्। आरात्। क्षेत्रात्। अपश्यम्। आयुधा। मिमानम्। ददानः। अस्मै। अमृतम्। विपृक्वत्। किम्। माम्। अनिन्द्राः। कृणवन्। अनुक्थाः ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! योऽहं कृतब्रह्मचर्य्ययोः क्षेत्राज्जातं हिरण्यदन्तं शुचिवर्णमायुधा मिमानमारादपश्यमस्मै विपृक्वदमृतं ददानोऽहमस्मि तं मामनिन्द्रा अनुक्थाः किं कृणवन् ॥३॥

    पदार्थः

    (हिरण्यदन्तम्) हिरण्येन सुवर्णेन तेजसा वा तुल्या दन्ता यस्य तम् (शुचिवर्णम्) पवित्रस्वरूपमतिसुन्दरं वा (आरात्) समीपात् (क्षेत्रात्) संस्कृताया भार्यायाः (अपश्यम्) पश्येयम् (आयुधा) आयुधानि (मिमानम्) धर्त्तारम् (ददानः) दाता (अस्मै) (अमृतम्) मोक्षसुखम् (विपृक्वत्) विशेषेण सम्बद्धम् (किम्) (माम्) (अनिन्द्राः) अनैश्वर्य्याः (कृणवन्) कुर्युः (अनुक्थाः) अविद्वांसः ॥३॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! पूर्णब्रह्मचर्य्यशिक्षाविद्यायुवावस्थापरस्परप्रीतिभिर्विना सन्तानानां विवाहं मा कुर्वन्त्वेवं कुर्वाणाः सर्वेऽत्युत्तमान्यपत्यानि प्राप्यातीवानन्दं लभन्ते य एवं जायन्ते तत्समीपे दारिद्र्यं मूर्खता दरिद्रा अविद्वांसो वा जनाः किमपि विघ्नं कर्त्तुं न शक्नुवन्ति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो मैं, किया ब्रह्मचर्य्य जिन्होंने ऐसे स्त्री पुरुषों में से (क्षेत्रात्) संस्कार की हुई भार्या स्त्री से उत्पन्न हुए (हिरण्यदन्तम्) सुवर्ण वा तेज के तुल्य दाँतवाले (शुचिवर्णम्) पवित्र स्वरूपयुक्त अतिसुन्दर और (आयुधा) शस्त्र और अस्त्रों को (मिमानम्) धारण करनेवाले को (आरात्) समीप से (अपश्यम्) देखूँ और (अस्मै) इसके लिये (विपृक्वत्) विशेष करके सम्बद्ध (अमृतम्) मोक्षसुख को (ददानः) देता हुआ मैं हूँ उस (माम्) मुझ को (अनिन्द्राः) ऐश्वर्य्य से रहित (अनुक्थाः) अविद्वान् जन (किम्) क्या (कृणवन्) करें ॥३॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! पूर्ण शास्त्र नियत ब्रह्मचर्य्य, शिक्षा, विद्या, युवावस्था और परस्पर प्रीति के बिना सन्तानों का विवाह न करें । इस प्रकार करते हुए सब जन अति उत्तम सन्तानों को प्राप्त होकर अति ही आनन्द को प्राप्त होते हैं, जो इस प्रकार प्रसिद्ध होते हैं, उनके समीप दारिद्र्य मूर्खता वा दरिद्री और अविद्वान् जन कुछ भी विघ्न नहीं कर सकते हैं ॥३॥

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    विषय

    माता पुत्र के दृष्टान्त से आचार्य शिष्य और राजा और पृथिवी का वर्णन

    भावार्थ

    भा०-जिस प्रकार ( क्षेत्रात् ) मूल स्थान, काष्ठ से (शुचिवर्णं हिरण्यदन्तं ) शुद्ध, वर्णं वाले स्वर्णतुल्य दन्त के समान ज्वाला युक्त अग्नि को सब देखते हैं अथवा जिस प्रकार ( क्षेत्रात् ) उत्पन्न होने के स्थान रूप माता के शरीर से उत्पन्न हुए ( हिरण्यदन्तं ) चमकती धातु चांदी के तुल्य दन्त वाले ( शुचिवर्णं ) शुद्ध कान्तिमान् रंगवाले सुन्दर बालक को प्रेम से लोग देखते हैं उसी प्रकार मैं प्रजाजन भी ( क्षेत्रात् ) युद्ध क्षेत्र के ( आरात् ) दूर और समीप ( आयुधा मिमानं ) नाना अस्त्रों शस्त्रों को चलाते हुए (हिरण्यदन्तं ) लोह के बने शस्त्र वाले, ( शुचिवर्णम् ) शुद्ध, उज्ज्वल वर्णं वाले, राजा वा नायक को ( अपश्यम् ) देखूं । वह सदा ( अस्मा ) इस प्रजाजन के ( विक्वत् ) पापादि को दूर करने वाले वीर वा विद्वान् पुरुषों से युक्त (अमृत) अविनाशी बल वा ऐश्वर्य ( ददानः ) देता रहा करे। तब ( माम् ) मेरे प्रति ( अनुक्थाः ) अशिक्षित, अग्रशस्त ( अनिन्द्राः ) ऐश्वर्य और उत्तम शत्रुहन्ता राजा से रहित शत्रु जन (किं कृणवन्) क्या बिगाड़ कर सकते हैं। 'विपृक्-वत्' - विपृचौ विमा पाप्मना पृङक्तम् । इति यजुः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुमार आत्रेयो वृशो वा जार उभौ वा । २, वृशो जार ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द: – १, , , ८ त्रिष्टुप् । ४, , , १० निचत्रिष्टुप् । ११ विराट् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पक्तिः । ६ भुरिक् पंक्तिः । १२ निचदतिजगती ॥ द्वादशचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    हिरण्यदन्त- शुचिवर्ण

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र में वर्धित कुमार का ही उल्लेख करते हुए कहते हैं कि (हिरण्यदन्तम्) = अत्यन्त हितरमणीय दाँतोंवाले अथवा स्वर्ण के समान चमकते हुए दाँतोंवाले, (शुचिवर्णम्) = पवित्र दीप्त वर्णवाले, तेजस्वी, इस कुमार को (अपश्यम्) = देखता हूँ। यह (क्षेत्रात् आराद्) = [आरात्=रुचि] इस क्रियाक्षेत्र शरीर में ही स्थित होकर (आयुधा मिमानम्) = इन्द्रियों, मन व बुद्धि आदि जीवन संग्राम के आयुधों का निर्माण करते हुए है। यह सदा इनके परिष्कार में लगा रहता है । [२] यह कुमार (अस्मा) = हमारे लिये (विपृक्वत्) = विशिष्ट सम्पर्क के साधनभूत [पृच् संपर्के] प्रभु सम्पर्क को करानेवाले, (अमृतम्) = मृत्यु से ऊपर उठानेवाले [न मृतं यस्मात्] ज्ञान को (ददान:) = धारण करता है। हमारे लिये उत्कृष्ट ज्ञान को प्राप्त कराता है। इस ज्ञान को प्राप्त कर लेने पर अब (अनिन्द्राः) = प्रभु को माननेवाले, जगद् को अनीश्वर कहनेवाले (अनुक्था:) = प्रभु-स्तवन से सदा दूर रहनेवाले (मां किं कृणवन्) = मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं, अर्थात् अब ये मुझे व्यर्थ की बातों से बहकाकर मार्गभ्रष्ट नहीं कर सकते।

    भावार्थ

    भावार्थ- उत्तम आचार्यों से ज्ञान प्राप्त करनेवाला कुमार पूर्ण स्वस्थ, मन, बुद्धि आदि का -परिष्कार करनेवाला औरों के लिये ज्ञान को देनेवाला बनता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो, पूर्ण ब्रह्मचर्य, शिक्षण, विद्या, युवावस्था व परस्पर प्रेम याशिवाय संतानांचा विवाह करू नये. याप्रमाणे वागल्यास सर्वांना उत्तम संतान प्राप्त होऊन ते अतिशय आनंदी होतात. या प्रकारे वागल्यास त्यांच्याजवळ दारिद्र्य व मूर्खपणा फिरकत नाही व अविद्वान लोक कोणतेही विघ्न आणू शकत नाहीत. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I see him born of the mother’s womb far and near with a golden spoon in his month, pure and bright of form, wielding his weapons of essential potential. And I give him the feed of immortal elixir for life. What can those deny Indra, the soul? What can those who reject knowledge and celebration of Divinity do against me? Nothing.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! I have seen very closely the son born from the union of those couples who have observed Brahmacharya, and where the mother is a married cultured woman, Such a son has shining teeth like gold or full of splendor, possesses pure and beautiful appearance and wielder of sharp weapons. Being a liberal donor, I give him the bliss of emancipation. What harm can those, who are devoid of true wealth and not learned, do to me? Nothing.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! let not your children marry without the observance of perfect Brahmacharya (continence), education. true knowledge, youth and mutual love. If you follow this line, all will be blessed with very good progeny and attain much bliss. Those who become such good children, poverty, foolishness of the poor and the stupid, can not obstruct them in any way.

    Foot Notes

    (हिरण्यदन्तम् ) हिरण्येन सुवर्षेन तेजसा वा तुल्या दन्ता यस्य तेजोवे हिरण्य' (Tattiriya Brahman 1, 8, 9, 11) = Whom teeth shining like gold or are full of splendor (आरात् ) समीपात् । आराद् दूर समीपयोः । = From near. (अमृतम् ) मोक्षेसुखम् । The happiness of emancipation. (अनुस्था) अविद्वांसः । = Not highly learned.

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