ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 2/ मन्त्र 8
ऋषिः - कुमार आत्रेयो वृषो वा जार उभौ वा
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
हृ॒णी॒यमा॑नो॒ अप॒ हि मदैयेः॒ प्र मे॑ दे॒वानां॑ व्रत॒पा उ॑वाच। इन्द्रो॑ वि॒द्वाँ अनु॒ हि त्वा॑ च॒चक्ष॒ तेना॒हम॑ग्ने॒ अनु॑शिष्ट॒ आगा॑म् ॥८॥
स्वर सहित पद पाठहृ॒णी॒यमा॑नः । अप॑ । हि । मत् । ऐये॑ । प्र । मे॒ । दे॒वाना॑म् । व्र॒त॒ऽपाः । उ॒वा॒च॒ । इन्द्रः॑ । वि॒द्वान् । अनु॑ । हि । त्वा॒ । च॒चक्ष॑ । तेन॑ । अ॒हम् । अ॒ग्ने॒ । अनु॑ऽशिष्टः । आ । अ॒गा॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
हृणीयमानो अप हि मदैयेः प्र मे देवानां व्रतपा उवाच। इन्द्रो विद्वाँ अनु हि त्वा चचक्ष तेनाहमग्ने अनुशिष्ट आगाम् ॥८॥
स्वर रहित पद पाठहृणीयमानः। अप। हि। मत्। ऐयेः। प्र। मे। देवानाम्। व्रतऽपाः। उवाच। इन्द्रः। विद्वान्। अनु। हि। त्वा। चचक्ष। तेन। अहम्। अग्ने। अनुऽशिष्टः। आ। अगाम् ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! हृणीयमानस्त्वं हि मदपैयेर्यो हीन्द्रो विद्वाँस्त्वानु चचक्ष यो मे देवानां व्रतपाः सन् सत्यं प्रोवाच तेनाऽनुशिष्टोऽहं सत्यं बोधमागाम् ॥८॥
पदार्थः
(हृणीयमानः) क्रोधं कुर्वन् (अप) (हि) खलु (मत्) (ऐयेः) गच्छेः (प्र) (मे) मह्यम् (देवानाम्) विदुषाम् (व्रतपाः) सत्यरक्षकः (उवाच) उच्यात् (इन्द्रः) विद्यैश्वर्य्ययुक्तः (विद्वान्) (अनु) (हि) यतः (त्वा) त्वाम् (चचक्ष) कथयेत् (तेन) (अहम्) (अग्ने) त्रिदोषदाहक (अनुशिष्टः) प्राप्तशिक्षः (आ) (अगाम्) प्राप्नुयाम् ॥८॥
भावार्थः
ये मनुष्या दुष्टगुणकर्मस्वभावाः स्युस्ते दूरं रक्षणीयाः। ये च धर्मिष्ठाः सत्यमुपदिशेयुस्तत्सङ्गेन शिष्टा भूत्वा सुखमाप्नुत ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) तीन दोषों के नाश करनेवाले ! (हृणीयमानः) क्रोध करते हुए आप (हि) ही (मत्) मेरे समीप से (अप, ऐयेः) जाइये और जो (हि) निश्चय (इन्द्रः) विद्या और ऐश्वर्य्य से युक्त (विद्वान्) विद्वान् (त्वा) आपको (अनु, चचक्ष) अनुकूल कहे और जो (मे) मेरे लिये (देवानाम्) विद्वानों के बीच (व्रतपाः) सत्य की रक्षा करनेवाला हुआ सत्य को (प्र, उवाच) कहे (तेन) इससे (अनुशिष्टः) शिक्षा को प्राप्त (अहम्) मैं सत्यबोध को (आ, अगाम्) प्राप्त होऊँ ॥८॥
भावार्थ
जो मनुष्य दुष्ट गुण, कर्म, स्वभाववाले हों वे दूर रखने योग्य हैं और जो धर्मिष्ठ सत्य का उपदेश करें, उनके सङ्ग से शिष्ट अर्थात् श्रेष्ठ होके सुख को प्राप्त होवें ॥८॥
विषय
राजा के नाना कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०-हे (अग्ने) नायक ! अग्रणी ! राजन् ! ( हणीयमानः ) क्रोध या तिरस्कार करता हुआ तू ( मत्) मुझ से (हि) कभी ( अप ऐयेः ) तू परे, कुमार्ग में भी जा सकता है । इसलिये जो ( देवानां ) विद्वानों के ( व्रत-पाः ) व्रतों, कर्त्तव्यों का पालन करने करानेहारा (विद्वान् इन्द्रः ) ज्ञानवान्, तत्वद्रष्टा, न्यायशासक पुरुष ( मे प्रोवाच ) मुझे सत्कर्मों का उपदेश करता है वह ही ( त्वा अनुचचक्ष ) तुझे भी तेरे अनुकूल कर्त्तव्यों का उपदेश करे । ( तेन अनु शिष्टः ) उससे अनुशासित होकर ( अहम् आ अगाम् ) मैं आगे, आदर पूर्वक बढ़ता हूं । प्रजाओं के उत्तम शासक शिक्षक विद्वान् ही राजाओं के भी शासक वा शिक्षक होने चाहियें। जो दोनों को उत्पथ जाने से रोकें । मदवश राजा उत्पथ हो जावे तो प्रजा उसको विद्वान् इन्द्र, न्यायाधीश से ही दण्ड दिला सकती है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुमार आत्रेयो वृशो वा जार उभौ वा । २, वृशो जार ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द: – १, ३, ७, ८ त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, १० निचत्रिष्टुप् । ११ विराट् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पक्तिः । ६ भुरिक् पंक्तिः । १२ निचदतिजगती ॥ द्वादशचं सूक्तम् ॥
विषय
['जितेन्द्रिय ज्ञानी' आचार्य] फिर से प्रभु का प्रिय बनना
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! जब मैं विषयों में फँस गया तो मुझे अपने पुत्र के रूप में स्वीकार करने में लज्जा अनुभव करते हुए आप (मत्) = मेरे से (हि) = निश्चयपूर्वक (अप ऐये:) = दूर हो गये। प्रभु का पुत्र विषयों में फँसे यह प्रभु के लिये भी लज्जाकर है ही। (देवानां व्रतपा:) = देवों के व्रतों के पालन करनेवाले ज्ञानी पुरुष ने (मे) = मुझे (प्र उवाच) = इस बात को कहा। देवों के व्रतों का पालन करनेवाला यह ज्ञानी मुझे प्रेरणा देता हुआ बतला रहा था कि इस प्रकार विषय मलिन तुझे प्रभु अपने पुत्र के रूप में कैसे स्वीकार करें ? [२] (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय (विद्वान्) = ज्ञानी पुरुष (हि) = निश्चय से (त्वा) = आपको (अनुचचक्ष) = सर्वत्र आपकी महिमा का दर्शन करता हुआ देखता है । (तेन) = उसी से (अनुशिष्टः) = अनुशासन-उपदेश को प्राप्त करके (अहम्) = मैं (आगाम्) = आपके पास आया हूँ। विषय वासनाओं को छोड़कर मैं आपका पुनः प्रिय बनने की कामनावाला हूँ।
भावार्थ
भावार्थ- जितेन्द्रिय ज्ञानी आचार्यों से अनुशिष्ट होकर, विषयों से हम ऊपर उठें और प्रभु के प्रिय बनें ।
मराठी (1)
भावार्थ
दुष्ट गुणकर्मस्वभावयुक्त माणसांना दूर ठेवावे व धार्मिक, सत्याचा उपदेश करणाऱ्यांच्या संगतीत श्रेष्ठ बनून सुख प्राप्त करावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The observer of the laws of righteousness and divinity says: Let the element of hate and anger be away from me. Indra, man of knowledge and power, who knows and speaks of you, O Agni, destroyer of the pollution and impurity of body, mind and soul, has spoken to me and, instructed by him, I come to you in search of purity and purgation.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of enlightened persons are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O burner of all the sins and evil's like fire ! (enlightened persons)! do not leave or depart away from me when feel angry. Let me acquire true knowledge from Indra-a preceptor endowed with the great wealth of wisdom who has imparted instructions to you. Being the protector of the vow of truth undertaken by the enlightened persons, he has taught the truth to me. Instructed by him, let me acquire true knowledge.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men who are of evil attributes, actions and temperament should be kept away. By the association of the righteous persons who preach truth, people become good and enjoy happiness.
Foot Notes
(अग्ने) त्रिदोषनाशक । = Burner of sins and evils like the fire of three kinds. (इन्द्र:) विश्चैश्वर्ययुक्तः । इंदि-परमेश्वर्ये । = Endowed with the great wealth of wisdom. (हृणीयमानः) क्रोधं कुर्वन् । ह्रणीयति कृध्यतिकर्मा (NG 2, 19, 12) = Being angry.
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